आंध्र प्रदेश का तिरुपति बालाजी मंदिर, जहां साल के 12 महीने भक्तों का तांता लगा रहता है. यह मंदिर तिरुमला पर्वत पर स्थित है. इस मंदिर की सुंदरता और भव्यता पूरे विश्व में मशहूर है. हर वर्ष करोड़ों श्रद्धालु यहां वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन करने आते हैं. भगवान वेंकटेश्वर को बालाजी या श्रीनिवास के नाम से भी जाना जाता है. ऐसी मान्यता है कि वेंकटेश्वर भगवान विष्णु के अवतार हैं, और इनके दर्शन करने मात्र से ही सभी पाप धुल जाते हैं, साथ ही व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है.
भगवान विष्णु ने धारण किया था वेंकटेश्वर अवतार
मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु ने एक समय स्वामी पुष्करणी नामक पवित्र सरोवर के तट पर निवास किया था. यह सरोवर तिरुमला पर्वत के समीप स्थित है. इसे अत्यंत पावन स्थल माना जाता है. कहते हैं कि यह वही स्थान है, जहां भगवान विष्णु ने मानव जाति के कल्याण के लिए वेंकटेश्वर अवतार धारण किया. तिरुपति के चारों ओर फैली पहाड़ियां अपने आप में अद्भुत हैं. ये पहाड़ियां शेषनाग के सात फनों का प्रतीक हैं. इन्हें सामूहिक रूप से ‘सप्तगिरि’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है ‘सात पवित्र पहाड़ियां’. इन सातों पहाड़ियों में से सातवीं पहाड़ी को ‘वेंकटाद्री’ कहा जाता है, और यहीं पर भगवान वेंकटेश्वर स्वामी का भव्य मंदिर स्थित है. यही कारण है कि इस मंदिर को “सप्तगिरि का मुकुट” भी कहा जाता है. किंवदंती है कि इन सात पहाड़ियों का संबंध भगवान विष्णु के शेषनाग स्वरूप से है, जो सृष्टि के संतुलन के रक्षक हैं.
संत रामानुजाचार्य को दिया था आशीर्वाद
एक अन्य प्रसिद्ध कथा के अनुसार, 11वीं शताब्दी में महान वैष्णव संत रामानुजाचार्य ने परम भक्ति और तपस्या के साथ सातवीं पहाड़ी ‘वेंकटाद्री’ की चढ़ाई की थी. जब वे शिखर पर पहुंचे, तो उनकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर भगवान का एक अन्य नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए. भगवान ने रामानुजाचार्य को दर्शन देकर कहा कि उनकी भक्ति और धर्म के प्रचार से आने वाली पीढ़ियां भी प्रेरित होंगी. भगवान श्रीनिवास ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि वे दीर्घायु हों और जब तक वे जीवित रहें, तब तक धर्म और भक्ति का प्रसार करते रहें. भगवान के इस आशीर्वाद के प्रभाव से संत रामानुजाचार्य 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे. उन्होंने अपने जीवन का प्रत्येक क्षण वेंकटेश्वर भगवान की महिमा, प्रेम और उपदेश को जन-जन तक पहुंचाने में समर्पित किया. उनकी शिक्षाओं और योगदान के कारण तिरुपति बालाजी मंदिर न केवल एक तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध हुआ, बल्कि यह भक्ति, समर्पण और दिव्य प्रेम का केंद्र बन गया.
तिरुपति बालाजी का इतिहास
तिरुपति बालाजी मंदिर का इतिहास अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली है. माना जाता है कि इस दिव्य मंदिर का इतिहास 9वीं शताब्दी से शुरू होता है, जब कांचीपुरम के पल्लव वंश ने इस क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था. उस काल में इस मंदिर का स्वरूप छोटा था, किंतु इसकी धार्मिक महत्ता उस समय भी अत्यधिक थी. बाद के वर्षों में यह मंदिर चोल और पांड्य राजवंशों के संरक्षण में भी फला-फूला. लेकिन सही मायनों में मंदिर की भव्यता और प्रसिद्धि 15वीं सदी के विजयनगर साम्राज्य के शासनकाल में बढ़नी शुरू हुई. विजयनगर के राजाओं, विशेष रूप से राजा श्रीकृष्णदेवराय ने मंदिर के निर्माण, जीर्णोद्धार और धार्मिक अनुष्ठानों में भरपूर योगदान दिया. उन्होंने मंदिर की संपत्ति, स्वर्ण कलश, रत्नों से जड़े आभूषण और धार्मिक दान देकर इस पवित्र स्थल को और भव्य बनाया.
हालांकि, इसके बावजूद 15वीं सदी के आरंभ तक मंदिर की ख्याति सीमित थी, जो मुख्य रूप से दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों तक ही फैली हुई थी. जैसे-जैसे विजयनगर साम्राज्य का प्रभाव बढ़ा, वैसे-वैसे तिरुपति बालाजी मंदिर की कीर्ति भी दूर-दूर तक फैलने लगी. धीरे-धीरे यह मंदिर संपूर्ण भारत के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक बन गया.
आधुनिक प्रशासनिक संरचना
सन 1933 में मद्रास सरकार ने मंदिर के प्रबंधन को अपने नियंत्रण में ले लिया. इसके बाद मंदिर के संचालन के लिए एक स्वतंत्र संस्था, “तिरुमाला-तिरुपति देवस्थानम”, का गठन किया गया. इस समिति को मंदिर की पूजा व्यवस्था, दान प्रबंधन, निर्माण कार्य और श्रद्धालुओं की सुविधाओं की संपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई.1953 में आंध्र प्रदेश राज्य का गठन हुआ, तब इस समिति का पुनर्गठन किया गया.