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बुक कैफे में आज 'वे नायाब औरतें' | मृदुला गर्ग की पुस्तक पर जय प्रकाश पाण्डेय

'वे नायाब औरतें' ऐसी खिसकी बंदियों का अफ़साना है, जिनके बारे में मृदुला गर्ग लिखती हैं कि इसमें हमारा किया धरा कुछ नहीं, सारा करिश्मा किस्मत का है. ऐसी आला निकली कि एक के बाद एक, कतार से बाहर, लीक से हटी, खिसकी, ख़ब्ती, सिफ़र से ज़बर तक का सफ़र तय करतीं, दीवानगी की हद को छूती पर बाल-बाल बच निकलती मोहतरमाओं से मुलाकात करवाती चली गयी... साहित्य तक के बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' में सुनिए इसी पुस्तक पर वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय की राय

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साहित्य तक बुक कैफे में मृदुला गर्ग की 'वे नायाब औरतें' की समीक्षा
साहित्य तक बुक कैफे में मृदुला गर्ग की 'वे नायाब औरतें' की समीक्षा

ख़ुदाई हंसी को समर्पित... 
मेरा ख़ुदा हंसा तो यह संस्मरण हो गया.
वरिष्ठ लेखिका मृदुला गर्ग की एक किताब आई है 'वे नायाब औरतें', जिसे वे खिसकी बंदियों का अफ़साना बताती हैं. वे लिखती हैं इसमें हमारा किया धरा कुछ नहीं, सारा करिश्मा किस्मत का है. ऐसी आला निकली कि एक के बाद एक, कतार से बाहर, लीक से हटी, खिसकी, ख़ब्ती, सिफ़र से ज़बर तक का सफ़र तय करतीं, दीवानगी की हद को छूती पर बाल-बाल बच निकलती मोहतरमाओं से मुलाकात करवाती चली गयी. कहीं तलाशने नहीं जाना पड़ा. मामला घर बैठे शुरू हो गया तीनेक पीढ़ी पहले...
सच है मृदुला जी के लेखन में समाया 'प्रेम' अभिव्यक्ति भी है, संवेदना भी, तो कर्म भी. वे अपने सृजन के हुनर से अपने पात्रों को जीवंत कर देती हैं और अनुभव की चाशनी से ऐसा संसार रच देती हैं, जिसका एक अलग ही नूर चमकता है. यह यों ही नहीं कि वरिष्ठ लेखक, चिंतक, आलोचक प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने महिला दिवस की पूर्वसंध्या पर 'वे नायाब औरतें' को नायाब औरतों के बारे में नायाब किताब बताते हुए लिखा कि- मृदुला गर्ग कहन की नयी विधियां तलाशती रहती हैं, वसु का कुटुम में किस्सागोई का जो हुनर उन्होंने अख़्तियार किया था, वह इस किताब में और परवान चढ़ा है. वह क़िस्सा अजीबोग़रीब हादसे के बारे में था. नायाब औरतों का यह बयान ऐन हमारे आस-पास आम जी रही औरतों के बारे में है, जो नायाब किसी पद, पदवी के कारण नहीं गोकि इनमें हैं कुछ ऐसी जिनका वास्ता एलीट तबके से है, कामयाब डॉक्टर, मशहूर कालेज की प्रिंसिपल, राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष वग़ैरह लेकिन उनका नायाबपन पद या पदवी पर निर्भर नहीं. जिस तरह हरेक का किरदार उकेरा गया है, शख़्सियतें नुमायां की गईं हैं शक की गुंजाइश ही नहीं कि वे पदों पर न होतीं, पदवियों वाली न होतीं तब भी नायाब ही होतीं. मध्यवर्ग, उच्च मध्यवर्ग की औरतें तो हैं ही, आया और घरेलू सहायिकाएं भी हैं. सच यह है कि स्वर्णा आया तो ऐसी कि जिन्हें मैं कभी न भुला न पाऊंगा. ये हमारे आपके घरों की औरतें हैं- माँएं, मौसियां, मामियां, ताइयां, चाचियां ननदें, भाभियां… असफल विवाह में फंसी हुईं, सफल विवाह की ट्रैजेडी की गिरफ़्त में आईं हुईं…लेकिन रोती-रिरियाती इनमें से एक भी नहीं. हरेक की मुश्किल किसी धरातल पर दूसरियों की मुश्किल जैसी है, तो किसी धरातल पर ऐन उसकी अपनी, अनोखी. और ये औरतें हैं कि अपनी अपनी जगह, अपने-अपने हालात के मुताबिक़ उन मुश्किलों, चुनौतियों के पार उतरती हैं. इन सब के संघर्ष इन्हें नायाब बनाते हैं तो मृदुला जी का अंदाज-ए-बयाँ इस किताब को. आम लोगों के दैनंदिन संघर्ष को लिखने वाले बहुत से बड़े लेखक हैं जिनके लेखन से देश-काल का कुछ पता ही नहीं चलता. उनके अपने सारे नेक इरादों के बावजूद, लेखन के महत्त्व के बावजूद ऐसा आख़िरकार बन जाता है, शाश्वत-मरीचिका का संधान. वक़्त को समझने की बजाय वक़्त से कतराने का ज़रिया. वे नायाब औरतें निहायत पर्सनल क़िस्म की किताब है, संस्मरण, आत्मकथा, डायरी, लेकिन इस  पर्सनल का सामाजिक-ऐतिहासिक से, देशकाल से जो रिश्ता है, उस पर लेखिका की पैनी, संवेदनशील निगाह लगातार बनी हुई है. आज़ादी, राष्ट्रनिर्माण का आदर्शवादी जज़्बा, मोहभंग, समाज में बढ़ती दूरियां, मनों में बढ़ती किरचें और दरारें- पंजाब में अलगाववाद, उसकी भयावह परिणतियां, उदारीकरण धीमे ज़हर की तरह फैलता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, साथ ही हाशिए पर फेंक दिये गये लोगों का पुरज़ोर आत्म-रेखांकन कैसे उन लोगों की ऐन रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को प्रभावित करता है, जिनका उनके अपने लेखे "पॉलिटिक्स से कोई मतलब ही नहीं जी…" 
और मृदुला जी के जीवन की महाभयानक त्रासद दुर्घटना…उसके कारण मन में पैठा अवसाद, दूर अमेरिका में बैठी संवादी, विदुषी  मेरी रेडिक का उस अवसाद में नितांत तर्केतर ढंग से हाथ बंटाना,  रैशनलिज्म की सीमाएं उलांघता आध्यात्मिक अनुभव…साथ ही, दो-तीन पुरुषों का भी नायाब औरतों में इंदराज क्योंकि उनमें औरतों के से गुण हैं- ठहराव, गंभीरता, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में व्यक्तित्व और मानवीय मूल्यों के रेखांकन की बिल्कुल मौलिक तरकीबें सोचने की हिकमत…और अमूमन चुप रहने वाली लेकिन चुप्पी में दमदारी से बोलने वाली ताक़त. ऐसी ताक़त कि हाथ पकड़ ले तो हट्टे-कट्टे चोर को बुढ़िया आया में काली माई नज़र आने लगे, पैर पड़ने लगे वह...
भाग्यवान हैं वे पुरुष जो इस अर्थ में नायाब औरतों में शुमार किये गये…
 इन में से कोई भी नायब औरत काल्पनिक नहीं, ( मर्द के रूप में विचरती 'औरतों' समेत) लेकिन हरेक में लाजवाब 'काल्पनिक' अफ़सानों के किरदार बनने की संभावना ज़रूर है. कुछ को आप मृदुला जी के लेखन में आसानी से पहचान भी सकते हैं. एक दो को छोड़ नाम मैं जानबूझ कर नहीं दे रहा. ऐसी किताब पर स्पायलर क़िस्म की टिप्पणी क्यों लिखूं जिसकी धीरे धीरे, परत-दर-परत खुलने वाली शैली का आलम यह कि कल रात (या आज सुबह कहूं?) तीन बजे तक पढ़ता ही रहा. चंद घंटे सो कर उठा तो फ़िर पढ़ने लगा. बाद में, दीगर काम करते करते यह नोट मन ही मन लिखा जाता रहा. कोशिश की है, उस जादू को शब्दबद्ध करने की जो इस किताब ने ज़हन पर तारी कर दिया है, जो जल्दी उतरने वाला भी नहीं. आप पढ़ें, बिना कुछ जाने, बिना किसी उम्मीद के.
मुझे उम्मीद नहीं यक़ीन है कि ऐसे तिलिस्म में ख़ुद को पाएंगे जिससे निकलने को जी न चाहे.   
बहुत शुक्रिया मृदुला जी, इस किताब के लिए.
मृदुला गर्ग का जन्म 25 अक्टूबर, 1938 को कलकत्ता, अब के कोलकाता में हुआ. आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए किया. आपकी पहली कहानी सन् 1970-71 में प्रकाशित हुई, तो पहला उपन्यास 1975 में. आप इनसानी रिश्तों की एक अनूठी चितेरी हैं, पर साहित्य के अलावा पर्यावरण, सामाजिक संदर्भ एवं स्त्री विमर्श भी आपके लेखन का केंद्र रहे हैं. आपने केवल भारत ही नहीं अमरीका, यूरोप के अनेक विश्वविद्यालयों और संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़े संस्थानों में बहुतेरे व्याख्यान भी दिये हैं. आपकी रचनाओं के अनुवाद अंग्रेज़ी और जर्मन सहित देश और दुनिया की कई भाषाओं में हो चुके हैं. अपने रचना कर्म के लिए आप हिंदी अकादमी के साहित्यकार सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के साहित्य भूषण सम्मान, महाराज वीरसिंह सम्मान, सेठ गोविंददास सम्मान, व्यास सम्मान, स्पंदन कथा शिखर सम्मान, हैल्मन हैमट ग्रांट, ह्यूमन राइट्स वाच न्यूयॉर्क और मध्य प्रदेश साहित्य परिषद सहित साहित्य अकादमी सम्मान से भी सम्मानित हो चुकी हैं. 
आज बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय ने मृदुला गर्ग की कृति 'वे नायाब औरतें' पर चर्चा की है. गर्ग की इस क़िताब को हम संस्मरण-स्मरण-रेखाचित्र या आत्मकथा जैसे रवायती फ़ॉर्मेट में फ्रेमबद्ध नहीं कर सकते. क्योंकि इसमें बे-सिलसिलेवार 'यादों के सहारे चल रही आपबीती है'- जिसका हर पात्र या उसके तफ़सील का सिरा एक मुकम्मल क़िस्सागोई का मिज़ाज रखता है. यह उनका एक ऐसा अनूठा प्रयोग है जो अब तक के सारे घिसे-पिटे अदब की, आलोचना के औज़ारों को परे कर मौलिक विधा के रूप में नज़र आता है. दरअसल, ये यादों से सराबोर क़िरदारों की ऐसी कहानी है जो लीक, वर्जनाओं, सहमतियों के बरअक्स अपनी निजी धारणाओं को बेलौस बेबाकी से व्यक्त कर पाठक को प्रभावित करते हैं. इसमें शुमार औरतें, चाहे क्रान्तिकारी नादिया हो या अपढ़-भदेस आया स्वर्णा, बादलों से बनी माँ हो या सौतेली दादी चन्द्रावती, पिता की लाड़ली बेटियां हों या माँ-पिता की सखियां-मुख़्तसर सी बात ये है कि सभी उसूलों के मिलन पर, मुख्तलिफ़ मिज़ाज रखते हुए भी, यकसाँ हैं.
ये क़िताब उत्सुकता से भरा ऐसा तिलिस्म है, जिसमें जाये बगैर आप रह नहीं सकते. 'मैं सहमत नहीं हूं'- इस कृति में आये एक क़िरदार का जुमला ही वह सूत्र है जिसे लगाकर सारी 'वे नायाब औरतें', के वैचारिक-चारित्रिक गणित को हल किया गया है. एक और दिलचस्प पहलू, इसमें पुरुषों के बज़रिये ही क़िस्सागोई के काफी कुछ हिस्से को अंजाम दिया है, यानी औरतों के मार्फत पुरुष भी दाखिल हैं. इसमें देश-विदेश में मिलीं वे सब औरतें हैं जो सनकी, ख़ब्ती और तेज़तर्रार तो हैं पर उसूलन अडिग और रूढ़ियों, वर्जनाओं को तोड़ती या कारामुक्त होती हुई- निडर, दुस्साहसी, बेख़ौफ़ लेखिकाएं भी शामिल हैं, परन्तु लेखन की लोकप्रियता के चलते नहीं बल्कि अपनी किसी खासियत के कारण.
मृदुला गर्ग की 'वे नायाब औरतें' के अध्याय 'विदेश की निराली सहेलियां और बल्ब वाले सरदारजी' का संक्षिप्त अंश केवल इसलिए कि आपको गर्ग के भाषा की रवानी और उनके इस संस्मरण की बानगी दिख सके, हालांकि हम तो चाहते हैं कि आप किताब खरीदें और पढ़ें. 

मृदुला गर्ग और 'वे नायाब औरतें': साहित्य तक 'बुक कैफे' में पुस्तक समीक्षा
मृदुला गर्ग और 'वे नायाब औरतें': साहित्य तक 'बुक कैफे' में पुस्तक समीक्षा

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सम्मेलन में दो प्रमुख गुट थे; अमरीकन नारीवादी और फ़्रान्सीसी नारीवादी. अमरीकन गुट की अधिकतर औरतें, आक्रामक, अहंकारी, मुखर, अमीर और कंजूस थीं. जो दूसरे देशों से जा कर वहां बसी थीं, वे काफ़ी फ़र्क़ थीं. फ़्रान्सीसी गुट की ज़्यादातर महिलाएं साहित्य प्रेमी, आज़ाद ख़याल, समानता की पक्षधर और नपे-तुले शब्दों में बोलने वाली थीं. 
चूंकि मुझे फ़्रान्सीसी भाषा नहीं आती थी इसलिए मजबूरन, अमरीकन गुट में शामिल होना पड़ा. अमरीका के पैसे से चल रहे आयोजन के संयोजकों के, जो अधिकतर अमरीकन थे, कुछ ठोस पूर्वग्रह थे. सो अपनी समझ में व्यवहार कुशल तरीके से, उन्होंने प्रचारित कर रखा था कि तीसरी दुनिया से आई औरतें, संकोची और लजालु होंगी; अपनी बात कहने से कतराएंगी. पहली दुनिया के बाशिन्दों को उनसे हमदर्दी से पेश आना होगा. जैसा पहले अर्ज़ किया था, तीसरी दुनिया से सिर्फ़ मैं थी. आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि सम्मेलन के दूसरे दिन, जब मैं बोली तो उनके पूर्वग्रह के कैसे परखच्चे उड़े. मेरा पर्चा सर्वोत्तम कतई नहीं था पर अलहदा ज़रूर था, क्योंकि मैं कॉलेज में पढ़ाने वाली पंडित नहीं, ख़ुद सोच-विचार करने वाली रचनाकार थी. मैंने भारतीय साहित्य में स्त्रीत्व के रूपक पर बात रखी. एक तरफ़, तीसरी दुनिया से बदतर पहली दुनिया की औरतों की मानसिकता की बात की. दूसरी तरफ़, तीसरी दुनिया में राजनीति, चिकित्सा और विज्ञान के क्षेत्रों में, ऊंची पदवियों पर आसीन विद्वान महिलाओं की. हमारी औरतों के लिए देश और पर्यावरण रक्षा की आज़ादी उतनी ही मानीखेज़ थी, जितनी औरतों की आज़ादी. हम अपने साथ, मर्दों को भी आज़ादी देने के क़ायल थे. उस सिलसिले में मैंने चिपको आंदोलन का ज़िक्र किया. अमरिकन रचनाकारों को मेरा अभिभाषण पसन्द आया, नारीवादी विशेषज्ञों को नहीं पर तीसरी दुनिया की औरतों की सकुचायी, लजालु शख़्सियत का कोई पैरोकार नहीं बचा. एक-दो दिन, हम रचनाकारों ने अपनी रचनाएं भी पढ़ी थीं. मेरी कहानियां उन्हें काफ़ी ग़ैर तीसरी दुनिया मार्का लगी थीं जैसे डैफ़ोडिल जल रहे हैं का अंग्रेज़ी अनुवाद. 
मैं अपने बारे में बतलाने के लिए यह बयान नहीं कर रही; उन औरतों से आपको मिलवाने के लिए कर रही हूं, जो उस दिन के बाद मेरी दोस्त बन गईं. कईयों ने अगले सालों में मुझे अमरीकन विश्वविद्यालयों में बोलने के लिए न्यौता भेजा. सबसे अहम था बीज वक्ता की तरह आइयोवा में यू.एन के स्त्री कोलोक्यम में रात्री भोज पर बोलना. उसी की वजह से मैं अमरीका पहुंची और बाद में वहां के अनेक विश्वविद्यालयों में रचना पाठ किया. डुब्रोवनिक में सम्मिलित स्त्रियों की वजह से वह सब मुमकिन हुआ.
बहुत सी बेमिसाल औरतों से वहां मुलाक़ात हुई. सबसे नायाब औरत नादिया तेसिच के बारे में अलग से सबसे बाद में कहूंगी. नाटक में विरेचन यूं ही होता है.
तो औरों की सुनिए.
एक बेमिसाल औरत थीं, वहां आई फ़्रान्सीसी प्रोफ़ेसर. उन्होंने अपने भाषण में अंग्रेज़ी में लिखने वाली औसत भारतीय लेखिका, कमला मार्कन्डे से उद्धरण दे कर कहा कि, भारतीय साहित्य में औरतें, मातृत्व पर लिखने से आगे नहीं बढ़ पाई हैं. मैं यह कहने से ख़ुद को रोक नहीं पाई कि भारत में, युरोप की तरह संस्कृत के अलावा, चौदह से ज़्यादा प्रमुख भाषाएं हैं, और हरेक का साहित्य, विश्व की किसी भाषा में लिखे साहित्य से बृहत् और वैविध्यपूर्ण है. ज़ाहिर है, आपको उनके बारे में मालूम नहीं हो सकता. बेहतर होगा कि आप भारतीय साहित्य पर न बोलें. जब ढ़ाई हज़ार वर्ष से, हम न पढ़े जा कर सकुशल हैं तो अगले ढ़ाई हज़ार साल भी रह लेंगे. 
दरअसल कसूर उनका नहीं, अंग्रेज़ी से आक्रांत हमारे विद्वानों का था, जो हरदम भारत के अंग्रेज़ी लेखकों का नाम गिनाया करते थे. खामख्वाह मैं कटु हो गई थी. बाद में जो हुआ, उसने मुझे उनकी नायाब शख्सियत से रूबरू करवाया. वह आख़िरी दिन था. अगली सुबह मैं निकल रही थी. शाम को वह मेरे कमरे में आईं, कहा क्या रात वे मेरे साथ गुज़ार सकती हैं? मैं समझ पाती, उससे पहले उन्होंने सफ़ाई दे दी. कि वे शर्मिंदा हैं कि बिना जाने टिप्पणी की और अब मुझसे लम्बी बात करना चाहती हैं. सुबह हम दोनों निकल जाएंगे, फिर मिलना हो न हो, इसलिए जितना सम्भव हो, कम से कम हिन्दी साहित्य के बारे में जानना चाहती हैं. मैंने अपने पर्चे को हिन्दी साहित्य पर ही एकाग्र किया था. अपने कटाक्ष के लिए माफ़ी माँग कर हां के सिवा मैं क्या कह सकती थी? पूरी रात हम बातें करते रहे. मेरे पास जो दो-चार, हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुदित क़िताबें थीं, उन्हें दे दीं. हिन्दी लेखिकाओं की सूची भी. वह एक अविस्मरणीय रात थी. उनकी उदारता, विनम्रता, सच के लिए ललक ने मुझे अभिभूत कर लिया. उनके सामने मैं शर्मसार हो गई. बातों-बातों में उन्होंने यह भी बतलाया कि उनकी माँ एक घर में हाउसमेड थीं और वे उन अमरीकनों से जुड़ाव महसूस नहीं कर पातीं, जिन्होंने बिना संघर्ष किये, उच्च शिक्षा पाई और अब दूसरों को नीचा दिखलाने में व्यस्त हैं. उन्होंने मुझे अनाय निन का काव्यमय उपन्यास 'सिटीज़ ऑफ़ द इन्टीरियर' भेंट किया. उसे मैंने अनेक बार पढ़ा. फिर 2004 में मकान बदला तो अनेक क़िताबें इधर-उधर हो गईं. उनमें वह भी रही होगी क्योंकि बहुत ढूंढ़ने पर भी नहीं मिली. वरना उस पर उनका नाम लिखा था और वह मुझे मिल जाता. पर उस अनाम, एक रात की दोस्त के सामने, मैं नतमस्तक हूं. वे मेरे भीतर जी रही हैं. जब भी मैं किसी सम्मेलन में बोलती हूं, वे मेरे बराबर आ कर खड़ी हो जाती हैं. 
अमरीका से आई रॉक्ज़ान प्राज़नायक एक और विदुषी थीं जिनसे मेरा काफ़ी अलहदा क़िस्म का रिश्ता बना. 
वह शायद आख़िरी दिन रहा होगा. हमारी बातचीत होती रही थी. साहित्य पर, जीवन पर, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध पर, विवाह पर, जीवन दृष्टि पर … उस दिन उन्होंने अपने पति के बारे में कुछ बातें बतलाईं और मुझसे कहा, "आप प्राचीन संस्कृति से हैं. मुझे बतलाइए मैं इस निजी मसले में क्या फ़ैसला लूँ?" बिना एक पल झिझके, मैंने कहा, "तलाक दे दो."
वे हतप्रभ तक न हुईं. बस धन्यवाद कहा. उसके बाद मैं दो बार अमरीका गई. 1990 और 1991 में. 1991 में गई तो बेटे की सर्जरी के लिए थी पर उसके स्वस्थ होने पर, अमरीका घूमो का सस्ता टिकट बनवा कर, बहुत जगह घूमी. 1990 में रॉक़्ज़ान से मिलना तो नहीं हुआ. हम अमरीका के दो छोरों पर थे, पर उनका फ़ोन ज़रूर आया. उनकी हिस्ट्रेक्टॉमी होने वाली थी. मेरी एक साल पहले हुई थी तो मान सकते हैं, कुछ अनुभव था. कुछ बातें उन्होंने पूछीं, मैंने भरसक जवाब दिये. पर सर्जरी के बाद एक दिन, काफ़ी अटपटा सवाल पूछा. कहा कि उनका दूध पीने को मन करता है पर डाक्टर कहता है ज़रूरत नहीं है. "भाड़ में गया डाक्टर," मेरे मुंह से निकला, "अपनी देह को तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता. मन करता है तो समझो देह की मांग है. ज़रूर पियो और ख़ुशी से पियो." 
अपनी देह को हमसे बेहतर कोई नहीं जानता, बाद के वर्षों में यह नारीवाद का नारा बन गया. पर मैंने अन्तःप्रज्ञा से कहा था.
1991 में रॉक्ज़ान ने मुझे विर्जिनिया के हैंम्पडन सिडनी कॉलेज बुलाया, जो शायद इकलौता कॉलेज था, जो केवल पुरुषों के लिए था. मैंने अपनी कहानी 'नकार' का अंग्रेज़ी तर्जुमा पढ़ा और 'रिकेन्टेशन' का पाठ किया, जो सीधे अंग्रेज़ी में लिखी थी और जिसका हिन्दी तर्जुमा नहीं किया था. मज़े की बात यह हुई कि उसका अन्त छात्रों की समझ में तो ख़ूब आया, प्रोफ़ेसरों के नहीं. छात्रों ने मुझसे पुष्टि करवाई और जोश से चिल्लाये, 'वी शुड बी द डॉन्स' (सरगना हमें होना चाहिए)! 
विर्जिनिया का वह कॉलेज इतना ब्रितानी था कि हिन्दुस्तान के कलकत्ते के प्रेज़िडेन्सी कॉलेज की याद दिलाता था. हम ब्रिटिश से ज़्यादा ब्रिटिश ठहरे. फ़ोर पोस्टर बेड मैंने वहीं देखा, वह भी अपने कमरे में, जिस पर चढ़ने के लिए छोटी निसानी का इस्तेमाल करना पड़ता था. वहां से कोई कभी हिन्दुस्तान नहीं गया था. एक बन्दे को गेरुए कपड़ों में देखा तो सोचा वह गया होगा पर नहीं, वह वहीं रहते, बस बुद्ध से प्रभावित था.
2007 में जब विश्व हिन्दी सम्मेलन में गई तो नादिया तेसिच के साथ रॉक्ज़ान से भी सम्पर्क किया. वे अमरीका से बाहर थीं. ताउम्र उन्होंने गहरी निष्ठा से युरेशियन सहित्य पर काम किया था और अन्ततः 2014 में उनकी पुस्तक छप गई थी. उन्हें 2014 फिर एक बार मेल लिखा क्योंकि तब मैं एक क्रोशियन पत्रिका के लिए डुब्रोवनिक की 1988 की यादों पर लिख रही थी. मेरी तरह उन्हें भी भागीदारों के नाम नहीं मिले. तब उन्होंने मुझे यह मेल लिखी. "प्रियवर मृदुला, अन्ततः डुब्रोवनिक सम्मेलन इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि आपसे मिलना हुआ. आपने मुझ पर गहरा असर छोड़ा. मैं कितनी बार लोगों को बतला चुकी हूं कि आपने कहा था, आप कैमरा नहीं रखतीं; तस्वीरें न ख़ींचने की वजह से चीज़ों के ज़्यादा पहलू याद रख पाती हैं. मेरी अवांछित सर्जरी के दौरान जो सलाह आपने दी थी, वह भी याद है मुझे." 
मुझ पर भी रॉक्ज़ान ने गहरा असर छोड़ा था और उन जैसी चन्द औरतों की वजह से ही, डुब्रोवनिक सम्मेलन मुझे याद रह गया है. 
पहली विदेश यात्रा होने की वजह से मेरे लिए कुछ नई और रोचक बातें भी हुईं. मैं अपने साथ, दार्जीलिंग की चाय बगान से आई, उम्दा चाय ले गई थी. होटल में केतली तो थी नहीं पर दो दूधदान मुझे दे दिये गए; एक ख़ाली, दूसरा खौलते पानी से भरा. सुबह नाश्ते पर मैंने एक दूधदान में चाय पत्ती डाली, दूसरे का ख़ौलता पानी उसमें उडेला और सॉसर से ढक दिया. ऊपर अपना ऊनी स्टोल ओढ़ा दिया. कुछ देर में चाय तैयार थी. तब तक मेरे चारों तरफ़ काफ़ी औरतें जमा हो गई थीं. पटोला साड़ी में लैस में अकेली हिन्दुस्तानी, न जाने क्या जादू- टोना कर रही थी! अन्ततः एक औरत ने पूछा, "आप क्या कर रही हैं?"
"चाय बना रही हूं. पिएंगी?" 
"हम तो चाय सिर्फ़ बीमारी में पीते हैं."
"श…श... नागवार बात न कहिए, चाय का स्वाद बिगड़ जाएगा!" मैंने बेहद संजीदा आवाज़ में कहा.
अचानक मेरे सामने एक प्याला लहराया; हंसी से खनकती आवाज़ ने कहा, "मुझे दीजिए." मैंने चाय प्याले में डाल दी. उन्होंने चुस्की लेने को ओंठों की तरफ़ बढ़ाया तो मैंने कहा, "ध्यान से, बहुत गर्म है." उन्होंने चुस्की ली, हंस कर कहा, "वाक़ई! मैं अमरीका से केरन ब्लोमेन. इतनी बढ़िया चाय पहले नहीं पी." 
केरन कवि थीं, मशहूर नहीं पर बेहद ख़ुशमिज़ाज और पहली दुनिया की होने के ग़ुरूर से खारिज. तब तक कई औरतें प्याले कर आ गई थीं. चाय उडेल दी. सवालों की झड़ी लग गई. आप हिन्दुस्तान से चाय ले कर आई हैं? जी, मैं रद्दी चाय नहीं पी सकती. तो कॉफ़ी… जी, चाय का पर्याय नहीं है. कॉफ़ी यहां बढ़िया मिलती है …जी, जब धीरज से बनाई जाए, युरोप में मिलती है पर गर्म नहीं होती, अमरीका में बढ़िया बहुत कम मिलती है. सिर्फ़ गर्म होती है. केरन मेरी बगल की कुर्सी पर बैठ चुकी थी, प्याला दुबारा भर कर महक भीतर उतारती हुई बोली, "हेवेन (बहिश्त)! ऐसी चाय पियो तो बीमार पड़ो क्यों." बाक़ी औरतों ने कहा, "बेस्ट हॉट ड्रिन्क आई हेड (मेरा पिया सबसे बढ़िया गरम पेय) धत तेरे की!
केरन फिर हंस दी. ऊंट जैसी गर्दन ताने सम्मेलन की विदुषियों के सामने वह सकुचाई रहती थी, मासूम कवि ठहरी! पर साथ घूमने-फिरने के लिए एकदम आला साथी थी. यारबाश; न हेकड़ी, न पूर्वग्रह; एक के सिवा, अकड़ू मादा पंडितों से भगवान बचाये. हम साथ घूमे, कॉफ़ी पी, खाना खाया, मेरे समुद्री जन्तु न खाने पर, जो उनके लिए भोजन भर थे, अचरज नहीं दिखलाया, मीनू में दूसरे व्यंजन ढूंढने में मदद की. हमने हर तरह की बातें की पर रचना का ज़िक्र छिड़ने पर पंडिताई पर नहीं उतरे; ख़ुशदिल रचनाकार बने रहे. सफ़र में ऐसे लोगों का साथ सुकूनदेह होता है, अपने कहे हर वाक्य को तर्क से सही सबित करने की होड़ नहीं होती. तंज़ का, बतौर तंज़ आनन्द ले सकते हैं, यह साबित करने के चक्कर में पड़े बिना कि, मोहतरमा आप ने कहा, कोविड पर कविता न लिखें तो इसका मतलब हुआ, युद्ध पर भी न लिखें, कैन्सर पर भी न लिखें, एड्स पर भी न लिखें. मज़े में आकर आप कह दें, ओह तपेदिक, डेन्गू और न्यूमोनिया तो छूट ही गया तो वह गाज गिरे आपके सिर पर कि माईग्रेन होते होते बचे. केरन के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी. 
एक और बात मुझे नागवार गुज़रती थी. चार-पांच औरतें कॉफ़ी पीने कैफ़े में जातीं तो अपने बिल का अलग-अलग भुगतान करतीं. तब तो ठीक लगता जब कोई बहुत ज़्यादा खाता, कोई निहायत कम, यानी किसी का बिल बहुत होता, किसी का कम. पर जब सिर्फ़ एक कप कॉफ़ी के लिए भी वही मशक्कत की जाती और लोगों के पास दीनार की माक़ूल रक़म न होने और केफ़े के रेज़गारी देने से इन्कार करने पर, देर तक मगज़ खपाई होती तो हंसी आती और खीज भी. कई बार मैं कह उठती, "इस बार मैं दे देती हूं, अगली बार आप दे दीजिए." पर उन्हें गवारा न होता. केरन के साथ यह पेंच न था. कभी वह पैसे दे देती, कभी मैं. दो चार दीनार, इधर-उधर हो जाते तो क्या मुसीबत आ जाती! वैसे भी मुद्रा स्फ़ीति काफ़ी दीनार हड़पने वाली थी. 
आख़िरी शाम, वह भी देर रात खाने के वक़्त, संयोजकों ने मुझसे कहा, उन्हें मुझे कुछ मेहनताना और देना था और काफ़ी दीनार पकड़ा दिये. मैंने कहा, चलो मैं सभी भागीदारों को वाईन पिला रही हूं, अपने खर्चे पर. अब साहब, वहां यह कहने की बदतमीज़ी करनी पड़ती थी. मस्ती तो ख़ूब की हमने, पर वे इस हरकत पर ऐसे हैरान थे जैसे मैं कोई जागीर बांट रही हूं. बस केरन समझ रही थी कि वह एक विन्डफ़ॉल था, जिसे पा कर मैं शहंशाह महसूस कर रही थी. बाक़ी औरतों ने मुझे याद दिलाया कि मैं हवाई अड्डे पर खरीदारी कर सकती थी. मैंने भी सोचा हां, पर्फ्यूम और चोकलेट ख़रीद लूंगी. पर अगली सुबह हवाई अड्डे के लिए रवाना होने के साथ जो मुसलाधार बारिश शुरु हुई कि बमुश्किल वहां पहुंची. टेक्सी से घुटनों तक पानी में उतरी तो सूटकेस उठाये न उठा. वहां से लंदन जा रही थी, सो सूटकेस बड़ा था. हिन्दुस्तान की तरह, एक नाजायज़ कुली नमूदार हो गया और उसे बख्शीश दे, सूटकेस समेत शाही अंदाज़ में काउंटर पर पहुंच गई. पर वक़्त इतना कम बचा था कि कुछ चॉकलेट ही ख़रीद पाई, बाक़ी दीनार साथ हिन्दुस्तान पहुंच गये. अच्छा ही हुआ क्योंकि इत्तिफ़ाक़ से अगले बरस, आईसेक की तरफ़ से, अपु पूर्वी युरोप गया तो उसे दे दिये, हालांकि मुद्रा स्फ़ीति ने उनका मोल काफ़ी गिरा दिया था. फिर भी हम अंदाज़ नहीं लगा पाये कि युगोस्लाविया में हालात कितना हौलनाक मोड़ लेने वाले थे. वह तो बाद में नादिया तेसिच ने बतलाया.
बाक़ी की जो विदेशी नायाब औरतें याद हैं, उनका ताल्लुक डुब्रोवनिक से नहीं था. उनमें से कुछ सखियां बनीं, कुछ बनते-बनते रह गईं. 
1993 में मैं इन्टर्लिट 3 नाम के साहित्योत्सव में शिरकत करने जर्मनी गई. पहले एरलांगन नाम के कस्बेनुमा शहर में बैठक हुई, फ़िर बर्लिन में. वहीं मेरी मेक्सिको की लेखिका मोनिका मंसूर से मुलाक़ात हुई. कमाल की औरत थीं. कोई सतही या बेहूदा बात करता तो कहतीं, "उसका क़सूर नहीं है. बस उसका जन्म इतनी कम बार हुआ है कि परिष्कृत नहीं हो पाया, माफ़ कर देना चाहिए." फिर हम मिल कर ख़ूब हंसते. एरलांगन छोटा शहर था पर कमाल के फल मिलते थे वहां, मौसम भी वसंत का था. एक दिन लम्बी सैर के दौरान, बगानों के पास लगे फ़लों के बाज़ार में पहुंचे तो सभी ने ख़ूब फल ख़रीदे. सिवाय ख़ुशवंत सिंह के. उनकी कंजूसी का ज़ायका मैंने पहले दिन ही चख लिया था.
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साहित्य तक के बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' में सुनिए इसी पुस्तक पर वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय की राय. मृदुला गर्ग की 'वे नायाब औरतें' को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. कुल 440 पृष्ठ समेटे इस पुस्तक का मूल्य 495 रुपए है.

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मृदुला गर्ग की 'वे नायाब औरतें' कृति को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. कुल 440 पृष्ठ समेटे इस पुस्तक का मूल्य 495 रुपए है.

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