देश की राजधानी दिल्ली के मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम में 21 से 23 नवंबर 2025 तक चल रहे 'साहित्य आजतक 2025' के पहले दिन भाषा, साहित्य, विचार और कला को लेकर कई महत्वपूर्ण सत्र हुए. इन्हीं में से एक था दस्तक दरबार मंच पर चलने वाला विशेष सेशन- भारत में भाषा के सवाल'. इस संवाद में प्रतिष्ठित शिक्षाविद् प्रो. कुमुद शर्मा, द्विभाषी कवि मनु दाश और नेशनल फिल्म अवॉर्ड से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक अनंत विजय शामिल हुए.
वक्ताओं ने भारत की भाषाई विविधता, भाषा राजनीति, नई पीढ़ी की भाषा चुनौतियों, अभिव्यक्ति की भूमिका और बदलते सांस्कृतिक परिदृश्य पर अपने विचार रखे. विचारों, अनुभवों और दृष्टिकोणों से भरपूर यह सत्र दिन के गंभीर व सार्थक विमर्शों में से एक रहा.
प्रोफेसर कुमुद शर्मा ने कहा कि भाषा का सवाल बेहद महत्वपूर्ण सवाल है. भाषा की संरचना के साथ ही सामाजिक व सांस्कृतिक स्रोत है. जिन ढांचों में हम खुद को पहचानते हैं, उनमें भाषा भी है, संस्कृति भी है. भाषा अगर खत्म हो गई तो कोई अस्तित्व नहीं रहेगा. भाषा और बोलियों को लेकर कई तरह की सोच है. भारत तमाम भाषाओं वाला देश है. हर भाषा का सांस्कृतिक बोध एक ही है.

कुमुद शर्मा ने कहा कि महाराष्ट्र के बहुत से युवा हिंदी में पढ़ने आते हैं, वहां कोई समस्या नहीं है. विरोध सामान्य जनता में नहीं है. विरोध के दूसरे कारण हैं. हिंदी के विरोध के कारण राजनीति के निहितार्थ हैं. सभी को राष्ट्रीय भाषा कहिए. हम सबका सम्मान करते हैं. भारत के बाहर की जब बात होगी तो हमें एक ही भाषा चाहिए. उन्होंने कहा कि देश की 24 भाषाओं में हम नमस्कार करना क्यों नहीं सीख सकते.
उन्होंने कहा कि हम दक्षिण भारत की भाषाओं को उत्तर भारत के लोग क्यों नहीं पढ़ सकते, क्यों हमने शुरुआत नहीं की. हिंदी भाषा के प्रति हम उतना प्रभाव क्यों नहीं पैदा कर पा रहे हैं. मैं तो कहूंगी कि हमारी हिंदी बहुत उदार भाषा है. अंग्रेजी का मोह सिर पर चढ़कर बोलता है. भाषा हमेशा बदलती है. ये बहता नीर है, नदी का प्रवाह है.
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प्रो. कुमुद शर्मा ने कहा कि हिंदी बहुत कुछ छोड़ते हुए, बहुत कुछ जोड़ते हुए आगे बढ़ी है. हिंदी को लेकर जो विरोध है, ये राजनीतिक दृष्टि से ओढ़ी गई मुद्रा है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा का 1918 से अस्तित्व है, वो कैसे टिकी हुई है. बाजार ने हिंदी का बड़ा हित किया है. भाषा का सबसे बड़ा दुश्मन हमारी मानसिकता है. अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की दस भाषाएं होंगी, उनमें एक हिंदी भी होगी.

भाषा और बोली को लेकर किए गए एक सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार अनंत विजय ने कहा कि हिंदी को भी एक रीजनल लैंग्वेज की तरह देखा जा रहा है. आप जब ये मान लेंगे कि सभी भाषाएं राष्ट्रीय हैं तो कोई महाराष्ट्र जैसा बवाल नहीं होगा. विभाजनकारी शक्तियों ने लोगों ने अंदर वैमनस्यता का बीज बोया है. अवधी को भोजपुरी बना दिया गया है. भोजपुरी बोलने वाले भइया होते हैं, ये कौन सी मानसिकता है.
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अनंत विजय ने कहा कि मैं कहता हूं कि आज जेन-जी किताबें भी पढ़ता है, वो साहित्य पढ़ता है, वो सिर्फ रील देखने वाला नहीं है. युवाओं को बदनाम मत करो. भाषा भारत की है, जो ऊपर से चलती है, नीचे तक जाती है. गंगा का जल कभी खराब नहीं होता. अभी राष्ट्रीय शिक्षा नीति आई है. त्रिभाषा फॉर्मूला है. आप एक भाषा पढ़ाइये, दूसरे राज्य की भाषा पढ़ाइये. इसमें कहां क्या समस्या है. जब हम अपनी मातृभाषा में अपनी अभिव्यक्ति करते हैं, तो वो किसी अंग्रेजी में नहीं है. ये भाषा नहीं, एक हुनर है.

अनंत विजय ने कहा कि मैं तो ये जानता हूं कि भाषा किसी भी सरकार की मोहताज नहीं है. क्या तमिल किसी सरकार की मोहताज है, क्या अन्य भाषा किसी सरकार की मोहताज है. हमारे यहां आजादी के बाद अंग्रेजी भाषा थोप दी गई है. मुझे बेहद गर्व की अनुभूति होती है कि जब हमारे प्रधानमंत्री अमेरिका के व्हाइट हाउस में हिंदी में भाषण देते हैं और अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रांसलेटर को साथ लेकर उसे सुनते हैं. मैं हमेशा ये बात कहता हूं कि कोई भी चीज ऊपर से आती है.
उन्होंने कहा कि हिंदी कोई कठिन भाषा नहीं है. हिंदी को लेकर बहुत से लोगों ने भ्रम फैलाया है. भारतीय भाषाओं में जो शब्द हैं, पहले उन्हें लेने का प्रयास करना चाहिए. बस स्टैंड की जगह मराठी में शब्द है स्थानक, इसे ले लीजिए. इसमें क्या समस्या है. हिंदी के शुद्धतावादी हिंदी के नाश के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार हैं. जेन-जी जो भाषा को समझ पा रहे हैं, उन्हें समझने दीजिए. उर्दू हिंदी एक ही है. लिखने का तरीका अलग है. ये गणेश शंकर विद्यार्थी ने कहा है.
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कोई ये बताए कि हिंदी में नुक्ता कहां से आ गया. कोई भी भाषा दूसरी भाषा से शब्द लेगा, लेकिन अपने व्याकरण से उस शब्द का प्रयोग निर्धारित करेगा. मुझे शुद्धतावादियों से यही दिक्कत है कि हिंदी में कोई शब्द लो और नुक्ता लगा दो. भारत एक संस्कृति का देश है. आजाद भारत के बाद कुछ साहित्यकारों ने भाषा में अनाधिकार प्रवेश किया. साहित्य का मतलब भाषा नहीं होता.
उन्होंने कहा कि कोई उपन्यासकार विद्वान ही हो, ये आवश्यक नहीं है. 1960 के दशक में पैदा होता तो मैं 1990 के दशक में मैं कह नहीं सकता था कि वामपंथियों ने हिंदी का नाश किया है. भाषा वो बहता नीर है, उसे छोड़ दीजिए, घाट बनाने का प्रयास मत कीजिए, उसे आने दीजिए. भाषा को बांधने का प्रयास मत कीजिए.
अनंत विजय ने कहा कि भाषा को राजनीति से बिल्कुल दूर रखनी चाहिए. राजनेताओं को इससे जितना दूर रखेंगे, उतना कम से कम संक्रमण होगा. लेखन को बाजार में नहीं उतरना चाहिए. लेखक को भी पैसे चाहिए. पैसा इस वक्त की सबसे बड़ी आवश्यकता भी है. आज कोई लेखक स्वांत: सुखाय नहीं लिखता है. अंत में अनंत विजय ने कहा कि नामवर जी मेरे बहुत प्रिय हैं. युवा तय कर लें कि कविता लिखना चाहते हैं या कहानी लिखना चाहते हैं.

कार्यक्रम में कवि मनु दाश भी शामिल थे, जो ओडिया-अंग्रेजी में लिखने वाले द्विभाषी कवि, संपादक, अनुवादक, प्रकाशक और ओडिशा कला और साहित्य महोत्सव के निदेशक भी हैं. उन्होंने कहा कि ओडिशा के दिग्गज साहित्यकार बुद्धिनाथ ने मुझे कहानी लिखने के बारे में बताया. मैं खुद बायलिंग्वल राइटर हूं. मैं हिंदी किताब भी पढ़ता हूं.
उन्होंने कहा कि भाषा का मतलब जाति और परंपरा को कैरी करता है. भाषा एक पोशाक की तरह है. हम अलग अलग पोशाक पहनते हैं. भाषाएं बोलते हैं, मगर इंसान एक ही हैं. पहले जब गणना हुई तो 1652 भाषाएं थीं. मगर दूसरी बार जब गणना हुई तो 108 ही बची थीं. इतनी भाषाओं की मौत हो गई. ये बहुत दुखद है. भारत मल्टी कल्चरल देश है, कई संस्कृतियों वाला देश है. आज सभी लोग अंग्रेजी भाषा की बात कर रहे हैं.
मनु दाश ने एक सवाल के जवाब में कहा कि मैं ओडिया और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में स्वप्न देखता हूं, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में लिखता हूं. अंग्रेजी को बुरा मत समझिये. अच्छी चीज किसी भी भाषा में हो. क्योंकि मुझे क्वालिटी चाहिए. मुझे जो किताब अच्छी लगी, उसमें पढ़ता हूं. आजकल अंग्रेजी मीडियम में पढ़ने वाले बच्चे न हिंदी अच्छी सीख पाते हैं, न ही अच्छी अंग्रेजी. आप अपनी भाषा में अच्छा सोच सकते हैं, बोल सकते हैं, लिख सकते हैं.

अगर आपने घर में अपनी भाषा में बात नहीं की, तो भाषा अपने आप प्रभावित होगी. अगर अपनों से अपनी भाषा में बात करेंगे तो कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. 19वीं शताब्दी के अंत में बहुत सारे बंगाली लेखकों ने ओडिया भाषा को समृद्ध किया है. ओडिशा में एक चीज अच्छी है कि भाषा को लेकर वहां कभी कोई विवाद नहीं हुआ है. वहीं इस दौरान कार्यक्रम के अंत में प्रो. कुमुद शर्मा की किताब अमृतपुत्र का विमोचन किया गया.