ठीक से याद नहीं कि मनोज दास से पहली मुलाकात कब हुई थी. पर जगह याद है, दक्षिणी दिल्ली का श्री अरबिंद आश्रम. उन्हें कहीं व्याख्यान के लिए निकलना था, पर हमारे पहुंच जाने से वह रुके. मेरे लिए नहीं बल्कि ओड़िआ व हिंदी की नामचीन अनुवादक सुजाता शिवेन के लिए. चेहरे पर स्मित मुस्कान, सफेद कुर्ता पायजामा, दैवी आभा से युक्त. आवाज बेहद मधुर, पर स्पष्ट. पहली सफाई, हिंदी न आने को लेकर थी. ओड़िआ या फिर अंग्रेजी में बातचीत आगे बढ़ी. उस समय तक मैंने उनका केवल एक उपन्यास 'अमृत फल' पढ़ा था, वह भी हिंदी में. अनुवाद स्तरीय न होने पर भी इस उपन्यास का कथानक ऐसा था, कि आप उनके मुरीद हुए बिना नहीं रह सकते थे. कोई कैसे अतीत को वर्तमान से जोड़कर रच सकता है ऐसी कृति?
'अमृत फल' का कथानक जितना सरल था, उसका मर्म उतना ही दार्शनिक. राजा भर्तृहरि की प्रचलित किंवदंती को उन्होंने नए ढंग से न केवल विश्लेषित किया था, बल्कि वर्तमान के पात्र गढ़कर समकालीन बना दिया था. कहानी पुरानी थी, पर अर्थ और संदर्भ नया. शिल्प व शैली इतनी अधुनातन कि 'अमृतफल' पर उन्हें सरस्वती सम्मान मिला. उज्जयिनी के आमोदप्रिय और लोकप्रिय राजा भर्तृहरि को एक योगी ने एक अमृतफल दिया. दीर्घजीवन और यौवन प्रदान करने के साथ ही मृतसंजीवनी उसका गुण था. राजा ने वह फल अपनी बेहद प्रिय छोटी रानी को दे दिया. पर तीन दिन बाद वही फल नगर की एक सुंदर नर्तकी के पास से पुन: राजा के पास लौट आया. नर्तकी ने फल का महत्त्व बताते हुए राजा भर्तृहरि को गोपनीय ढंग से भेंट दे दी. राजा को अचरज हुआ कि यह अनन्य फल जिसे उन्होंने अपनी रानी को दिया था, आखिर नर्तकी तक कैसे पहुंचा? जांच से जो पता चला, वह अत्यंत विमर्षकारी था.
राजा भर्तृहरि ने प्रेम के चलते जिस अमृत फल को छोटी रानी को दिया था, उन्होंने वही फल अपने प्रेमी युवक अमात्य को दे दिया. अमात्य राज्य की एक नर्तकी पर फिदा था, इसलिए उसने वह उपहार अपनी प्रेयसी नर्तकी को दे दिया. नर्तकी को लगा, न जाने किस पाप से मैं इस कर्म में हूं. क्यों न मैं इसे राज्य के कल्याणकारी, पुण्यात्मा राजा को दे दूं, जिससे पूरे राज्यवासियों का भला हो. और इस तरह वह फल वापस राजा के पास पहुंच गया. राजा भर्तृहरि की चेतना इस घटना से हिल गई. वह सोचने लगे आखिर अपनी धारणा पर कहां तक निर्भर किया जा सकता है? मनोगत और भागवत धारणा के अंतराल में रहने वाला सत्य सम्भव है क्या? परेशान राजा ने शासन का दायित्व अपने अनुज विक्रमादित्य को सौप कर परिव्रज्या व्रत ले लिया. भर्तृहरि के समय के बारे में इतिहासकारों में बहुत मतभेद है. ई.पू. पहली सदी का समय मनोजदास ने स्वीकार किया. तब तक श्रीमद्भगवद्गीता, महाभारत के अंश रूप में प्रचलित नहीं हुई थी. भर्तृहरि पहले कवि और कुछ दिन बाद योगी बन गए. उन्होंने 'श्रृंगार शतकम्', 'नीतिशतकम्' और 'वैराग्यशतकम्' जैसी कृतियों की रचना की.
महान राजा भर्तृहरि के बारे में प्राचीन किंवदंती का मर्म यही है. हालांकि इसकी कई कहानियां प्रचलित हैं. एक कहानी के अनुसार उक्त रानी का नाम था पिंगला. दूसरी कथा के अनुसार- पिंगला पहली रानी थी -जो शिकार के समय राजा की मृत्यु की झूठी खबर पाकर तुरन्त प्राणशून्य हो गई. जिस रानी के चलते राजा का वैराग्य हुआ, उनका नाम सिन्धुमती था. मनोज दास ने दूसरी कहानी को ही अमृतफल का विषय बनाया, जिसका संधान अजीब रूप में उन्हें एक दिन हरिद्वार में चिन्हित भर्तृहरि गुफा से मिला. बाद में उज्जयिनी के उपकंठ में भर्तृहरि गुफा के दर्शन और वहां कुछ समय निमग्न रहने के बाद उन्होंने एक दिन रानी सिन्धुमती के आचरण की व्याख्या की और उन्हीं के शब्दों में, "सच मानो महाकाल में अगणित अप्रकाश्य तथ्यों में से एक- लेखक की चेतना में उद्भासित हुई. लिखने को जब प्रस्तुत हुआ, अप्रत्याशित रूप में प्रेरणावलय में चले आए अपरिचित पर अति परिचित अमरनाथ. उनके पीछे उनकी बेटी मनीषा. अमरनाथ को टालने की चेष्टा करके भी, नहीं टाल सका. मानो वे कह रहे थे- मैं वर्तमान हूं, मेरे बिना किस आंख से अतीत को देखने की शक्ति आयत्त कर सकोगे? उपन्यास लिख रहा हूं या कुछ और, इसकी परवाह नहीं की. कभी-कभी लगा यदि प्रायोपन्यास -उपन्यास जैसा कथा साहित्य- की कोई विधा होती, तो यह उसी में आता."
'अमृत फल' उपन्यास के लिए मनोज दास को सरस्वती सम्मान मिला. हालांकि वह सभी सम्मानों से ऊपर थे. उनके पास एक विश्व-दृष्टि थी, जो आश्चर्यजनक रूप से आध्यात्मिकता से भरी थी. उन्होंने अपना जीवन श्री अरबिंदो आश्रम पुदुच्चेरी के लिए समर्पित कर दिया था. मुझे अचरज था और उनसे जब भी मुलाकात होती, सवाल यही होता कि इतनी समृद्ध भाषा और दुनिया भर में प्रशंसक पाठकों के बावजूद वह पूरी तरह लेखन को समर्पित क्यों नहीं होते? उनका उत्तर होता - मैं अब महर्षि अरविंद और श्री मां को समर्पित हूं. हालांकि यह भी एक सच है कि वह शब्द, लेखन और अपने प्रशंसक पाठकों से दूर कभी भी नहीं रहे. अपनों के लिए महज एक कॉल पर हमेशा उपलब्ध. बेहद सहज और सरस.
आज जब कोरोना महामारी में पूरी दुनिया त्राहि-त्राहि कर रही, तब वर्ष 2010 श्री अरबिंद आश्रम दिल्ली में 'भविष्य के लिए प्रस्तावना' विषय पर दिए गए मनोज दास के व्याख्यान की कुछ पंक्तियां याद आ रहीं. उन्होंने कहा था - "आज का आदमी अपने वर्तमान से इतना प्रभावित है कि भविष्य उसकी दृष्टि के पर्दे के पीछे रहता है. वह भविष्य के बारे में सोचने के लिए तैयार नहीं है क्योंकि उसे लगता है कि यह बहुत अनिश्चित है, और यहां तक कि थोड़ा भीतर का विचार पिछले बोझ की यादों को खो देता है. पीड़ा और मुसीबतों के साथ. 20वीं शताब्दी की शुरुआत इस नई आशा के साथ हुई थी कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी पृथ्वी पर एक स्वर्ग स्थापित करेगी, और यह भी कि लोकतंत्र और समाजवाद के महान आदर्श मनुष्य की दासता को समाप्त कर देंगे. लेकिन आज हम देखते हैं कि इनमें से अधिकांश उम्मीदें पूरी नहीं हुई हैं और मनुष्य अभी भी पहले की तरह दुखी रहता है. वास्तव में, मनुष्य की खुशी की खोज उसे नई जरूरतों की ओर ले जाती है, जो उन व्यापारियों द्वारा बनाई जा रही हैं जो अपने माल को बढ़ावा देकर और अंततः सपने बेचकर पैसा कमाते हैं. एक पुरानी कहावत थी कि 'आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है' अब पूरी तरह से 'आविष्कार ही आवश्यकताओं की जननी' में बदल गई है."
अपने लंबे व्याख्यान के आखिर में उन्होंने कहा था, "श्री मां ने कहा था, 'मानव इतिहास के एक मोड़ पर अहंकार सहायक था, लेकिन अब अहंकार अवरोध बन गया है.' इसलिए यदि मानवता को यदि अपनी वर्तमान सीमित सीमाओं को पार करना है, तो चेतना को अहंकार से परे छलांग लगाना होगा. एक समय था जब सिकंदर की महत्वाकांक्षाओं से मानवता को लाभ हुआ था, क्योंकि उसके बिना पूर्व और पश्चिम का मिलन नहीं हो सकता था. लेकिन अब अहंकार ईश्वरीय योजना को समर्थन देने की तुलना में अधिक बाधक है... इस बदलते समय में, हमें अपने मूल्य प्रणालियों को संशोधित करना होगा, क्योंकि हममें से अधिकांश ने उन्हें आधुनिक समय की समस्याओं को हल करने में विफल देखा है. लेकिन इन सबसे ऊपर, हमें यह मानना होगा कि सभी स्पष्ट अराजकता और भ्रम के बीच, जहां झूठ है- एक दिव्य योजना हमें बेहतरीन प्राणी के रूप में विकसित करने की कोशिश कर रही है."
एक चिंतक, आध्यात्मिक चेतना युक्त प्राध्यापक के रूप में उनका लेखक दुनिया भर में समादृत था. उनके एक और बेहद चर्चित उपन्यास 'तंद्रालोक का प्रहरी' का कथानक ओझाओं की तीन पीढ़ियों का ऐसा उम्दा आख्यान है, जिसका दूसरा उदाहरण नहीं मिलता. इतिहास में धर्म के नाम पर तमाम अन्याय व नृशंसता के बीच वह टोना टोटका के नाम पर होने वाली प्रवंचना और कुसंस्कार के मनोविज्ञान से होते हुए चेतना के अनेक स्तरों को उभारते हैं और विज्ञान से अध्यात्म को, परंपरा से संस्कृति को और संस्कार से समाज को इस कदर गुंफित करते हैं कि पाठक विस्मित रह जाता है. इसी तरह 'स्वर्ण कलश' नामक कहानी संग्रह में पंचतंत्र, कथा-सरित्सागर और जातक कथाओं से न केवल भारतीय धरा बल्कि समूचा विश्व साहित्य आप्लावित रहा, मनोज दास ने गोसाईं और उनके शिष्य अबोलकरा के माध्यम से आगे की कथा लिखी है. ये कहानियां इतनी सीखपरक और दार्शनिक होने के साथ ही व्यावहारिक जीवन मूल्यों से भरी हैं कि उनके पाठ से न केवल अध्ययन का उल्लास जगता है, बल्कि व्यावहारिकता का वह ज्ञान हासिल होता है, जिसकी आज के युवाओं को अधिक जरूरत है. दोनों ही पुस्तकें मैंने हिंदी में पढ़ी थीं, जिनका अनुवाद सुजाता शिवेन ने किया था और प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ और प्रभात प्रकाशन ने.
यह यों ही नहीं है कि अपने शोक संदेश में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने लिखा, "मनोज दास का निधन ओड़िआ और अंग्रेजी लेखन की दुनिया के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है. एक कथा लेखक के रूप में उनका कद, उनकी सादगी और आध्यात्मिकता ने उन्हें एक विशिष्ट पहचान दी. उन्हें एक पद्म भूषण और कई प्रतिष्ठित पुरस्कार दिए गए. उनके परिवार और प्रशंसकों के प्रति मेरी संवेदना."
The passing of Manoj Das is a huge loss to the world of Odia & English writing. His towering stature as a fiction writer, his simplicity & spirituality gave him a unique identity. A Padma Bhushan, he was given many prestigious awards. My condolences to his family and admirers.
— President of India (@rashtrapatibhvn) April 28, 2021
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखा, "एक प्रसिद्ध शिक्षाविद्, लोकप्रिय स्तंभकार और विपुल लेखक के रूप में श्री मनोज दास ने खुद को प्रतिष्ठित किया. अंग्रेजी और ओड़िआ साहित्य में उन्होंने समृद्ध योगदान दिया. वह श्री अरबिंदो के दर्शन के एक प्रमुख प्रतिपादक थे. उनके निधन से पीड़ा हुई. उनके परिवार के प्रति संवेदना. ओऽम शांति."
Shri Manoj Das distinguished himself as a noted educationist, popular columnist and prolific writer. He made rich contributions to English and Odia literature. He was a leading exponent of Sri Aurobindo's philosophy. Pained by his demise. Condolences to his family. Om Shanti.
— Narendra Modi (@narendramodi) April 28, 2021
ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने लगातार दो ट्वीट में अपनी भावनाएं और दुख जाहिर किया. उन्होंने लिखा कि, "महान साहित्यकार #मनोजदास के निधन के बारे में जानकर गहरा दुख हुआ. श्री दास ने साहित्य के क्षेत्र में अपनी विशाल अमर रचनाओं के साथ एक अमिट छाप छोड़ी है और ऐसा शून्य छोड़ दिया है जिसे कभी नहीं भरा जा सकता है."
अपने अगले ट्वीट में पटनायक ने लिखा, "साहित्यिक सिद्धांत का निधन ओड़िआ और अंग्रेजी साहित्य की दुनिया के लिए एक अपूरणीय क्षति है. मेरा चिंतन और प्रार्थनाएं शोक संतप्त परिवार के सदस्यों, पाठकों और उनके अनुयायियों के साथ है.
The demise of the literary doyen is an irreparable loss to the world of Odia and English literature. My thoughts and prayers with the bereaved family members, readers and followers.
— Naveen Patnaik (@Naveen_Odisha) April 27, 2021
साहित्य अकादमी के सचिव के श्रीनिवासराव ने अपने ट्वीट में लिखा, "प्रतिष्ठित लेखक, अनुवादक और साहित्य अकादमी के फेलो डॉ. मनोज दास जी के निधन की सूचना सुनकर दुख हुआ. आधुनिक भारत के सबसे अच्छे दिमागों में से एक डॉ मनोज दास ने अंग्रेजी और ओड़िआ में अपनी रचनाओं के माध्यम से लेखकों और विद्वानों की पीढ़ियों को प्रभावित किया. उनकी आत्मा को शांति मिले.
Sad to hear that Dr.Manoj Dasji, distinguished writer, translator and Fellow of Sahitya Akademi is no more. One of the finest minds of modern India, Dr Manoj Das influenced generations of writers and scholars through his writings in English and Odia. May his soul Rest in Peace 🙏
— K. Sreenivasarao (@ksraosahitya) April 27, 2021
अपने दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा, "डॉ. मनोज दास न केवल एक साहित्यिक व्यक्तित्व बल्कि एक उच्च विकसित आध्यात्मिक व्यक्ति भी थे. यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे दो दशकों में डॉ. मनोज दास के साथ जानने और बातचीत करने का मौका मिला. उन्होंने नश्वर संसार भले ही छोड़ दिया, लेकिन उनके काम हमेशा हमारे साथ रहेंगे."
Dr Manoj Das was not only a literary personality but also a highly evolved spiritual person. It was my privilege that I go to know and interact with Dr Manoj Das for over two decades. He might have left the mortal coil but his works will live with us forever.
— K. Sreenivasarao (@ksraosahitya) April 27, 2021
डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक डॉ अनिर्बान गांगुली का ट्वीट था, "पिछले चार दशक से भी अधिक समय से परामर्शदाता, मार्गदर्शक, मित्र और शिक्षक, भारतीय लोकगीतों और साहित्य के प्रतिपादकों में से एक, श्री अरबिंदो के दृष्टिकोण के अग्रणी प्रतिपादक, लोकप्रिय लेखक और पद्म भूषण प्रोफेसर मनोज दास का पुदुच्चेरी में निधन. दशकों की संपर्क की अंतहीन याद... ओम शांति!
Mentor, guide, friend & teacher for over 4 decades, one of the foremost exponents of Bharatiya folklore & sahitya, leading exponent of Sri Aurobindo's vision, popular writer & Padma Bhushan, Prof Manoj Das passed away in Puducherry. Memories of decades flood in...OM Shanti! pic.twitter.com/nGizO7b8dk
— Dr. Anirban Ganguly (@anirbanganguly) April 28, 2021
कहने कि आवश्यकता नहीं कि अंग्रेजी और ओड़िया में मनोजदास की समान गति थी. समकालीन ओड़िआ साहित्य के स्वार्थपरक गुटों के बीच वह निर्विवाद रूप से अजातशत्रु थे. ओड़िशा के बालासोर जिले के एक समुद्रतटीय गांव संखारी में 27 जनवरी, 1934 को उनका जन्म हुआ. परिवार समृद्ध था. ग्राम्य लोक और प्राकृतिक वैभव के बीच पले-बढ़े. पढ़ाई पूरी करने के बाद 1959 में उन्होंने कटक के एक कॉलेज में अंग्रेजी अध्यापक के रूप में काम शुरू किया और 1963 में श्री अरबिन्दो आश्रम, पुदुच्चेरी में आ गए. इस दौरान विवाह एक बड़े जमींदार घराने में हुआ. वहां श्री अरबिन्दो इंटरनेशनल सेंटर फॉर एजुकेशन में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर बने.
मनोज दास जब नौवीं कक्षा में थे तभी उनका पहला काव्य संग्रह 'शताब्दीर आर्त्तनाद' प्रकाशित हुआ था. अगले ही साल उन्होंने साहित्यिक पत्रिका 'दिगंत' निकालनी शुरू की जो बाद में ओड़िआ विचारों और साहित्य की गंभीर पत्रिका बन गई. कहानी लेखन भी उन्होंने उसी दौर में शुरू किया. पहला कहानी संग्रह 'समुद्रर क्षुधा' 1951 में प्रकाशित हुआ. तब से अब तक उनकी ओड़िआ और अंग्रेजी की अस्सी से भी अधिक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. अपनी लेखकीय यात्रा में उन्होंने ग्राहम ग्रीन, प्रणब मुखर्जी से लेकर नवीन पटनायक तक अनेक बौद्धिक लेखकों, राजनेताओं को अपना प्रशंसक बनाया. दास पद्म भूषण, सरस्वती सम्मान और देश में साहित्य के क्षेत्र के सबसे सम्मानित 'साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता' से विभूषित रहे.
साहित्य अकादमी से सम्मानित यशस्वी लेखिका चित्रा मुद्गल ने मनोज दास को याद करते हुए लिखा है कि जब भी प्रसार भारती के कार्य से पांडुचेरी जाती थी मनोज जी से मिलना भी उद्देश्य होता. मुझे उनकी बहुत याद आ रही है. उन्होंने मेरी अंग्रेजी कहानियों के संकलन 'हाईना एंड अदर स्टोरी' पर बहुत बेहतर लिखा था. प्रणाम उन्हें...उनका लेखन सर्वथा अलग था. उनका जाना भारतीय भाषाओं अपूरणीय क्षति है. वाकई अपने प्रचुर लेखन के साथ अपने चिंतन, व्यवहार और कर्म से देश ही नहीं दुनिया भर की कई पीढ़ियों को प्रभावित करने वाले जागृत चेतना के धनी श्री मनोज दास को नमन!