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Sahitya Aajtak 2024: जो तरसाए श्रृंगार करे, जो बिखरे-उलझे प्रेम वही...'दिल, मन और धरती ' सेशन में खूब जमा रंग

साहित्य आजतक 2024 (Sahitya Aajtak 2024) के दूसरे दिन दिल मन और धरती सेशन में अभय के, आशुतोष अग्निहोत्री और संजय अलंग ने हिस्सा लिया. तीनों ने अपने कविता पाठ से साहित्य आजतक के मंच पर रंग जमा दिया.

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Ashutosh Agnihotri, Sanjay Alung and Abhay K
Ashutosh Agnihotri, Sanjay Alung and Abhay K

Sahitya Aajtak 2024: साहित्य आजतक का मंच एक बार फिर सज गया है. 22 नवंबर से 24 नवंबर तक यानी पूरे तीन दिनों के लिए दिल्ली के मेजर ध्यानचऺद नेशनल स्टेडियम में साहित्य का मेला लग हुआ है. साहित्य आजतक 2024(Sahitya Aajtak 2024) के दूसरे दिन 'दिल मन और धरती' सेशन में अभय के, आशुतोष अग्निहोत्री और संजय अलंग ने हिस्सा लिया. 

अभय के, आशुतोष अग्निहोत्री और संजय अलंग तीनों का ताल्लूक प्रशासनिक सेवा से भी है. अभय के जहां IFS हैं तो वहीं आशुतोष अग्निहोत्री इंडियन सिवल सर्विसेस में हैं. इसके अलंग भी प्रशासनिक सेवा में रह चुके हैं, फिलहाल वह सेवानिवृत्त हो चुके हैं. साहित्य आजतक में शिरकत करने आए इन तीनों मेहमानों ने अपने कविता पाठ से रंग जमा दिया.

आशुतोष अग्निहोत्री की कविता

तुमको मायावी कहते हैं माया में उलझे अज्ञानी 
और तुमको जो समझा, समझ गया क्यूं प्रेम नहीं है अभिमानी
तुमने जो रास रचाई थी क्या अनुपम प्रेम लुटाया था
जो युगों युगों के प्यासे थे परितृप्त करा समझाया था
जो प्रेम किया था राधा ने क्या मांगा उसने कान्हा से
जो प्रेम किया था मीरा ने जब डरा जहर से राणा से 
जब आह नहीं जब चाह नहीं जब लक्ष्य नहीं जब राह नहीं
तब बिना डोर के बंध रहा यह वृंदावन बरसाना से 
जो मिल जाए अधिकार बने जो लिपटे सिमटे प्रेम वही
जो तरसाए, श्रृंगार करे. जो बिखरे, उलझे प्रेम वही
क्या ऐसा हो की घुल जाए सब मेरा है जो तुम में ही
क्या तुम में खुद को पाना खुद को खो देना ही प्रेम है
जो प्रेम हृदय की सीमा के अंदर बंध जाए प्रेम नहीं 
जो प्रेम बिखरकर काजल से आंखे रंग जाए प्रेम नहीं
जो हृदय बना दे सागर सा फिर उससे छलके प्रेम वही 
जो रंग छंद आनंद बिखेरे सब पर बरसे प्रेम जो सब पर बरसे प्रेम वही

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अभय के की मगही में कविता

हम हैरान हय की क़ोई लिखल कविता न हय मगही में
इधर ऊधर भागहिय, फेन बैठहिय कविता लिखे लगी मगही में
गली कुचा में सुनहिय लोग कैसे बोलअ हथिन मगही में
ध्यान से सुनहिय सबके बोली-चाली मगही में
दिन-रात चिरैं जैसन चाएं-चाएं करत हथिन मगही में
ओखनी सब के गारी भी बढ़िया लग है मगही में
ठीक है को ठीक हक़ो, अच्छा आ गया को अच्छा आ गेलहु कहल जाय है मगही में
खाना खाए-खनवा खैलहु, चाय पिए- चैइआ पिलहु होवअ है मगही में
हम शहर में घुमल-फिरल चल हिय किताब खोजते मगही में
घुर के घरे आब हिय बिन कौनो लिखल शब्द पैले मगही में
घर पर माता जी परथना कर हथिन मगही में
हमर बेटा के बुद्धी देहु भगवान
ई कविता लिखेलअ चाह हय मगही में .

संजय अलंग की कविता

हर स्थिति में जी लेता हूं मैं
खोज लेता हूं खेल और आनन्द कठिनाई में भी
नहीं बनाई जब सड़क, नहीं दिया जब पथ
बारिश में जब रच गया इनमें कीचड़
इस कांदो में भी खोज निकाला मैंने आनन्द
निकलने को इससे बाहर बना ली गेंड़ी मैंने
खेलने लगा खेल भी उससे ही
तुम तो इसे लोक जीवन बता रहे थे
हरेली के दिन आकर साथ मेरे फोटो खिंचा
गाड़ी में बैठ घर को वापस जा नहा धोकर आराम फरमा रहे थे
तब भी मैं गाँव में था कठिनाई को भी उत्सव में बदल रहा था
जीने को आसान कर रहा था तब तुम गेंड़ी से छिल गए
पैर के अंगूठे में दवाई लगवा रहे थे
कीचड़ का शोक मना रहे थे फोटो को अख़बार में छपवा रहे थे
गेंड़ी अब भी मेरे पास थी और तुम जा चुके थे
अब मैं तुम्हारे वज़न से टूट गई गेंड़ी को भी सुधार रहा था
                                             

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