अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के ऐसे नक्षत्र हैं, जिनकी चमक को पूरी दुनिया ने देखा और सराहा. भारतीय संसद में अब तक उनके विचारशील व्याख्यानों की गूंज कायम है. यही नहीं पाकिस्तान भी जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ उनकी द्विपक्षीय वार्ता या फिर दोनों देशों के बीच बस-यात्रा की शुरुआत को भूला नहीं है. अमेरिका हो या ब्रिटेन, संयुक्त राष्ट्र हो या पड़ोसी देशों के लिए 'लुक ईस्ट पालिसी', उनके कूटनीतिक प्रयासों और गर्मजोशी भरी यात्राओं को अब भी देश और दुनिया ने याद रखा है... तो कुछ तो विशेष बात होगी उनमें. चाहे 1957 में भारतीय संसद में हिंदी में दिया गया युवा सांसद वाजपेयी का पहला भाषण हो या बतौर विदेशमंत्री संयुक्त राष्ट्रसंघ में हिंदी में दिया गया वक्तव्य, वाजपेयी जब भी बोलते श्रोताओं के दिल में उतर जाते. इसीलिए अचरज नहीं किशोरवय के 'हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय' कविता से लेकर प्रौढ़ उम्र में 'क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथ पर....' जैसी कविताओं का उनका पाठ उनके लिए सियासत से अलग भी एक प्रशंसक वर्ग खड़ा करता रहा.
भारतीय राजनीति को अटल बिहारी वाजपेयी ने लंबे अरसे तक अपनी प्रभावी उपस्थिति से सराबोर रखा. यह यों ही नहीं है कि उनके धुर विरोधी भी उन्हें एक 'बुरी पार्टी में अच्छा आदमी' करार देते थे... शायद इसीलिए जानीमानी पत्रकार, स्तंभकार और लेखक सागरिका घोष ने अंग्रेजी में 'ATAL BIHARI VAJPAYEE' नाम से एक पुस्तक लिखी, जो जगरनॉट से प्रकाशित हुई है. घोष इस पुस्तक के लेखन क्रम में वाजपेयी के कई करीबी लोगों से मिलीं और ग्वालियर के एक मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार के लड़के के देश की कार्यपालिका के सर्वोच्च पद, 'प्रधानमंत्री' बनने तक की उसकी यात्रा का बेहद तथ्यात्मक और रोचक विवरण दर्ज किया. घोष इस पुस्तक के माध्यम से वाजपेयी की जीवन-यात्रा, उनके संघर्षों की कहानी तो बताती ही हैं, यह भी बताती हैं कि वाजपेयी ने कैसे अपनी इस महत्वाकांक्षा को हासिल किया, कैसे वह पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैर-कांग्रेसी प्रधान मंत्री बने, कैसे उन्होंने भाजपा के राजनीतिक प्रभुत्व का मार्ग प्रशस्त किया.
इस पुस्तक में घोष बताती हैं कि कैसे अटल बिहारी वाजपेयी मंत्रमुग्ध करने वाले वक्ता, गठबंधन निर्माता, बुद्धिमान राजनेता, परोपकारी, पिता-तुल्य पथ प्रदर्शक के साथ-साथ एक उत्कट प्रेमी थे और यह उनका साहस ही था कि उन्होंने अपने कॉलेज के प्रेम को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव के बावजूद ताउम्र न केवल कायम रखा, बल्कि संबंधों और सियासत के संतुलन का एक अप्रतिम उदाहरण कायम किया. वाजपेयी सही मायनों में अंतर्विरोधों का बंडल थे. वे नेहरू युग और नरेंद्र मोदी के वर्षों के बीच एक सेतु का प्रतिनिधित्व करते हैं. वे हिंदुत्व के वफादार और उदार मध्यमार्गी दोनों थे; वाकपटु कवि और निर्दयी राजनीतिक रणनीतिकार; शुद्धतावादी संघ परिवार के वफादार ऐसे सदस्य, जिन्होंने अपने अपरंपरागत निजी जीवन को कभी नहीं छिपाया. जिस राजनीतिक नेता को उनके विरोधियों ने भी सम्मान दिया, वह- अपनी सभी खामियों और कमजोरियों के साथ- यकीनन भारत के सबसे प्रिय प्रधानमंत्री बन गए.
गहराई से शोध के साथ सृजित, और उनके करीबी विश्वासपात्रों की नई अंतर्दृष्टि और उपाख्यानों के साथ, यह पुस्तक अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन और राजनीति का सबसे बड़ा शब्द-चित्र है, जो यह बताती है कि वाजपेयी के राजनीतिक जीवन ने न केवल हिंदुत्व की राजनीति को विकसित किया, बल्कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के दौर वाले भारत के एक मामूली, नौसिखुआ खिलाड़ी को कालांतर में देश की एक विशाल सत्तासीन पार्टी का मुखिया, और अंततः उसे देश का प्रधानमंत्री बनने में मदद की. घोष साल 2004 में 'शाइनिंग इंडिया' के नारे तले समय से पहले हुए आम चुनावों में भाजपा की करारी हार के बाद उस तपती दोपहरी के अंधेरे में बदल जाने के उदास माहौल से अपनी पुस्तक की शुरुआत करती हैं, और बहुत करीने से यह बताती हैं कि किस तरह वाजपेयी की छठीं इंद्री समय से पहले लोकसभा चुनाव कराने के खिलाफ थी. बाद के अध्यायों में घोष ग्वालियर के एक बच्चे के स्कूली दिनों, संघ की शाखाओं में प्रवेश और ओजपूर्ण कविता के बूते तरक्की करते युवा की 1924-1957 की जीवन यात्रा का विवरण देती हैं और इस बात का भी उल्लेख करती हैं कि कैसे अटल बिहारी वाजपेयी के पिता संघ से उनके जुड़ाव को नापसंद कर रहे थे.
1957 से 1971 तक अटल बिहारी वाजपेयी के जीवन को घोष ने 'केसरिया नेहरू का उभार' अध्याय के तहत रखा है. वे बताती हैं कि किस तरह जिस दिन से अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में प्रवेश किया, उसी दिन से उनकी महत्त्वाकांक्षा अपनी पार्टी को कांग्रेस के मुकाबले एक राष्ट्रीय विकल्प बनाने की थी, और वाजपेयी इसमें कामयाब भी रहे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बलराज मधोक, पंडित दीनदयाल उपाध्याय के साथ वाजपेयी के उदार हिंदुत्व के उभार और मुसलमानों को लेकर स्वयंसेवक संघ और तबके उसके राजनीतिक घटक जनसंघ की नीतियों की भी चर्चा इसी अध्याय में है. घोष बताती हैं कि किस तरह वाजपेयी ने पहली बार तीन जगहों से चुनाव लड़ा था और केवल एक सीट पर बमुश्किल कुछ हजार वोटों से महज इसलिए जीत हासिल की थी कि कांग्रेस ने उस सीट पर एक मुसलिम उम्मीदवार को चुनाव लड़ाया था. 1971-1980 तक इंदिरा गांधी से संघर्ष वाले अध्याय में इंदिरा गांधी के उभार, उनकी नीतियों से संघर्ष, आपातकाल, सत्ता में भागीदारी, दोहरी सदस्यता विवाद, जनता पार्टी का विभाजन, भारतीय जनता पार्टी का उदय और पुनः इंदिरा गांधी की वापसी के बाद 1980 से 1989 के सालों में वाजपेयी के उदर गांधीवादी समाजवाद के गलत साबित होने की गाथा लिखी है. भाजपा के दो सीटों तक सिमट आने के उल्लेख के बीच उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के कट्टर हिंदुत्व के उभार, राम रथ यात्रा के प्रभाव को 1989 से 1996 साल वाले अध्याय में रखा है. 1996-1999 के बीच वाजपेयी के करिश्माई प्रभाव और 1999-2002 के बीच दबंग वाजपेयी का उल्लेख करते हुए घोष यह भी उजागर करती हैं कि किस तरह अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद न केवल कट्टर हिंदुत्व को हाशिए पर रखा, बल्कि सही मायनों में संघ को भी अनदेखा किया. वह कहती हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पूरे देश के प्रधानमंत्री के रूप में काम किया, न कि किसी दल, धर्म या बिरादरी के नेता के रूप में...
2002 से 2004 के समय को घोष वाजपेयी के पराभव की शुरुआत वाले अध्याय में समेटती हैं और गोधरा की हिंसात्मक घटना के बाद गुजरात में हुए दंगों के दौरान तब के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की भूमिका और उस पर अटल बिहारी वाजपेयी की सोच को बहुत गंभीरता से दर्ज करती हैं. इसी दौरान लालकृष्ण आडवाणी के उप-प्रधानमंत्री बनने, संघ के घटकों द्वारा वाजपेयी पर खुलेआम हमला बोलने और चाहकर भी गुजरात की तब की सरकार को बर्खास्त न कर पाने की वाजपेयी की बेबसी का उल्लेख करती हैं. आखिरी का अध्याय वाजपेयी की कॉलेज की दोस्त राजकुमारी हक्सर के राजकुमारी कौल बनने के बावजूद उनसे आजीवन रिश्ते की गाथा है. इस पुस्तक में कई मजेदार निष्कर्ष भी घोष ने निकाले हैं कि किस तरह वाजपेयी के सारे दोस्त ब्राह्मण थे, किस तरह उन्होंने मिसेज कौल के परिवार को अपना लिया और उनकी पुत्री और दामाद उनके अपने ही बेटी दामाद रहे.
घोष की पुस्तक ATAL BIHARI VAJPAYEE 'नरम और उदार हिंदुत्व' के नायक देश के तीन-तीन बार प्रधानमंत्री रहे ऐसे व्यक्ति की दास्तान भी है, जिसकी जीवंतता, साहित्य, वाणी का ओज आखिर में खो गया. जो कभी भी 2004 की अपनी हार को भुला नहीं सका, कि उन्हें हमेशा यह लगता रहा कि उन्होंने गुजरात की तब की नरेन्द्र मोदी की अगुआई वाली राज्य सरकार को बर्खास्त न करने की कीमत चुकाई. वाजपेयी जीवन के आखिरी दिनों में अपने आपमें एकाकी, थके, पस्त और पराजित हो गए थे, जिसकी कीमत उनके स्वास्थ्य ने चुकाई. अंततः उनकी विस्मृति का आलम यह हुआ कि कई सालों तक वाजपेयी को खुद अपना, अपनी स्थिति का भान भी नहीं होता था. उन्होंने लोगों को, यहां तक कि अपने उस प्रेम को भी पहचानना बंद कर दिया था, जिसके लिए वे सारे जग से भी जूझ सकते थे. सागरिका घोष की भाषा बहुत प्रवाहमय है और यह काबिलेतारीफ है कि उन्होंने इसे अपनी विद्वता के पुट या भाषा ज्ञान से बोझिल नहीं किया है. इसे अंग्रेजी पढ़ने और समझने वाला कोई भी व्यक्ति पढ़ सकता है, और अटल बिहारी वाजपेयी के जीवनकर्म के बहाने भारतीय लोकतंत्र की महान राजनीतिक घटनाओं को समझ सकता है. यह पुस्तक यह भी बताती है कि भारत जैसे विशाल देश को तरक्की के लिए वाजपेयी की समावेशी नीतियों और उदार दृष्टि की कितनी जरूरत है.
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पुस्तकः ATAL BIHARI VAJPAYEE
लेखकः सागरिका घोष
भाषाः अंग्रेजी
विधाः जीवनी
प्रकाशकः जगरनॉट
पृष्ठ संख्याः 432
मूल्यः 799 रुपए
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