
साहित्य आजतक के सेशन 'अख्तरी… उफ ये फसाना!!' में कवि-लेखक यतींद्र मिश्रा और पद्मश्री लोक गायिका एवं लेखिका मालिनी अवस्थी ने बेगम अख्तर की जिंदगी, कला, महफिलों और उनके दुख-सुख से भरे फ़साने पर बेहद रोचक बातचीत की. इस बातचीत ने फैज़ाबाद के उस दौर की याद दिलाई, जहां अख्तरी बाई ने अपनी शर्तों पर जीवन जिया और अपने फन की अद्भुत मिसाल छोड़ी.
इस सेशन में लोक गायिका मालिनी अवस्थी ने बीच-बीच में बेगम अख्तर की गजलों से उनकी गायिकी की रुहानियत से रूबरू कराया. महफिल में मौजूद दर्शक बेगम अख्तर के किस्सों और उनकी गजलों से उनकी शख्सीयत के कई पहलुओं के बारे में जाना.
कल की गॉसिप आज फसाना बन गई
जिंदगी में जिन बातों को लोग गॉसिप कहते हैं, मरने के बाद वही इतिहास बन जाती हैं. यतींद्र ने कहा कि अख्तर के दौर में उनके बारे में कई तरह की फुसफुसाहटें, बातें, तंज होते थे, मगर आज वही किस्से उनकी विरासत का हिस्सा हैं.
मालिनी अवस्थी ने कहा कि उनकी गायकी में पाकीज़गी इसीलिए थी क्योंकि वो अपनी शर्तों पर जीती थीं. बेगम अख्तर की आवाज में तड़प, दर्द और एक नायाब सच्चाई है . गायन में वही असर आता है जब कलाकार खुलकर जीता है, बिना शर्त, बिना डर...
उन्होंने यह भी बताया कि अख्तर पटियाला घराने से सीखकर भी कैसे अवध की आत्मा नहीं छोड़ पायीं इसलिए उनके दादरे और ठुमरियां आज भी ज़िंदा हैं. .

पफ-स्लीव ब्लाउज वाला किस्सा...
1960–62 के दौरान एक फिल्म रिलीज़ होती है जिसमें मीना कुमारी ने पफ-स्लीव ब्लाउज पहना था. बेगम साहिबा ने फैज़ाबाद के राजपरिवार को चिट्ठी लिखी-
'राजकुमारी, तुम भी वैसा ही ब्लाउज बनवाओ.'
राजा साहब ने तुरंत सात दर्जियों को तीन दिन तक फिल्म दिखवाई ताकि वे ब्लाउज का डिजाइन उतार सकें. लेकिन दर्जी फिल्म की कहानी में ही खो गए. ब्लाउज ड्रॉ ही नहीं हुआ.
आखिरकार राजा साहब ने सिनेमा हॉल के मैनेजर से कहा कि रील का वो हिस्सा काट लाओ जहां ब्लाउज साफ दिखता है.
रील काटी गई, डिजाइन बनाया गया, रील वापस भेज दी गई.
कुछ दिनों बाद इंडियन मोशन पिक्चर एसोसिएशन ने रियासत पर रील काटने के आरोप में मुकदमा कर दिया. राजा साहब को 16,000 रुपए हर्जाना देना पड़ा. केवल इसलिए कि बेगम अख्तर का कहा हुआ 'पफ वाला ब्लाउज' बन सके.
जब लता मंगेशकर से कहा- तुम्हारा गाना...
बेगम अख्तर में एक शरारती चंचलता भी थी. वो जब लता मंगेशकर से मिलती थीं तो कहतीं, 'लता, तुमने वो गाना कमाल का गाया है.'मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए' वाला… मुझे बहुत पसंद है!'लता जी हंस पड़तीं कि इतनी नफीस और तहज़ीबदार बेगम अख्तर को यही गाना पसंद है.
यतींद्र ने सुनाया, अख्तरी बाई के कम बैक का किस्सा
बेगम अख्तर को एलिट क्लास में जाने की और शुर्फा कहलाने की इतनी ज्यादा उनके अंदर हसरत थी की उन्होंने सारी शर्तें मान लीं. गाना छोड़ दिया, लेकिन इससे उनका नर्वस ब्रेक डाउन हो गया. सात-आठ साल उन्होंने कुछ नहीं गाया और जब उनके पति अब्बासी साहब चले जाए हाई कोर्ट. तब धीरे से बाजा पेटी निकाले, उसको पोछे, हिम्मत नहीं पड़ती थी की हारमोनियम से एक सुर भी लगा दें क्योंकि अगर मौसीकी यानी म्यूजिक की आवाज़ भी बैरिस्टर के घर में गूंज गई तो कहीं कुछ गड़बड़ ना हो जाये और वो खफा ना हो जाएं.
लखनऊ रेडियो स्टेशन के उस वक्त डायरेक्टर एल. के. मल्होत्रा ने ये दर्द भांप लिया था. एक दिन डिनर पर जब उन्होंने देखा कि बेगम साहिबा खुद तो नहीं गा रहीं, लेकिन घर में दूसरे लोग ग़ज़लें सुना रहे हैं, तो वे अंदर तक हिल गए. उन्होंने बेगम अख्तर की वापसी की योजना बना ली.
अगले दिन रेडियो स्टेशन बुलाकर कहा, 'बस गुफ्तगूं करेंगे, गाना नहीं.'
लेकिन स्टूडियो में पहले से ही सारी रिकॉर्डिंग की तैयारी कर दी गई थी. साज़िंदे चुपचाप बैठा दिए गए, माइक और मशीनें ढक दी गईं ताकि बेगम अख्तर को कुछ पता न चले.
जब बेगम अख्तर पहुचीं तो मल्होत्रा साहब ने उनसे सिर्फ अपने लिए कुछ गाने की गुज़ारिश की. वे डरी हुई बोलीं-
'मेरी आवाज़ तो निकलती ही नहीं अब.'
मल्होत्रा ने भरोसा दिलाया
'कोई नहीं सुन रहा, बस मैं हूं.'
बेगम अख्तर ने दर्द में डूबी एक बंदिश गाई. और वही उनकी कमबैक रिकॉर्डिंग बन गई.
जब बाहर आकर उन्हें वो रिकॉर्डिंग सुनाई गई तो वे फूट–फूटकर रो पड़ीं, और बोलीं-
'हाय अल्लाह… कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?'
लेकिन इसी चोरी से रिकॉर्ड किए गए गाने ने उन्हें फिर से दुनिया के सामने खड़ा कर दिया. भारतीय संगीत जगत में बेगम अख्तर की दूसरी पारी की शुरुआत इसी दिन से मानी जाती है.
ये सिर्फ बेगम अख्तर की कहानी नहीं, उन सभी कलाकारों की दास्तान है जिन्हें शादी, रिश्तों और सामाजिक दबावों के कारण अपनी कला दबानी पड़ी. इस पर मालिनी अवस्थी ने कहा कि कई बार औरतों को कोई दबाता नहीं. औरत खुद ही रिश्तों के बोझ में दब जाती है. उन्होंने यहां अपने अनुभव भी साझा किए.
'वो सिर्फ उस्ताद नहीं 'अम्मी' थीं'
बता दें कि यतींद्र मिश्रा ने उन पर किताब लिखी है. वो कहते हैं कि वे ज़िंदगी भर वफादारी की तलाश में रहीं, फिल्मों में गाया पर जब महबूब खान ने फिल्म रोटी में गाने रखे नहीं तो ऐसी चोट लगी कि पूरी इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया. सत्यजीत राय को मनाकर बंगला सिनेमा तक अपना ठसक भरा दादरा पहुंचाया ताकि कोई न कह सके कि अवध का रंग कम हो रहा है.
और ये वही बेगम अख़्तर हैं जो अपनी शिष्याओं शांति हिरानंद और रीता गांगुली के लिए सिर्फ उस्ताद नहीं 'अम्मी' थीं. अम्मी जिनके भीतर नफ़ासत थी, बड़प्पन था और एक ऐसी खामोश लड़ाई जिसे वे दुनिया से नहीं अपने ही वजूद से लड़ती रहीं. शांति हिरानंद की जुबान में कहें तो उनमें गानेवालियों जैसी लूटमार नहीं थी, वे इज्जत देती थीं और उसी की तलाश में जीती थीं. उन्हें हमेशा लगता था कि उनके वजूद को चैन नहीं हैवे हर पल सुकून, राहत और एक ठहराव की तलब में रहती थीं.