कुछ ही साल पहले की बात है, ब्रिटेन में रहने वाले पाकिस्तानी प्रवासी की बेटी शबाना महमूद 'फ्री फिलिस्तीन' के पोस्टर लेकर एंटी-इजरायल रैलियों में शामिल होती थीं. वो गाजा में इजरायल की सैन्य कार्रवाई की मुखर आलोचक थीं. एक दशक पहले युवा एक्टिविस्ट के रूप में उन्होंने इजरायली सामानों के बहिष्कार के लिए कैंपेन भी चलाया था. इस दौरान उन्होंने बर्मिंघम के एक सुपरमार्केट को इसलिए कई घंटों तक बंद करा दिया था क्योंकि वहां इजरायली प्रोडक्ट्स बिक रहे थे.
लेकिन आज शबाना महमूद एक बिल्कुल अलग महिला हैं. वो अब ब्रिटेन की सत्ताधारी सेंटर-लेफ्ट लेबर पार्टी की होम सेक्रेटरी (भारत में गृहमंत्री के समकक्ष) हैं. उन्होंने 17 नवंबर को संसद में सरकार की नई कड़ी शरण पॉलिसी का जोरदार बचाव किया. इस पॉलिसी में शरणार्थियों के दर्जे को अस्थायी कर दिया गया है, अपील प्रक्रिया सीमित हो गई है और सरकारी फंडिंग खत्म कर दी गई है. यह पॉलिसी उन देशों पर वीजा प्रतिबंध लगाने की धमकी देती है जो अपने नागरिकों को वापस नहीं लेते.
महमूद के इस प्लान की आलोचना उनकी ही पार्टी के नेताओं ने की. इसे डिस्टोपियन, शर्मनाक और नैतिक रूप से गलत बताया. वहीं, दक्षिणपंथी नेताओं और एक्टिविस्टों ने उनकी खुलकर तारीफ की जो कि ब्रिटेन की पहली मुस्लिम होम सेक्रेटरी के लिए असामान्य है. कुछ दक्षिणपंथी नेताओं ने उन्हें साहसी, मजबूत और यहां तक कि ‘ब्लू’ (कंजर्वेटिव पार्टी का रंग) भी कहा.
कंजर्वेटिव पार्टी की नेता केमी बेडेनोक ने कहा कि यह कदम महमूद का शुरुआती कदम है जो कि काफी सकारात्मक है.
दक्षिणपंथी पार्टियों के दबाव में उठाया कदम?
फार-राइट रिफॉर्म यूके के नेता निगेल फराज भी महमूद के भाषण से प्रभावित हुए. उन्होंने मजाक में कहा कि शायद महमूद उनकी पार्टी में शामिल होने की ‘ऑडिशन’ दे रही हैं. ये वही फराज है जिनकी एंटी-इमिग्रेंट पॉलिटिक्स ने उन्हें इस साल की एक पोल में ब्रिटेन का सबसे लोकप्रिय नेता बना दिया.
उनकी पार्टी आज ओपिनियन पोल में आगे है और 2029 के चुनाव में अगर जीत मिली तो वो प्रधानमंत्री बन सकते हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इसी दबाव ने लेबर सरकार को आधुनिक इतिहास की सबसे कठोर इमिग्रेशन पॉलिसी अपनाने पर मजबूर किया है.
डेनमार्क की राह पर ब्रिटेन
ब्रिटिश सरकार की नई योजनाएं 2019 में डेनमार्क में लागू की गई नीतियों जैसी है. इन नीतियों के तहत शरणार्थी 20 साल तक ब्रिटेन में रहने के बाद ही स्थायी तौर पर बस सकते हैं. हर कुछ समय पर उनका मूल्यांकन होगा और अगर उनके देश ‘सुरक्षित’ माने गए तो उन्हें वापस भेजा जा सकता है. वर्तमान में यह अवधि पांच साल है.
मौजूदा शरण के सिस्टम में कई बार अपील करने की इजाजत है जिसे महमूद खत्म करना चाहती हैं. वो मानवाधिकार कानूनों में बदलाव कर परिवारिक जीवन या अमानवीय व्यवहार के आधार पर शरण के दावे कमजोर करना चाहती हैं. सरकार एआई का इस्तेमाल कर शरण की मांग करने वालों की उम्र वेरिफाई करेगी, खासकर उन लोगों की जो खुद को नाबालिग बताते हैं. वो भारत के आधार कार्ड की तरह ही डिजिटल आईडी कार्ड भी लागू करना चाहती हैं ताकि नकली दस्तावेजों के इस्तेमाल पर रोक लगे.
ब्रिटिश होम सेक्रेटरी एक कानूनी प्रावधान भी हटाने जा रही हैं, जिसके तहत शरणार्थियों को टैक्सपेयर्स से आर्थिक सहायता मिलती थी. जिन लोगों के पास संपत्ति है, उन्हें अब अपने रहने का खर्च भी उठाना होगा. यह डेनमार्क के मॉडल से मेल खाता है, जहां जरूरत पड़ने पर अधिकारियों को शरणार्थियों की संपत्ति तक जब्त करने का अधिकार है.
ब्रिटेन में प्रवासियों का मुद्दा गहराया
ब्रिटेन में प्रवासन का मुद्दा दशकों पुराना है, लेकिन हाल के सालों में फ्रांस से इंग्लिश चैनल पार करके छोटे नावों में आने वाले प्रवासियों ने राजनीति में हड़कंप मचा रखा है. इस साल की पहली छमाही में 43,000 लोग ऐसे खतरनाक रास्ते से आए जो कि पिछले साल की तुलना में 38% ज्यादा है. इनमें ज्यादातर प्रवासी अफगानिस्तान, ईरान, इरीट्रिया, सूडान और सीरिया से आए.
पिछले साल ब्रिटेन में रिकॉर्ड 1,10,000 शरण के आवेदन आए, जो पिछले साल से 18% ज्यादा है. महमूद ने बताया कि ब्रिटेन में जहां शरण के आवेदन बढ़ रहे हैं वहीं, यूरोप के बाकी देशों में आवेदन 13% घटे हैं. वर्तमान में 32,000 से ज्यादा प्रवासी ब्रिटेन के होटलों में रह रहे हैं, जिससे राजनीतिक नाराजगी और हिंसक प्रदर्शन बढ़े हैं.
ब्रिटेन में प्रवासन की समस्या सिर्फ नावों के जरिए आने वाले प्रवासी संकट तक सीमित नहीं है. ब्रिटेन की आबादी लगभग 7 करोड़ के करीब है जो कि पिछले 25 सालों में 15% की ऐतिहासिक बढ़ोतरी दिखाती है. आबादी में यह बढ़ोतरी मुख्यतः प्रवासियों के कारण है. जनसंख्या के मामले में अब ब्रिटेन ने फ्रांस को पीछे छोड़ दिया है. बढ़ती जनसंख्या ने आवास, स्वास्थ्य और अन्य जरूरी सेवाओं पर भारी दबाव डाला है.
ब्रिटेन की जनसंख्या में काफी हद तक यह बढ़त उन प्रवासियों की वजह से हुई है जो पूर्वी यूरोप से यूरोपीय संघ के विस्तार के बाद कानूनी तौर पर ब्रिटेन आए. इसी वजह से ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ से अलग होने यानी ब्रेक्जिट का फैसला लिया. हाल के सालों में ब्रिटेन की सरकारों ने अफगानिस्तान, हॉन्गकॉन्ग और यूक्रेन से लोगों को प्रवेश देने वाली सरकारी नीतियां भी बनाई जिस कारण प्रवासियों की संख्या बढ़ी. ब्रेक्जिट से प्रवासन नहीं रुका बल्कि आंकड़े साफ दिखाते हैं कि ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन में और ज्यादा विदेशी आए.
भारतीयों पर इसका क्या असर होगा?
बहुत कम भारतीय छोटे नाव वाले रूट से ब्रिटेन पहुंचे हैं. ज्यादातर भारतीय छात्र या वर्क वीजा पर ही ब्रिटेन पहुंचते हैं. ब्रिटेन में शरण पाने में सफल भारतीयों की संख्या लगभग एक प्रतिशत है, जबकि पाकिस्तानियों के लिए यह आंकड़ा दस गुना ज्यादा है. ब्रिटेन की स्वास्थ्य सेवा भारतीय डॉक्टरों और नर्सों पर लगभग निर्भर है. हाई-स्किल्ड वीजा की सूची में भी भारतीय सबसे ऊपर हैं.
जैसे-जैसे प्रवासियों की संख्या बढ़ रही है और उसका असर जरूरी सेवाओं पर हो रहा है, सरकार अब कानूनी प्रवासियों पर भी सख्ती कर रही है. सत्ताधारी लेबर पार्टी समेत मुख्यधारा की पार्टियां दक्षिणपंथी रिफॉर्म यूके पार्टी के जैसी नीतियां अपना रही हैं.
महमूद स्थायी निवास (Indefinite Leave to Remain, ILR) के लिए आवेदन की अवधि पांच साल से बढ़ाकर 10 साल करना चाहती हैं. रिफॉर्म यूके पार्टी तो ILR ही खत्म करना चाहती है, ताकि इसके न होने की स्थिति में सरकारी सेवाओं तक प्रवासियों की पहुंच खत्म हो जाए.
ब्रिटेन में 430,000 गैर-यूरोपीय प्रवासी हैं जिनमें भारतीय सबसे ज्यादा हैं. ब्रिटेन में रह रहे भारतीय अपनी नागरिकता नहीं छोड़ना चाहते. लेकिन अगर भविष्य में ILR या सरकारी सेवाएं खत्म हुईं, तो सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं भारतीयों को होगा. इसी वजह से कई भारतीय अब मजबूर होकर ब्रिटिश पासपोर्ट लेने पर विचार कर रहे हैं.
कानूनी वर्क वीजा पर आए भारतीय प्रोफेशनल्स को अब स्थायी निवास के लिए 5 साल और इंतजार करना होगा. ब्रिटेन में नौकरी और स्थायी भविष्य की उम्मीद रखने वाले भारतीय छात्रों के लिए भी राह मुश्किल होती जा रही है.
बढ़ता नस्लवाद
ब्रिटेन में बढ़ते प्रवासन ने दक्षिण एशियाई लोगों के खिलाफ नस्लवाद को भी बढ़ाया है जिससे भारतीय प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हो रहे हैं. पिछले महीने, एक भारतीय मूल की महिला का रेप किया गया. पुलिस ने बताया यह नस्लवाद से प्रेरित था.
इससे पहले एक सिख महिला के प्रति यौन हिंसा से भी प्रवासियों में भारी गुस्सा देखा गया जिसके बाद ब्रिटेन में नस्लीय अपराधों पर नकेल कसने के लिए कदम उठाने की मांग हुई. गांधी जयंती से कुछ दिन पहले लंदन में गांधी की प्रतिमा को नुकसान पहुंचाया गया. इसे भी नफरती अपराध माना गया.
महमूद ने खुद संसद में बताया कि उन्हें भी अक्सर नस्लवादी गालियां दी गईं. उन्होंने कहा कि उन्हें गाली दी गई कहा गया 'पाकिस्तानी, अपने देश लौट जाओ.' वह कहती हैं कि शरणार्थी संकट ब्रिटेन को बांट रहा है. जो दक्षिणपंथी आज उनकी तारीफ कर रहे हैं, वही आगे मौका मिलते ही उन पर हमला करेंगे.
क्या महमूद सफल होंगी?
यह कहना मुश्किल है कि महमूद अपनी पॉलिसी को लागू करा पाएंगी या नहीं. उनकी ही पार्टी के 20 सांसद इसका विरोध कर रहे हैं. सरकार को कंजर्वेटिव्स की मदद लेनी पड़ सकती है.
डेनमार्क में 2019 की 'जीरो असाइलम सीकर्स' नीति विवादास्पद होने के बावजूद कारगर साबित हुई. अवैध प्रवासी कम हुए और वहां की प्रधानमंत्री मेटे फ्रेडरिक्सन की लोकप्रियता भी बढ़ी. 2022 के चुनाव में उनकी पार्टी को फायदा हुआ और राइट-विंग डेनिश पीपल्स पार्टी का ग्राफ गिर गया.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर और महमूद भी उम्मीद कर रहे हैं कि यह कड़ा रुख उन्हें राजनीतिक तौर पर फायदा देगा और रिफॉर्म यूके पार्टी की तरफ से मिल रही चुनौती से निपटने में मदद करेगा. लेकिन यह भी एक बड़ा दांव है क्योंकि इन नीतियों से समाज में और विभाजन पैदा होने की आशंका है.
शरणार्थियों को सालों तक अनिश्चितता में छोड़ना सामाजिक सौहार्द नहीं बढ़ाएगा. महमूद से दक्षिणपंथी समूह फिलहाल तो खुश है लेकिन ये ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा, वो और कड़ी कार्रवाई की मांग करेंगे. कानूनी प्रवासी भी जल्द ही उनके निशाने पर आ सकते हैं. एक बात तय है- ब्रिटेन में प्रवासन पर बहस जल्द खत्म नहीं होने वाली.

