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बुक कैफे में आज 'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ' | जेपी दास के कथा-संग्रह पर जय प्रकाश पाण्डेय

भारतीय साहित्य जगत के उर्वर आकाश में जगन्नाथ प्रसाद दास की अपनी व्याप्ति है. दास पिछले पांच से भी अधिक दशक से देश के सृजनात्मक, साहित्यिक परिदृश्य पर छाए हुए हैं. हिंदी में प्रभात प्रकाशन से उनकी कृति 'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ' नाम से प्रकाशित हुई है, जिसका ओड़िया से हिंदी अनुवाद सुजाता शिवेन ने किया है...साहित्य तक के बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' में सुनिए इसी पुस्तक पर वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय की राय

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जगन्नाथ प्रसाद दास का सुजाता शिवेन द्वारा अनूदित कथा संग्रह 'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ'
जगन्नाथ प्रसाद दास का सुजाता शिवेन द्वारा अनूदित कथा संग्रह 'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ'

जब तुम मेरे सपने से 
किसी दूसरे के सपने में चली जाओगी 
मैं लौट जाऊंगा 
अपने एकांत में 
जहां मैं निरंतर प्रतीक्षारत हूं 
जब तुम मेरे अनुभव से 
किसी दूसरे के अनुभव में चली जाओगी 
मैं लौट जाऊंगा 
अपने सपनों के अमरत्व में 
जहां कोई प्रतीक्षा 
नहीं हुआ करती... ओड़िया ही नहीं वरन भारतीय साहित्य जगत के यशस्वी हस्ताक्षरों में से एक जगन्नाथ प्रसाद दास की यह कविता उनके कोमल मन की एक बानगी भर है. भारतीय साहित्य जगत के उर्वर आकाश में जगन्नाथ प्रसाद दास की अपनी व्याप्ति है. एक लेखक, कवि, नाटककार, उपन्यासकार, चित्रकार, कला मर्मज्ञ, अभिनेता और आंदोलकारी या कि जागरूक नागरिक के रूप में जेपी दास पिछले पांच से भी अधिक दशक से वह देश के सृजनात्मक, साहित्यिक परिदृश्य पर छाए हुए हैं. ओड़िया के इस समृद्ध रचनाकार की रचनाएं हिंदी जगत में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं. हाल ही में उनका ओड़िया से हिंदी में अनूदित कहानी-संग्रह 'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ' नाम से प्रकाशित हुआ है, जिसका अनुवाद चर्चित अनुवादक सुजाता शिवेन ने किया है. 
'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ' कई तरह से दास की रचनाओं का अनूठा संकलन है. इसकी वजह यह है कि ओड़िया-हिंदी की सुधी अनुवादक शिवेन ने ओड़िया साहित्य के दीर्घकालीन अध्ययन के दौरान डेढ़ से भी अधिक दशक में दास की इन कहानियों को चुना और उन पर उनकी सहमति ली. कुछ का चयन स्वयं दास ने किया है. संकलन में कुल 11 कहानियां शामिल हैं. मानवीय संबंध इनका मूल है, तो समय, समाज और परिस्थितियां इनकी वाहक. दास अपनी कहानियों में मानव मन के कोमल तंतुओं के साथ उसकी आकांक्षाओं, सपनों और सुख की तलाश का एक संसार रचते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मानवीय संबंध मनुष्य के जीवन की तरह ही काफी जटिल हैं, सहज नहीं. यहां तक कि अकसर ये सीमाबद्ध भी हैं और दुःखप्रद भी. लेकिन इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये तब सबसे अधिक दृढ़ होते हैं, जब उनके विरोधाभास अधिकतम होते हैं, और जिनके न होने पर वे समाप्त हो जाते हैं. 
इन कहानियों की विशेषता यह भी है कि ये नैदानिक और अलग-अलग विवरणों से शुरू होती हैं, लेकिन किसी बिंदु पर, अनजाने उनका मूड बदल जाता है और वे पाठक को एक अज्ञात क्षेत्र में ले जाती हैं, जहां अनसुलझे रिश्तों और रहस्यों की छाया में पाठक खुद को खोजता है.
जेपी दास का जन्म 26 अप्रैल, 1936 को पुरी जिले के बानपुर में श्रीधर दास और इंदु देवी के घर हुआ. उनके पिता श्रीधर दास, प्रख्यात साहित्यकार थे और बानपुर हाई स्कूल में अध्यापक थे. दास की प्रारंभिक शिक्षा वहीं हुई. बाद में जब पिता श्रीधर की नियुक्ति 1948 में क्राइस्ट कॉलेज कटक में प्रोफेसर के रूप में हुई तो परिवार वहां चला गया. जेपी दास ने वहीं मिशन स्कूल, जिसे बाद में क्राइस्ट कॉलेजिएट स्कूल कहा गया में दाखिला लिया और वहां से 1951 में मैट्रिक की परीक्षा पास की. 1953 में उन्होंने क्राइस्ट कॉलेज से कला में इंटरमीडिएट और 1955 में रेवेन्सा कॉलेज कटक से कला स्नातक (ऑनर्स) किया. वह एक बेहद प्रतिभाशाली छात्र थे, जिन्होंने सभी परीक्षाओं में उच्च रैंक प्राप्त किया.  राजनीति विज्ञान में मास्टर ऑफ आर्ट्स करने के लिए इलाहाबाद चले गए और 1957 में सफल उम्मीदवारों की सूची में शीर्ष स्थान पर रहे. बाद में कला-इतिहास में उन्होंने पीएच.डी की उपाधि हासिल की.  
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के रूप में एक संक्षिप्त शिक्षण कार्य के पश्चात दास का चयन 1958 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो गया. बतौर आईएएस उन्हें ओड़िशा कैडर आवंटित किया गया. उनकी प्रारंभिक पोस्टिंग राउरकेला में अनुमंडल अधिकारी के रूप में हुई. बाद में ओड़िशा सरकार के कई विभागों में रहे, और अलग-अलग समय पर निर्माण और परिवहन, उद्योग और वित्त विभागों के सचिव रहे. 1973 में वे केंद्र सरकार की  प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली चले आए और वाणिज्य और वित्त मंत्रालयों में काम किया. 1976 में उन्होंने भारतीय लोक प्रशासन संस्थान से एम.फिल. किया और शोध के लिए होमी भाभा फेलोशिप ली. फेलोशिप के बाद वे दिल्ली में ओड़िशा सरकार के स्थानीय आयुक्त के रूप में नियुक्त हुए जहां से उन्होंने 1984 में समय से पहले सेवानिवृत्ति ले ली. सेवानिवृत्ति लेने के बाद उन्होंने दिल्ली में बसने का विकल्प चुना है और शहर के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में एक बेहद सक्रिय व्यक्ति के रूप में प्रभावी हो गए.
दास के कई काव्य-संग्रह, नाटक, कहानी और उपन्यास प्रकाशित हुए. काव्य-संग्रह 'जे जहर निर्जनता' के लिए उन्हें 1975 का ओड़िशा साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, तो 'आह्निक' पर वर्ष 1991 का केंद्रीय 'साहित्य अकादेमी पुरस्कार', 'प्रिया विदुष्का' के लिए वे 1998 में ओड़िशा के सर्वाधिक प्रतिष्ठित सारला पुरस्कार से सम्मानित हुए तो 'परिक्रमा' पर वर्ष 2006 का 'सरस्वती सम्मान' उन्हें मिला. दास राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह तथा अंतर्राष्ट्रीय बाल फ़िल्म समारोह की जूरी सदस्य रह चुके हैं. 
ओड़िया के बहुचर्चित रचनाकार दास मूलत: कवि, नाटककार हैं, पर कला और फ़िल्मों में भी उनकी गहरी अभिरुचि है. दास की सबसे शुरुआती कविताओं में से एक 1949 में प्रतिष्ठित ओड़िया साहित्यिक पत्रिका कुमकुम में प्रकाशित हुई थी, जब वे तेरह साल के थे. 1951 में उनकी 39 कविताओं का संग्रह 'स्तबका' नाम से प्रकाशित हुआ. स्तबका का अर्थ है 'गुलदस्ता', पर दास अपनी इन रचनाओं से संतुष्ट नहीं हुए और इन्हें अपरिपक्व करार दिया. उनका अगला संग्रह 'प्रथम पुरुष' 1971 में लगभग बीस साल के अंतराल पर प्रकाशित हुआ, और इसके साथ ही वे भारतीय साहित्य के आकाश में छा गए. दास कविता को ही अपना पहला प्यार मानते हैं. वह यह भी कहते हैं, "मैं जो कहना चाहता हूं, मुझे कविता में कहने दो."
1980 में दास ने अपनी पहली लघु कहानी लिखी. इस कहानी ने अपने विषय की नवीनता के साथ-साथ ओड़िया कथा जगत में एक नई शैली और भाषा के उपयोग के चलते तेजी से कथा प्रेमियों और आलोचकों का ध्यान आकर्षित किया. तब से दास ने कविता और गद्य के बीच बारी-बारी से काम करना जारी रखा. बहुतेरे नाटक, आलोचना, कला समीक्षा लिखी. 
 मौरिसियो डी. एगुइलेरा लिंडे के अनुसार, "उनकी कहानियां भारत का एक नक्शा तैयार करती हैं, जिससे निर्विवाद श्रेणियां, व्यापक रूप से स्वीकृत मान्यताएं और राष्ट्रीय पहचान से जुड़ी परंपराएं ध्वस्त हो जाती हैं... प्रतीत होता है कि उनकी कहानियां एक गहरा, अस्थिर अर्थ प्राप्त करती हैं... दास के चरित्र इस दावे को फिर से मान्य करते हैं कि किसी के सांस्कृतिक स्थान का प्रामाणिक पुनर्विनियोग हमारे समय के सबसे महत्त्वपूर्ण अधूरे एजेंडा में से एक है.
उनके इस अनूठे कथा-संग्रह 'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ' के पात्र एक-दूसरे में सूक्ष्म रूप से चरणबद्ध हैं. इन कहानियों की एक विशेषता- विस्तार की धीमी पर जानबूझकर की गई वृद्धि है, जो पाठक को बेदम और अधीर बनाने के लिए पर्याप्त है. ये अपने अनूठे शिल्प और कथानक के साथ पाठकों को अपरिहार्य चरमोत्कर्ष पर ले जाती हैं, जिससे वह कहानी-दर-कहानी राहत तो पाता है, पर अंततः अतृप्त रह दूसरी कहानी की ओर आगे बढ़ जाता है. और इसीलिए आज साहित्य तक के बुक कैफे के 'एक दिन एक किताब' कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय ने जगन्नाथ प्रसाद दास के कहानी संग्रह 'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ' की चर्चा की है. प्रभात प्रकाशन के सहयोगी उपक्रम ज्ञान विज्ञान एजूकेयर से प्रकाशित इस कहानी-संग्रह का हिंदी अनुवाद सुजाता शिवेन ने किया है. 176 पृष्ठों के इस संग्रह का मूल्य 400 रुपए है. 
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# जगन्नाथ प्रसाद दास के कहानी संग्रह 'इंद्रधनुष और अन्य कहानियाँ' का हिंदी अनुवाद सुजाता शिवेन ने किया है. प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित 176 पृष्ठों के इस संग्रह का मूल्य 400 रुपए है.   

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