Crime Katha: भागलपुर से जहानाबाद तक... सूबे में ऐसा है जेल ब्रेक का इतिहास, बड़ी घटनाओं से कई बार दहला बिहार

बिहार में जेल ब्रेक की घटनाओं ने कई बार पुलिस और जेल प्रशासन के लिए परेशानियां खड़ी की हैं. बिहार के ऐसे मामलों को देखने पर साल 1947 से 2025 तक नक्सलवाद, बाहुबल और लापरवाही की झलक साफ नजर आती है. बिहार की क्राइम कथा में पढ़ें जेल ब्रेक की सिलसिलेवार कहानी.

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जहानाबाद केस बिहार का सबसे बड़ा जेल ब्रेक था (फोटो-ITG) जहानाबाद केस बिहार का सबसे बड़ा जेल ब्रेक था (फोटो-ITG)

परवेज़ सागर

  • नई दिल्ली,
  • 05 नवंबर 2025,
  • अपडेटेड 9:09 AM IST

Crime Katha of Bihar: बिहार का इतिहास जुर्म और विद्रोह से भरा पड़ा है. जिसमें आजादी के बाद से ही जेल ब्रेक की घटनाएं राज्य की सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाती रहीं हैं. साल 1947 से 2025 तक सूबे में करीब 10 से 15 बड़े जेल ब्रेक हुए हैं, जिनमें नक्सलवाद, बाहुबली अपराधियों की धमक और प्रशासनिक लापरवाही नजर आती है. ये घटनाएं सिर्फ कैदियों की आजादी नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल का प्रतीक बनीं. नक्सली संगठनों ने इन्हें 'ऑपरेशन जेल ब्रेक' जैसे नाम देकर क्रांति का हथियार बनाया. ऐसे में कई बाहुबलियों ने राजनीतिक संरक्षण के दम पर जेलों को नजरअंदाज किया. इन जेल ब्रेक की घटनाओं ने बिहार की 'जंगलराज' वाली छवि भी उजागर की. 'बिहार की क्राइम कथा' में हम लेकर आए हैं, जेल ब्रेक वो घटनाएं जिन्होंने बिहार की कमजोर कानून-व्यवस्था को सबके सामने उजागर किया.

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हजारीबाग जेल ब्रेक 1970 - पहली बड़ी साजिश
साल 1970 में हजारीबाग जेल ब्रेक ने बिहार को हिला कर रख दिया था. यह घटना नक्सल आंदोलन के शुरुआती दौर की थी, जब कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के सदस्यों ने जेल पर संगठित हमला बोला था. क्रांतिकारियों ने जेल पर हमला कर कई कैदियों को आजाद कराया था. जिनमें प्रमुख नक्सली नेता शामिल थे. हमलावरों ने हथियारों से लैस होकर सुरक्षाकर्मियों पर गोलीबारी की और दीवार तोड़कर भाग निकले थे. यह जेल ब्रेक ब्रिटिश काल की जेल व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक बन गया था. इस घटना के बाद पुलिस ने बड़े पैमाने पर सर्च ऑपरेशन चलाया था, लेकिन कई फरार कैदी वर्षों तक छिपे रहे. इस घटना ने नक्सलवाद को राष्ट्रीय मुद्दा बनाया. हजारीबाग, जो तब बिहार का हिस्सा था, इस घटना से दहल गया था. कुल मिलाकर, यह जेल ब्रेक नक्सलियों की ताकत का पहला बड़ा प्रदर्शन था.

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भागलपुर जेल ब्रेक 1987 - जातीय हिंसा का चरम
साल 1987 का भागलपुर जेल ब्रेक जातीय हिंसा और अराजकता का प्रतीक था. भागलपुर दंगे के दौरान, जब हिंदू-मुस्लिम दंगे चरम पर थे. कुछ कैदियों ने अवसर का फायदा उठाया. लगभग 20 कैदी जेल की दीवार तोड़कर भाग निकले. ये सभी दंगे से जुड़े अपराधी थे. हमलावरों ने भीड़ का सहारा लिया और जेल के सुरक्षाकर्मियों को धमकाया. इसी घटना से 1989 के बड़े दंगों की नीव बनी थी, जहां सैकड़ों लोग मारे गए थे. इस केस में पुलिस की लापरवाही साफ दिखी थी, क्योंकि जेल में सुरक्षा ढीली थी. कई फरार कैदी बाद में पकड़े गए थे. इस जेल ब्रेक ने बिहार सरकार पर दबाव बढ़ा दिया था. गंगा के किनारे बसा शहर भागलपुर तब अपराध का केंद्र बन चुका था.

छपरा जेल ब्रेक 1990 - बाहुबलियों का असर
साल 1990 में छपरा जेल ब्रेक ने बाहुबलियों के युग की शुरुआत की. सरण जिले की इस जेल से 13 कैदी भागे थे, जिनमें राजकिशोर चौधरी जैसे कुख्यात अपराधी शामिल थे. कैदियों ने बांस की सीढ़ी का इस्तेमाल कर उत्तरी दीवार फांदी थी. यह घटना लालू प्रसाद यादव के सत्ता में आने के दौर की थी, जब जातीय राजनीति चरम पर थी. फरार कैदियों पर हत्या, लूट और अपहरण के दर्जनों केस थे. उस वक्त पुलिस ने बिहार में हाई अलर्ट जारी किया था. छपरा में गंगा नदी के किनारे अपराध का गढ़ हुआ करता था. इस जेल ब्रेक ने जेल सुरक्षा पर सवाल उठाए थे. कुल मिलाकर, यह घटना बाहुबल और राजनीति के गठजोड़ का उदाहरण था.

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नवादा जेल ब्रेक 2001 - अशोक महतो की फरारी
साल 2001 का नवादा जेल ब्रेक बिल्कुल फिल्मी था. 23 दिसंबर को 8 कैदी फरार हुए थे, जिसमें अशोक महतो जैसे खूंखार गैंगस्टर शामिल थे. ये लोग संत्री को मारकर भाग निकले थे. महतो पर अपसढ़ नरसंहार का इल्जाम था. सहयोगियों ने जेल के बाहर हमला बोला और दीवार फोड़ी. घटना के बाद जेल मंत्री और पुलिस में आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल पड़ा था. नवादा जिले में स्टाफ की कमी थी, वही जेल ब्रेक का कारण बनी. फरार कैदियों ने बाद में कई हत्याएं कीं. IPS अमित लोढ़ा ने अशोक महतो को पकड़ने का ऑपरेशन चलाया, जो 'खाकी: द बिहार चैप्टर' वेब सीरीज का आधार बना. इस सीरीज ने बिहार की जेल व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी थी.

जहानाबाद जेल ब्रेक 2005 - बिहार का सबसे बड़ा जेल ब्रेक
साल 2005 का जहानाबाद जेल ब्रेक बिहार का सबसे कुख्यात जेल ब्रेक था. 13 नवंबर को CPI (माओवादी) के 1000 नक्सलियों ने 'ऑपरेशन जेल ब्रेक' को अंजाम दिया था. इस दौरान जेल में बंद 389 कैदी आजाद करा लिए गए थे, जिनमें अजय कानू जैसे नक्सली नेता भी शामिल थे. नक्सलियों ने जेल में बम फोड़े थे. पुलिस लाइन पर हमला किया था. और रणवीर सेना के कमांडर बीनू शर्मा की हत्या कर दी गई थी. वारदात के वक्त उस जेल की क्षमता 140 थी, लेकिन वहां 659 कैदी बंद थे. तत्कालीन पुलिस अधीक्षक (SP) सुनील कुमार सस्पेंड कर दिए गए थे. यह घटना विधानसभा चुनाव के दौरान हुई, जिसने नक्सल के खतरे को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर किया था. कहा जाता है कि उस वक्त जहानाबाद शहर तीन घंटे तक नक्सलियों के कब्जे में रहा था. 

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जहानाबाद जेल ब्रेक के दूरगामी प्रभाव
जहानाबाद जेल ब्रेक ने बिहार की राजनीति बदल कर रख दी. हालांकि इस घटना ने नक्सल विरोधी नीतियों को मजबूत किया और नीतीश कुमार सरकार की अपराध नियंत्रण प्राथमिकताओं को प्रभावित किया. केंद्र ने इसके बाद मौके पर पैरामिलिट्री फोर्स भेजी थी. नक्सली जंगल छोड़कर झारखंड-छत्तीसगढ़ भाग निकले थे. सूबे की जेलों में सुधार हुए, लेकिन ओवरक्राउडिंग बनी रही. हालांकि अजय कानू साल 2007 में पकड़ा गया था, लेकिन साल 2022 में रिहा कर दिया गया था. 

छपरा जेल ब्रेक 2011 - दोहराई गई लापरवाही
साल 2011 में छपरा जेल ब्रेक ने पुरानी कमजोरियों को फिर उजागर किया. हत्या के दोषी कैदियों ने बम फोड़कर और दीवार फांदकर भाग निकले थे. घटना रात में हुई थी, जब नहीं थे. सरण जिला, जो पहले भी ब्रेक का शिकार हुआ, फिर दहला. पुलिस ने बड़े पैमाने पर सर्च चलाया, लेकिन कुछ फरार वर्षों तक छिपे रहे. यह नीतीश कुमार सरकार के दौर की थी, जब अपराध नियंत्रण की कोशिशें चल रही थीं. जेल में भीड़भाड़ और सुरक्षा की कमी मुख्य कारण बनी. फरार कैदियों पर लूट और अपहरण के केस थे. इसने जेल सुधारों की मांग तेज की. कुल मिलाकर, यह 1990 की घटना का दोहराव था, जो सबक न लेने की गवाही देता है.

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मोतिहारी जेल ब्रेक 2013 - नाकाम साजिश की कहानी
साल 2013 में मोतिहारी जेल ब्रेक की योजना STF ने नाकाम कर दी. चार हथियारबंद अपराधी अदालत परिसर में घुसकर फायरिंग करने वाले थे, ताकि दो अंडरट्रायल बदमाश वहां से भाग सकें. वे दोनों थे केशव और रूपेश सिंह. मंदिर विवाद से जुड़े इस प्लान में हवा में गोली चलाकर हड़बड़ी मचाने का इरादा था. लेकिन पुलिस की टिपऑफ से चारों हमलावर पकड़े गए. उस वक्त मोतिहारी चंपारण अपराध का केंद्र था. मगर यह घटना जेल ब्रेक रोकने की मिसाल बनी. नीतीश सरकार ने इसे सुरक्षा मजबूती का प्रमाण बताया. फरार होने वाले केशव पर मंदिर पोस्ट विवाद में हत्या का केस था. कुल मिलाकर, यह साजिश बिहार की बढ़ती सतर्कता दिखा रही थी.

मधेपुरा जेल ब्रेक 2017 - भीड़ का शिकार
साल 2017 का मधेपुरा जेल ब्रेक जेलों की ओवरक्राउडिंग की समस्या को उजागर करता है. जिला जेल में उस वक्त 742 कैदी थे, जबकि वहां की क्षमता सिर्फ 182 कैदी थी. वहां के कई कैदी हत्या और लूट के दोषी थे. जो दीवार तोड़कर भाग निकले थे. जेल ब्रेक की यह वारदात रात में हुई थी, उस वक्त वहां गार्ड कम थे. ये वो दौर था, जब कोसी इलाका बाढ़ और गरीबी से जूझ रहा था. पुलिस ने हाई अलर्ट जारी किया था, लेकिन अब तक कई फरार कैदी पकड़े नहीं गए. नीतीश सरकार ने जेल मैनुअल में बदलाव किया, लेकिन समस्या बनी रही. जेल ब्रेक नक्सल प्रभावित इलाके की कमजोरी दर्शाता है.

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बक्सर जेल ब्रेक 2020 - बेडशीट से फरारी
साल 2020 में बक्सर सेंट्रल जेल से 5 कैदी भागे थे, जिनमें 4 उम्र कैद की सजा काट रहे थे. उन्होंने मेडिकल वार्ड के टॉयलेट की खिड़की तोड़ी और बेडशीट को रस्सी बनाकर दीवार फांदी. भागने वालों में सोनू सिंह, सोनू पांडेय जैसे कैदी शामिल थे. घटना आधी रात को हुई थी. इस मामले में इंसाइडर मदद की आशंका जताई गई थी. इस मामले में DM और SP ने तुरंत एक्शन लिया था, पूरे इलाके को घेर लिया गया था. इसके बाद नीतीश सरकार ने जांच के आदेश दिए थे. फरार कैदी बलात्कार और हत्या के मामलों में सजा काट रहे थे. 

सबक और भविष्य की चुनौतियां
बिहार के जेल ब्रेक इतिहास से कई सबक मिलते हैं. नक्सलवाद कम हुआ, लेकिन बाहुबल और माफिया अभी सूबे में बाकी हैं. साल 2025 तक कोई बड़ा जेल ब्रेक नहीं हुआ, लेकिन जेलों में ओवरक्राउडिंग की समस्या बनी हुई. इस घटना के बाद नीतीश सरकार ने जेल मैनुअल बदला, रेमिशन बढ़ाया. भले ही ये घटनाएं राज्य की प्रगति में बाधा बनीं, लेकिन इनसे मजबूती भी आई. 

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