जब अगस्त 2021 में तालिबान ने अफगानिस्तान में सत्ता संभाली, तब 24 साल की नाहिद इकोनॉमिक्स की डिग्री लेने के लिए पढ़ाई कर रही थी. उनका सपना था कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वो किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ाएंगी. लेकिन नाहिद का ये सपना अब टूट गया है. वो अब अपनी सुबहें हेरात शहर की एक मस्जिद के बेसमेंट में बने मदरसे में बिताती हैं. वहां वो फर्श पर बैठकर करीब 50 अन्य महिलाओं और लड़कियों के साथ कुरान की आयतें याद करती हैं. सभी लड़कियां सिर से पांव तक काले कपड़ों में ढकी रहती हैं.
नाहिद जानती हैं कि तालिबान महिलाओं के विचार को बदलने की कोशिश कर रहा है, लेकिन वह कहती हैं, 'यह मेरे घर से बाहर निकलने और डिप्रेशन से लड़ने का एकमात्र तरीका है.'
मदरसे आने के लिए उन्हें हर महीने 1,000 अफगानी (1,280 रुपये) की आर्थिक मदद भी मिलती है, जो उनके लिए जरूरी है.
अफगानिस्तान में तालिबान के आने के साथ ही महिलाओं पर काफी पाबंदी लगाई है जिसमें लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा पर रोक शामिल है. तालिबान शासन में हर लड़की की कहानी लगभग नाहिद जैसी है. ब्रिटिश अखबार 'द गार्डियन' और जान टाइम्स की संयुक्त जांच में खुलासा हुआ है कि तालिबान सुनियोजित तरीके से लड़कियों और महिलाओं को स्कूलों से दूर कर उन्हें केवल और केवल इस्लाम की शिक्षा के लिए मजबूर कर रहा है और अब मदरसे ही उनका एकमात्र विकल्प है.
चार साल पहले तालिबान ने महिलाओं और लड़कियों को माध्यमिक और उच्च शिक्षा से बाहर कर दिया था. और अब पूरे देश में बड़े पैमाने पर मदरसों का नेटवर्क खड़ा कर दिया है.
रिपोर्ट्स के मुताबिक, पिछले साल के अंत तक अफगानिस्तान में 21,000 से ज्यादा मदरसे थे. सिर्फ सितंबर 2024 से फरवरी 2025 के बीच, तालिबान ने 11 प्रांतों में लगभग 50 नए मदरसे बनाए या उनकी नींव रखी.
ये मदरसे मस्जिदों या मौलवियों के घरों में होते हैं. इसके बदले तालिबान का शिक्षा मंत्रालय उन्हें सैलरी देता है. स्टाफ की कमी पूरी करने के लिए, मंत्रालय ने 21,300 पूर्व मदरसा छात्रों को टीचिंग सर्टिफिकेट जारी किए, जिनसे वे हाई स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी लेवल तक पढ़ा सकते हैं.
अफगानिस्तान के जो परिवार अपनी बेटियों को प्राइमरी के बाद आगे पढ़ाना चाहते हैं, लड़कियों के लिए माध्यमिक शिक्षा बंद होने के बाद से उनके पास कोई ऑप्शन नहीं बचा है. कई बार स्थानीय मौलवी बच्चों, खासकर बेटियों को धार्मिक स्कूल भेजने के लिए परिवारों पर दबाव डालते हैं और उन्हें आर्थिक मदद का लालच देते हैं.
निमरोज प्रांत की करीमा बताती हैं कि उन्होंने अपनी दो बेटियों को स्थानीय मौलवी के कहने पर स्कूल भेजना बंद कर दिया और मदरसे भेजने लगीं. वो कहती हैं, 'मौलवी ने कहा कि अगर मैंने अपनी बेटियों को उसकी क्लास में भेजा तो वो हमें खाने-पीने का सामान देगा. लेकिन आखिर में हमें कुछ नहीं मिला.'
एक और महिला नासरीन कहती हैं, 'मौलवी ने हमसे साफ कहा कि अगर अपनी बेटियों को मदरसे नहीं भेजोगी तो तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा.'
मौलवियों के प्रेशर की वजह से अफगानिस्तान की सामाजिक मान्यताएं बदल रही. जो परिवार मौलवियों या मदरसों का विरोध करते हैं, उन्हें समाज से अलग-थलग कर दिया है और कई बार उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ता है. लेकिन जो परिवार अपनी बेटियों को मदरसे भेजने को राजी हो जाते हैं, उनकी बेटियां घर लौटकर अपने माता-पिता को ही काफिर कहने लगती हैं.
यहां तक कि अफगानिस्तान में उन परिवारों को ही नौकरी दी जा रही है, जिनकी बेटियां मदरसों में जाती हैं.
मदरसों पर जोर से अफगानिस्तान में बचे-खुचे स्कूलों में बच्चों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है. निमरोज की एक शिक्षिका बताती हैं, 'पहले हर कक्षा में 40 छात्र होते थे और चार सेक्शन चलते थे. अब तीन सेक्शन हैं और हर सेक्शन में सिर्फ 20-25 छात्र हैं. इस साल मेरे 57 स्टूडेंट्स चले गए.'
वो बताती हैं कि कई छात्राएं सुबह मदरसे में जाती हैं और दोपहर को सामान्य स्कूल आती हैं. लेकिन धीरे-धीरे दबाव इतना बढ़ जाता है कि वे पूरी तरह से सामान्य शिक्षा छोड़ देती हैं.