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बुक कैफे में आज 'मज़ाक़' | कुमार अम्बुज के कहानी-संग्रह पर जय प्रकाश पाण्डेय

हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि कुमार अम्बुज की विशेषता है कि चाहे गद्य हो या पद्य वे अपने लेखन में संघर्षशील मनुष्य की वैचारिक और सामाजिक लड़ाई के साथ खड़े होते हैं, और बौद्धिकता के साथ कलात्मक भाषा का दामन नहीं छोड़ते. उनका शिल्प अपने कथ्य की तरह ही अनूठा है....साहित्य तक के बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' में सुनिए 'मज़ाक़ः कुमार अम्बुज की कहानियाँ' पर वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय की राय

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साहित्य तक बुक कैफे में 'मज़ाक़ः कुमार अम्बुज की कहानियाँ' की जय प्रकाश पाण्डेय द्वारा समीक्षा
साहित्य तक बुक कैफे में 'मज़ाक़ः कुमार अम्बुज की कहानियाँ' की जय प्रकाश पाण्डेय द्वारा समीक्षा

जब ढह रही हों आस्थाएं
जब भटक रहे हों रास्ता
तो इस संसार में एक स्त्री पर कीजिए विश्वास
वह बताएगी सबसे छिपाकर रखा गया अनुभव
अपने अंधेरों में से निकालकर देगी वही एक कंदील
कितने निर्वासित, कितने शरणार्थी,
कितने टूटे हुए दुखों से, कितने गर्वीले
कितने पक्षी, कितने शिकारी
सब करते रहे हैं एक स्त्री की गोद पर भरोसा
जो पराजित हुए उन्हें एक स्त्री के स्पर्श ने ही बना दिया विजेता...यह कवि कुमार अम्बुज की एक कविता 'एक स्त्री पर कीजिए विश्वास' की चंद आरंभिक पंक्तियां केवल यह बताने-जताने के लिए यहां रखी गई हैं कि हमारे दौर का एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कवि जब गद्य के क्षेत्र में उतरता है, तब भी शब्दों के छोर से संवेदना के धागे ही बुनता-धुनता है. अब यह उसकी अपनी इच्छा है कि वह चाहे तो इतने गंभीर मानवीय मर्म-कर्म को भी 'मज़ाक़' का नाम दे दे.
'मज़ाक़' कुमार अम्बुज का दूसरा कहानी संग्रह है. इससे पहले 2008 में 'इच्छाएँ' नामक कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ था, जिस पर टिप्पणी करते हुए चर्चित और वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल ने लिखा था, "रचना-यात्रा के लिए आज भी हड़बड़ी में सामान बांधते समय मैं 'इच्छाएँ' साथ में रखूंगा, भले ही दो रोटी का टिफिन भूल जाऊं." यह यों ही नहीं कि कुमार अम्बुज समकालीन हिंदी साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में स्थापित हैं. उनके शब्द पिघले लोहे की मानिंद आंखों से होते हुए दिमाग तक पहुंचते हैं और स्मृतियों में कहीं ठहर जाते हैं. यह बात केवल उनके कविता-संग्रह 'किवाड़', 'क्रूरता', 'अनंतिम', 'अतिक्रमण', 'अमीरी रेखा' और 'उपशीर्षक' में शामिल कविताओं पर ही लागू नहीं होतीं, बल्कि 'इच्छाएँ' और 'मज़ाक़' पर भी सटीक बैठती हैं.  
अम्बुज की विशेषता है कि चाहे गद्य हो या पद्य वे अपने लेखन में संघर्षशील मनुष्य की वैचारिक और सामाजिक लड़ाई के साथ खड़े होते हैं, और बौद्धिकता के साथ कलात्मक भाषा का दामन नहीं छोड़ते. उनका शिल्प अपने कथ्य की तरह ही अनूठा है. जुलाई 2014 में 'अपनी बारिश के बीच' शीर्षक से लिखे उनके गद्य-लालित्य में गद्य-पद्य के बीच की आवाजाही कैसे ध्वस्त होती है, उसकी बानगी देखिए-
"कभी-कभी वह अपनी बारिश के बीच कहती है: तुम्हें भीगना आता है, बारिश में भीगना आता है. तुम बारिश में भीगते हुये इस कदर दुःसाहस करते हो कि हंसी आती है. तुम्हारी हंसी अच्छी है लेकिन बारिश भी तो एक हंसी है. तुम बारिश में खुद को बीमार कर लोगे. तुम इतने सालों से किस बारिश में भीग रहे थे? लगता है वह मज़ाक़ बना रही है, खिल्ली उड़ा रही है, अफ़सोस ज़ाहिर कर रही है, अपनी किसी स्वीकृति पर, किसी मौन पर और किसी हंसी पर पछता रही है. लेकिन वह बारिश में मेरे भीगने की लालसा समझती है. उस तक आँच पहुंचती है. वह वाष्पित हुये जल से बनी है. उस पर मैंने एक कविता भी लिखी है. थोड़ा-सा हिस्सा सुनाऊं!
बारिश मेरे चेहरे पर गिरती है 
बारिश गिरती है मेरे अगोचर में 
बारिश छूती है मेरी इंद्रियों को 
बारिश छूती है मेरी अतींद्रियों को 
धरती में जितने लवण और खनिज हैं 
और धातुएँ और अयस्क जितने 
वे जो मेरे रक्त की बूँद में आकर सांद्र हैं 
उन रक्त-समुद्रों में होती है बारिश
नसों-शिराओं के अक्षांशों-देशांतरों में झूमती 
मेरी अपनी ही बारिश की तरह!
जानता हूं कि बारिश को ठीक-ठीक, पूरा-पूरा किसी कविता में भी नहीं लिखा जा सकता. कहानी में तो कतई नहीं. वह गद्य के स्पर्श से विस्तृत और स्थूल हो जायेगी. या हो सकता है वह विवरण के किसी रेगिस्तान में ही विलीन हो जाये. जबकि उसके हर अंग से बारिश होती है. उन अंगों से भी जो मृत कोशिकाओं से बने हैं. उसके नाखूनों से. उसके रोंओं से. और पलकों से. सबसे ज्यादा उसके केशों से. जहां घने बादल रहते हैं, जहां से घटाएं उठती हैं और जल धूलकणों से लिपट जाता है. और वहां से जहां शहद भरे छत्ते हैं, लताएं हैं, पत्ते हैं और जहां फुलवारी है, फल पल्लवित हैं और जहां से बौछारें आती हैं. और वे जगहें जहां लगातार रिमझिम होती रहती हैं और उसके भीतर के वे बरामदे, जो हैं ही इसलिए कि वहां बैठकर भीगा जा सके और वे दिशाएं जहां से हहराकर पानी उठता है. और वहां से जहां लालिमा फैल गयी है. ऐसी तमाम जगहें जो किसी वर्णन में मुमकिन ही नहीं. उसके भीतर अंतर्धाराएं हैं. ऐसे स्रोत, जो कभी सूखते नहीं. अनगिनत अमर झरने हैं जो ज़रा से स्पर्श से ही प्रकट हो जाते हैं. उसके गोपनीय जलप्रपात भी कितने पारदर्शी हैं, कितने उजागर! वह बारिश है. अनंत बारिश..."
वे जब विश्व सिनेमा पर लिखते हैं, जो कि बहुधा उनके सोशल मीडिया पेज पर दिखता है, तो उसमें उनकी लेखकीय मेधा और विद्वता के साथ मनुष्यता के पक्ष में पगा शब्द-चयन झिलमिलाने लगता है. अम्बुज इस समय के साथ खड़ी सत्ता और अवसरवाद के विरुद्ध एक सशक्त आवाज़ हैं. विश्व पुस्तक मेला दिल्ली में हिंदी के तीन प्रतिनिधि युवा कथाकारों मनोज कुमार पांडेय, विमल चन्द्र पांडेय और संदीप मील ने जब उनके कहानी-संग्रह 'मज़ाक' का लोकार्पण किया था, तो विस्तार से इसके बारे में अपनी राय भी रखी थी.
कथाकार मनोज ने कहा था कि हिंदी में कवि-कथाकारों की प्रभावी कृतियों की अत्यंत सम्मानित परंपरा में कुमार अम्बुज का यह संग्रह भी रखे जाने योग्य है. मनोज ने 'मज़ाक़ः कुमार अम्बुज की कहानियाँ' को अज्ञेय, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय सरीखे कवि-कथाकारों की कहानी परंपरा का नया सोपान बताया, तो विमल चन्द्र पांडेय ने कहा था कि कुमार अम्बुज जिस ढंग से कहानी की रचना करते हैं, वह सिनेमेटोग्राफी जैसा है, उनके कथा संसार के रंग अत्यंत गहरे और प्रभावशाली हैं. मील का कहना था कि विचारधारा और कला के सुंदर संयोजन से कुमार अम्बुज की कहानियां निर्मित होती हैं. उसी अवसर पर वरिष्ठ लेखक डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा कि एक दिन मन्ना डे जैसी कहानी कोई विरल प्रतिभा ही लिख सकती है. उन्होंने मज़ाक़ संग्रह में छपी कुछ कहानियों को अपने समय के भयावह यथार्थ का प्रामाणिक अंकन बताया.
अम्बुज को कविता के लिए 'भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार', 'माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार', 'श्रीकांत वर्मा पुरस्कार', 'गिरिजा कुमार माथुर पुरस्कार', 'केदार सम्मान' और 'वागीश्वरी पुरस्कार' से सम्मानित किया जा चुका है. 
आज के क्रूर सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में पैरों तले की जिस ज़मीन को लगातार हमसे छीना जा रहा है, उसे फिर से पा लेने की शाश्वत आकांक्षा अम्बुज की इन कहानियों का अनुपेक्षणीय स्वर है. ये कहानियां चारों तरफ़ से घिरे मनुष्‍य के संकटों, उसकी रोज़मर्रा की दारुण सच्‍चाइयों को पठनीय रूपकों, अनोखे मुहावरों में रखते हुए जिजीविषा के सर्वथा नये रूपों से हमारा परिचय कराती हैं. आज संसार में निजी एकांत तलाशने, धरना देने हेतु जगह मांगने या जीवन में खोया विश्वास जगाने, संबंधों में प्रेमिल चाह या कोई सहज मानवीय इच्‍छा भी किस कदर दुष्‍कर, प्रहसनमूलक और अव्यावहारिक हो चली है, इस विडंबना को संग्रह 'मज़ाक़ः कुमार अम्बुज की कहानियाँ' से बखूबी समझा जा सकता है. 
वाकई इस संग्रह की कहानियों के कथ्य भर से ही नहीं बल्कि इनकी विधा, शिल्प और भाषा सभी से अम्बुज चौंकाते हैं. 
"यातना की, क्रूरता की गवाही नहीं है उनके पास, 
लेकिन स्मृति है...
                                                         अंत में वे 
अपनी त्रासदियाँ किसी कहानी की तरह सुनाते हैं." 

इस संग्रह का वह प्रथम पृष्ठ है, जो विनोद कुमार शुक्ल और चंद्रकांत पाटील के लिए उनके समर्पण के तुरंत बाद आता है. स्फटिक और पंचतंत्र नामक दो खंडों में उनका यह अद्भुत गद्य-कथ्य संग्रह बंटा है.  स्फटिक में- 'गुम होने की जगह', 'मज़ाक़', 'मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा', 'जीभी', 'स्फटिक', 'घोंघों को तो कोई भी खा जाएगा', 'स्वर्ण कमल', संसार के आश्चर्य', 'वस्तु बाज़ार', 'जीवितों के पिरामिड' और 'मंदिर चौराहा' तथा पंचतंत्र में- 'अनशन की जगह', 'एक दिन तुम कुछ खो दोगे', 'जैसे 1970', 'पंचतंत्र', 'एक और जोड़ी' और 'स्वप्न में बारिश' जैसी रचनाएं आपको लंबे समय तक अपने साथ बांधे रखती हैं. 
सुनिए बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय ने संग्रह 'मज़ाक़ः कुमार अम्बुज की कहानियाँ' पर जो कहा. 126 पृष्ठों के इस संग्रह को राजपाल एंड संस ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य 235 रुपए है.    
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# 'मज़ाक़ः कुमार अम्बुज की कहानियाँ' के प्रकाशक हैं राजपाल एंड संस. 126 पृष्ठों के इस संग्रह का मूल्य है 235 रुपए.  

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