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मेसी आए, कैमरे चमके… लेकिन भारतीय फुटबॉल 'ICU' में तड़पता रहा

लियोनेल मेसी का भारत दौरा भले ही ग्लैमर, पैसा और उत्सव लेकर आया हो, लेकिन उसने भारतीय फुटबॉल की खोखली सच्चाई को और उजागर कर दिया. जहां मेसी की यात्रा पर करीब 120 करोड़ रुपये खर्च हुए, वहीं देश की शीर्ष लीग ISL ठप पड़ी है और सैकड़ों फुटबॉलर बेरोजगार हैं. AIFF की बदइंतज़ामी, कॉरपोरेट और सरकारी उदासीनता तथा गिरती अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग ने भारतीय फुटबॉल को गहरे संकट में डाल दिया है.

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यह जश्न किस बात का?
यह जश्न किस बात का?

लियोनेल मेसी का भारत आगमन इस हफ्ते की सबसे बड़ी सुर्खी रहा. हर तरफ वही चर्चा- भीड़, कैमरे, VIP पास और ‘इतिहास रचने’ के दावे... लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस पूरे तमाशे ने मुझे जरा भी उत्साहित नहीं किया...

गलत मत समझिए. मैं वर्षों से इस कद में छोटे, लेकिन कद-काठी में महान अर्जेंटीनी का प्रशंसक रहा हूं. उन्हें नजदीक से देखने का मौका मिले, तो शायद मैं भी दौड़ पड़ूं... लेकिन मौजूदा हालात में, खुद को इससे अलग रखना ज्यादा ईमानदार लगा. क्योंकि सवाल सीधा है- जब इस देश में फुटबॉल खुद ICU में पड़ी हो, तब किसी फुटबॉलर का जश्न कैसे मनाया जाए?

अनुमान है कि मेसी को भारत लाने के लिए आयोजकों ने करीब 120 करोड़ रुपये खर्च किए. इस रकम में उनकी फीस, प्राइवेट जेट, सुरक्षा, मेहमाननवाजी और तमाम ऑपरेशनल खर्च शामिल बताए जाते हैं. इस निवेश की भरपाई का फॉर्मूला भी उतना ही अनुमानित था- कॉरपोरेट स्पॉन्सरशिप, सरकारी साझेदारियां, 10 हजार से 30 हजार रुपये तक के टिकट, कथित तौर पर 10 लाख रुपये प्रति व्यक्ति वाले निजी मीट-एंड-ग्रीट और टीवी राइट्स. पैसे, ताकत और ग्लैमर का ऐसा नशा, जिसने 72 घंटों की फुटबॉल रॉयल्टी को संभव बना दिया.

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अब जरा इस चकाचौंध की तुलना देश के घरेलू फुटबॉल की हकीकत से कीजिए- 

पिछला एक साल भारतीय फुटबॉल के इतिहास का शायद सबसे अंधकारमय दौर रहा है. देश की शीर्ष लीग- इंडियन सुपर लीग (ISL), ठहरे हुए पानी की तरह अटकी पड़ी है. इसके कमर्शियल राइट्स के लिए कोई खरीदार नहीं है, सीजन शुरू नहीं हो पा रहा और करीब 300 भारतीय फुटबॉलर्स बेरोजगार हो चुके हैं. हालात इतने खराब हो गए कि सुनील छेत्री और गुरप्रीत सिंह संधू जैसे दिग्गजों को सोशल मीडिया पर SOS संदेश डालने पड़े- मदद की गुहार लगाते हुए.

रिलायंस ने करीब एक दशक तक ISL को संभाला, लेकिन लगातार घाटे और ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (AIFF) के साथ असहनीय मतभेदों के बाद उसने हाथ खड़े कर दिए. नीचे की लीगों का हाल और भी बुरा है. भारत की दूसरी श्रेणी की पुरुष लीग, I-League, के संचालन के लिए इस साल एक भी बोली नहीं आई. यह सिर्फ AIFF की कुप्रबंधन और अक्षमता की कहानी नहीं है, बल्कि इससे भी ज्यादा असहज सच्चाई की ओर इशारा करता है- खेल के प्रति गहरी उदासीनता.

अब जरा हिसाब समझिए. ISL के एक पूरे सीजन को चलाने की लागत करीब 100 करोड़ रुपये बताई जाती है.. लेकिन AIFF फिलहाल किसी भी इच्छुक संस्था से न्यूनतम 37.5 करोड़ रुपये की गारंटी मांग रहा है.यानी भारत की शीर्ष फुटबॉल लीग के तीन पूरे सीजनों के मार्केटिंग और नियंत्रण अधिकार, लगभग उतनी ही कीमत में, जितनी मेसी की तीन दिन की भारत यात्रा पर खर्च हुई.

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फिर भी, कोई कॉरपोरेट अपने मार्केटिंग बजट से आगे नहीं आ रहा. कोई राज्य सरकार ‘पार्टनरशिप फीस’ देने को तैयार नहीं. कोई अमीर संरक्षक खेल को सहारा नहीं दे रहा. यहां तक कि घरेलू मैचों के लिए टिकट खरीदने वाली मजबूत मिडिल क्लास भी नदारद है. केंद्र सरकार भी लगभग हाथ खींच चुकी है. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, खेल मंत्रालय ने साफ कहा है कि वह ISL को फंड या संचालित करने में मदद नहीं कर सकता- यह जिम्मेदारी पूरी तरह स्टेकहोल्डर्स की है. यह सब उस देश में हो रहा है, जो 2030 कॉमनवेल्थ गेम्स की मेजबानी और 2036 ओलंपिक की दावेदारी का सपना देख रहा है.

अब बात राष्ट्रीय टीम की- भारतीय पुरुष टीम इस वक्त FIFA रैंकिंग में 142वें स्थान पर है-

पिछले एक दशक का सबसे खराब प्रदर्शन. हालिया हारें बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसी टीमों के खिलाफ आई हैं, जिन्हें कभी आसान प्रतिद्वंद्वी माना जाता था. कभी एशिया की बड़ी ताकत माने जाने से लेकर SAFF स्तर पर संघर्ष तक... भारतीय फुटबॉल की गिरावट तेज और दर्दनाक रही है. लगभग उतनी ही तेज, जितनी डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट.

एक और कड़वा सच- भारत अगले AFC एशियन कप के लिए क्वालिफाई तक नहीं कर पाया. FIFA वर्ल्ड कप की बात तो छोड़ ही दीजिए. भारतीय फुटबॉल अब एशिया की टॉप-24 टीमों में भी शामिल नहीं है...उस महाद्वीप में, जिसे खुद फुटबॉल की दुनिया का सबसे कमजोर हिस्सा माना जाता है. यह गिरावट इसलिए और चौंकाती है क्योंकि भारत इससे पहले एशियन कप के लगातार तीन संस्करणों में खेल चुका था.

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यह सब उस धारणा को और मजबूत करता है, जिस पर मैं लंबे समय से यकीन करता आया हूं- भारत में लोग खेल से नहीं, खेल सितारों से प्यार करते हैं.

भारतीय फुटबॉल को सुधारने की जिम्मेदारी लियोनेल मेसी की नहीं है. यह उम्मीद करना कि किसी सुपरस्टार की यात्रा से एक जर्जर व्यवस्था बदल जाएगी, भोलेपन के सिवा कुछ नहीं. लेकिन क्या भारतीय फुटबॉल के हित में कुछ किया नहीं जा सकता था? VIP लोगों के लिए बने इस एक्सक्लूसिव इवेंट की जगह, अगर मेसी आधा घंटा अंडर-17 टीम, अंडर-23 खिलाड़ियों या महिला सीनियर टीम के साथ बिताते- जिन्होंने हाल के वर्षों में उम्मीद जगाई है- तो शायद इस दौरे का मतलब कुछ और होता.

... क्योंकि जब तक चमक सितारों पर टिकी रहेगी और सिस्टम अंधेरे में सड़ता रहेगा, भारतीय फुटबॉल दूर से महानता की तालियां बजाता रहेगा और उसकी अपनी नींव चुपचाप ढहती रहेगी.

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