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धरती से ऊपर, आकाश के नीचे या बादलों के बीच... पितृ कहां रहते हैं, उन्हें कैसे मिलता है श्राद्ध-तर्पण का फल

भारतीय दर्शन और पुराणों के अनुसार, पितरों का निवास स्थान भुवर्लोक है, जो आकाश और पृथ्वी के बीच सूक्ष्म प्राणियों का लोक माना जाता है. पितरों का स्थान उनके कर्मों पर निर्भर करता है, जो उन्हें विभिन्न लोकों में पुनर्जन्म या स्थान दिलाता है.

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पितरों का निवास स्थान को लेकर शास्त्रों में स्पष्ट तरीके से वर्णन किया गया है
पितरों का निवास स्थान को लेकर शास्त्रों में स्पष्ट तरीके से वर्णन किया गया है

भारतीय दर्शन और पुराणों में पितरों का स्थान बहुत खास बताया गया है. कहा जाता है कि हमारे कर्म ही यह तय करते हैं कि मृत्यु के बाद आत्मा किस लोक में जाएगी और किस रूप में पुनर्जन्म लेगी. पृथ्वी लोक, जिसे कर्मलोक, भूलोक या मृत्यु लोक भी कहा जाता है, वह स्थान है जहां मानव अपने जीवन के कर्म करता है और उन्हीं के आधार पर आगे की यात्रा तय होती है.

सूक्ष्म प्राणियों का लोक
पुराणों के अनुसार, पितरों का निवास स्थान आकाश और पृथ्वी के बीच भुवर्लोक में माना गया है. इसे सूक्ष्म प्राणियों का लोक कहा जाता है. हालांकि पितर केवल भुवर्लोक तक सीमित नहीं रहते. अगर उनके जन्म और मृत्यु का चक्र पूरा हो चुका है और उन्होंने अच्छे कर्म किए हैं तो उन्हें उनके कर्म, अध्यात्म और ज्ञान के आधार पर अन्य लोकों में भी स्थान मिल सकता है. 

कर्म के द्वारा तय होता है पितृ का स्थान
सनातन परंपरा और ज्योतिष पर जानकारी रखने वाले आचार्य हिमांशु उपमन्यु इस बारे में विस्तार से बताते हैं. उनका कहना है कि शास्त्रों में पितरों का निवास स्थान उनके कर्म के द्वारा हमारे लोक भूलोक में ही निर्धारित होता है. पृथ्वी लोक, जिसे कर्मलोक, भूलोक या मृत्युलोक के नाम से भी जाना जाता है. पुराणों के आधार पर यहाँ किए गए कर्म ही व्यक्ति के लोक का निर्धारण करते हैं. आपके कर्म और आपके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र (बेटी का बेटा) जिनके संस्कार और कर्मवान, निष्ठावान होने के लिए आप सीधे या अपने प्रभाव के ज़रिए उत्तरदायी हैं.

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वैसे पितरों का निवास स्थान आकाश और पृथ्वी लोक के मध्य भुवर्लोक में बताया जाता है, जिसे सूक्ष्म प्राणियों का निवास स्थान कहते हैं. पर पितर सिर्फ वहीं रहने के लिए बाध्य नहीं हैं. अगर उनके जन्म-मरण का चक्र पूरा हो चुका है तो उन्हें उनके कर्मों के आधार पर भूलोक में मनुष्य या किसी दूसरी योनि में दोबारा भेजा जा सकता है या भुवर्लोक, स्वर्लोक, महोर्लोक, जनोलोक, तपोलोक या सत्यलोक आदि में कहीं भी स्थान मिल सकता है. यह व्यवस्था व्यक्ति के अध्यात्म, ज्ञान और भोग पर निर्भर करती है.

क्या है पितृलोक?
इसे ऐसे समझ सकते हैं—बिना सपिंडी श्राद्ध के, पितरों में संलित हुए बिना, जो असंतुष्ट आत्माएं हैं, वे यही मृत्युलोक में भटकती रहती हैं और जिनका जन्म चक्र पूरा हो चुका हो तथा जिनका विधिवत सपिंडीकरण कर दिया गया हो, उन्हें सूक्ष्म शरीर मिल जाता है और उसी के ज़रिए उन्हें सूक्ष्म जगत में प्रवेश मिल जाता है. इसे हम भुवर्लोक या पितृलोक भी कहते हैं, जो धुएं जैसे आकाश, जल, अग्नि और वायु तत्व से निर्मित है.

यहीं पितर आपके द्वारा समर्पित श्राद्ध के अन्न तत्व को छोड़ शेष सब पाते हैं. यही पितरों के रहने का निवास स्थान होता है. यहीं से सूक्ष्म शरीरों की यात्रा का आरम्भ होता है. उनके कर्म के अनुसार उन्हें स्वर्ग या मृत्युलोक में स्थान दिया जाता है. मृत्युलोक पर आत्मा अपने पापों का भोग करती है और हम जो श्राद्ध में अन्न के रूप में समर्पित करते हैं, वह उन्हें यहाँ अन्न के रूप में प्राप्त होता है. वहीं स्वर्गलोक में उसे उसके अच्छे कर्मों का फल सुख-भोगने के लिए मिलता है और वह पितर वहाँ देवताओं का स्थान पाते हैं.

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पितरों को किस रूप में मिलती है श्राद्ध की सामग्री?
वहां चाहे तो वे भोग-विलासिता पा सकते हैं, जो अग्नि, वायु और आकाश रूपी अमृत तत्व का स्थान है. यहां के पितरों को हमारी श्राद्ध सामग्री अमृत के रूप में मिलती है. पितर या आत्मा चाहे तो यहाँ भोग न भोग कर अपने तप और कर्म करते हुए, ईश्वर पर निष्ठा रखते हुए आगे के लोकों की यात्रा पर चल सकते हैं.

इसके बाद क्रमशः महोर्लोक आता है, जहां वायु और आकाश तत्व के आधार पर व्यवस्था संचालित होती है और यहीं रहने वाले पितरों के आहार का साधन है. अगला स्थान जनोलोक है, जहां अधिक त्यागी और कर्मवान तेजस्वी पितर रूपी सूक्ष्म शरीर रहते हैं, जो हमारे द्वारा किए गए श्राद्ध की सामग्री को वायु के द्वारा पाकर अपनी तृप्ति करते हैं.

इसके ऊपर के लोक में जो पितर पहुंचते हैं, उन्हें किसी भी विषय-वस्तु की जरूरत नहीं होती. यहां पहुंचने वाले पितरों का मृत्युलोक से संबंध समाप्त हो जाता है. वे यहां अपने तप और चेतना के सहारे पहुंचते हैं. इस स्थान को तपोलोक कहा जाता है. जो पितर या आत्माएं इस सम्पूर्ण यात्रा को पूरा कर लेती हैं, वे सत्यलोक में पहुंचती हैं. यही आत्मा के परमात्मा में मिलने का स्थान है, जहां किसी भी जीव को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है. इसे ही ब्रह्मलोक कहते हैं.

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तप ही है कठिन यात्रा
जब आप किसी कथा-कहानी में सुनते हैं कि किसी ऋषि ने इतने जन्मों की कठिन तपस्या की और ईश्वर को पाया तथा उन्हीं में समाहित हो गए, तो उस कथा का अर्थ यही कठिन यात्रा है, जो कोई भी सूक्ष्म शरीर ईश्वर में मिलने से पहले करता है.

भारतीय परंपरा यह मानती है कि हमारे पूर्वज केवल स्मरण करने भर के लिए नहीं हैं, बल्कि उनका जीवन और उनके कर्म हमारी आने वाली पीढ़ियों को दिशा देते हैं. यही कारण है कि पितरों की पूजा, श्राद्ध और तर्पण की परंपरा सदियों से चली आ रही है और आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.

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