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'कोई भी भाषा मरती नहीं है ...' साहित्य आजतक 2024 में बोले क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्यकार

Sahitya AajTak 2024: किताब, भाषा, साहित्य, कला, फिल्म, संगीत से सराबोर साहित्य आजतक 2024 के तीसरे और अंतिम दिन रविवार को भी कई सारे मनोरंजक और बौद्धिक सत्रों का आयोजन हुआ. इसमें से एक सत्र भाषाई साहित्य के लिए भी था. इसमें भारत के अलग-अलग हिस्सों की भाषाओं के साहित्य और उसके भूत और भविष्य पर भी बातें हुई.

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भाषाई साहित्य कल और आज- साहित्य आजतक
भाषाई साहित्य कल और आज- साहित्य आजतक

Sahitya AajTak: राजधानी दिल्ली स्थित मेजर ध्यानचंद स्टेडियम में चल रहे साहित्य आजतक के तीन मंचों पर पिछले दो दिनों से अलग-अलग सत्रों में साहित्य, कला, फिल्म, संगीत से जुड़े कार्यक्रम हो रहे हैं. इनमें एक से बढ़कर एक धुरंधर शिकरत कर चुके हैं. ऐसा ही एक कार्यक्रम भारत के क्षेत्रीय भाषा साहित्य पर भी हुआ. इसमें हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के कवि, लेखक और आलचकों ने हिस्सा लिया और इसके भविष्य पर चर्चा की. इस सत्र का नाम था 'भाषायी साहित्य.. कल, आज और कल'. 

क्षेत्रीय भाषा के साहित्यकारों का जब साहित्य आजतक के मंच पर जमावड़ा हुआ तो इसके भविष्य से लेकर कई सारी बातें हुई. कुछ ने इसके भविष्य पर चिंता जताई, तो कुछ ने चुनौतियों से लड़ने में सक्षम बताया. जानतें हैं 'भाषायी साहित्य.. कल, आज और कल' के इस सत्र में किसने क्या कहा. 

 परिचर्चा की शुरुआत असमी कवियत्री और कलाकार  मैयत्री पातर ने की. उन्होंने कहा कि  मैं कविताएं असमी में ही लिखती हूं. इसलिए मेरी कविताएं हिंदी में अनुवादित होती है. मैं यहां अपनी एक कविता के साथ अपने शब्दों को रखूंगी. उन्होंने बताया कि मेरी ये कविता हिंदी में अनुवादित है. चूंकि मौसम जाड़े का है,  इसलिए आज मैं सर्दी के मौसम से जुड़ी एक कविता से शुरुआत करुंगी. 

समय के दूसरे छोर से वह खबर भेजता है..
अबके वहां सरसों खिल रहा है.
समय के दूसरे छोर पर उसका घर है...  सरसों के बीच फैज के गीतों के बीज बोए थे.

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 मैयत्री पातर

अपनी ही भाषा नहीं बोल रहे लोग..
रीजनल भाषाओं के भविष्य और उसकी चुनौतियों पर बोलते हुए आगे मैत्रयी ने कहा कि  मैं असम से हूं और असमी में ही लिखती हूं. लेकिन विडंबना ऐसी कि मैं जिस ट्राइब से आती हूं उसकी मूल भाषा अब हमारे लोग नहीं बोलते हैं. मैं चौथी पीढ़ी हूं जो अपनी मूल भाषा नहीं बोलती हूं. असमिया में मेरे ट्राइब की भाषा के कई शब्द मिलते हैं, लेकिन वह असमी से अलग है.

'भाषाएं मरा नहीं करतीं'
उन्होंने बतााय कि जब मुझे पता चला कि हमारी एक अलग भाषा भी है, जो किसी जगह पर बोली जाती है, तो मैं वहां गई. वहां जाकर ट्यूशन लिया और मैंने अपनी मातृभाषा सीखी. इसलिए मेरा मानना है कि किसी भाषा में बहुत ज्यादा नहीं लिखने पर भी वो मरती नहीं है. क्योंकि जब तक हम उस भाषा में बातचीत कर रहे हैं, वो जिंदा रहती है.

क्षेत्रीय साहित्य को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी हैं अच्छे अनुवादक
दूसरे स्पीकर गुजराती कवि मेहुल देवकला ने अपनी बात रखते हुए कहा कि   रीजनल भाषाओं के साहित्य को अन्य भाषा भाषियों तक पहुंचाने के लिए अच्छे अनुवादकों की जरूरत है. अभी रीजनल लैंग्वेज की कविता कहानियों का अनुवाद काफी होने लगा है. इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और अंग्रेजी में हमारी रचना अनुवादित होकर पहुंच रही है. वैसे भी जो पढ़ना चाहता है, उस तक रीजनल साहित्य पहुंच ही जाता है.

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सोशल मीडिया से आई क्रांति
सोशल मीडिया के जमाने में यंग पोएट अपनी रचनाओं को यहां रखता है लोगों तक वो आसानी से पहुंच जाती है. इसलिए आज के जमाने में रीजनल भाषा में लिखना और लोगों तक उसे पहुंचाना आसान हो गया है. मैं एक गुजराती कविता पेश करता हूं. एक बार मैं एक रेस्टोरेंट में पिताजी के साथ बैठा था, वहां विंडो साइड पर गोल-गोल सफेद पत्थर रखे थे. उन्हें देखकर ही मैंने एक कविता लिखी थी जो इस प्रकार है- 

चिकने दुधिया गोल आकार के आदिम पत्थर 
वातानुकूलित इस रेस्टोरेंट की चिकनी चौखट पर
लंबा सफर तयकर आएं होंगे...
पिता जी बोले मही नदी में खेला करते थे ऐसे पत्थरों से ...
इन्हीं पत्थरों से आदि मानवों ने गुफाओं में जलाई होगी अग्नि...

रीजनल लैंग्वेज के समक्ष हैं कई चुनौतियां
जहां तक रीजनल भाषा के साहित्य के भविष्य का सवाल है तो देखिए लोग सपना जो है अपनी मातृभाषा में ही देखता है. इसलिए भाषा कभी मरेगी तो नहीं, लेकिन सभी रीजनल लैंग्वेज के लिए ये चुनौती रहेगी कि क्या नई पीढ़ी इसमें लिखेगी या पढ़ेगी. 

AI है आने वाले समय का नया लैंग्वेज
बांग्ला कवि और निबंधकार प्रबाल कुमार बासु ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमारा साहित्य हमारे समाज से आता है. इसकी शुरुआत मौखिक साहित्य से हुई. तब लिखित साहित्य आया. इसके बाद इसकी संभावना बहुत बढ़ गई. क्योंकि लिखित साहित्य में शब्दों के कई अर्थ सामने आते हैं.

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अब हम भविष्य की भाषा की बात करें तो अब एक नया लैंग्वेज आ गया है. इसका नाम है कंप्यूटर लैंग्वेज. इसमें भी अब AI आ गया है. एआई को बोला गया कि आप पांच कवियों के स्टाइल में कविता लिखो- इमें शेक्सपीयर, इलियट, वर्ड्सवर्थ थे. इसके बाद जब एआई ने इन कवियों की शैली में कविता लिखी और विशेषज्ञों ने इसकी समीक्षा की, तो पता चला कि ये कविताएं ओरिजनल कवियों की लिखी कविताओं से भी बेहतर है.

 प्रबाल कुमार बासु ने कहा कि इसलिए कल के साहित्य में ऐसी टेक्नोलॉजी आ जाने के बाद शब्दों का व्यवहार क्या होगा किसी को पता नहीं है. सिर्फ इतना समझ में आता है कि कुछ नया इवोल्व हो रहा है. ये भी हो सकता है कि सारी संस्कृतियां एक हो जाएंगी और भाषा भी एक ही हो जाएगी.

The house next door...
Everythings happens till date..
 happens at the house next door.

'दूसरी भाषाओं के दखलअंदाजी से मूल भाषा कभी नष्ट नहीं होती'
 प्रबाल कुमार बासु ने ने कहा कि हमलोगों ने काफी शब्द अपनी मातृभाषा में दूसरी विदेशी भाषाओं से लिया है. इस वजह से आगे चलकर अंग्रेजी और हिंदी के भी शब्द रीजनल लैंग्वेज के अपने हो जाएंगे. आज हम टेबल, कुर्सी जैसे शब्द जो इस्तेमाल करते हैं, ये सब विदेशी भाषा के शब्द हैं. एक बात और भाषा के शब्दों के साथ संस्कृति भी आती है. इससे हमारी मूल भाषा नष्ट नहीं होती, बल्कि इसके इनरिच होने की संभावना बढ़ती है. 

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कुछ चीजें सिर्फ अपनी भाषा में ही संभव
वहीं ओड़िया कवि और आलोचक दुर्गा प्रसाद पांडा ने अपनी बातों को रखते हुए कहा कि   कविता या कुछ भी रचनात्मक लिखने में ऐसा होता है कि कुछ चीजें जो आप अपनी मातृभाषा में लिख सकते हैं. वो किसी दूसरी भाषा में लिखना संभव नहीं है. ये मैं अपने अनुभव से बोल रहा हूं. क्योंकि जब मैंने कोई कविता ओड़िया में लिखी और फिर उसे अंग्रेजी में ट्रांसलेट करने की कोशिश की, तो वो उतनी अच्छी नहीं लगी. 

दूसरी भाषा में खत्म हो जाती है माटी की महक:  दुर्गा प्रसाद पांडा
दुर्गा प्रसाद पांडा ने कहा कि दरअसल, दूसरी भाषा में अनुवादित होने पर रचनाओं की माटी की महक चली जाती है. अंग्रेजी को तो मैं कहता हूं ये व्यापारियों की भाषा है. फिर भी मैं ओड़िया के साथ-साथ अंग्रेजी में भी लिखता हूं. मैं खुद बाइलिंगुअल हुआ. एक कहावत है ओड़िया में - अगर आप दो घर के अतिथि बनेंगे तो भूखे रह जाएंगे. इसलिए भाषा के प्रति वफादारी संदिग्ध हो जाती है. स्थिति ऐसी हो जाती है कि न ओड़िया वाले बोलते हैं कि मैं उनकी भाषा का कवि हूं, न अंग्रेजी वाले मानते हैं. 

इतनी आसानी से मरती नहीं एक स्त्री

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जीतना भी चाहे  इतनी आसानी से मरती नहीं एक स्त्री...
किसी निर्जन इलाके के पुरातन कुएं में से धीरे-धीरे सूख जाता पानी जैसे.
अपने भीतर ऐसे ही शुष्क हो जाती है स्त्री...

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