
एक महीने पहले तक देहरादून से भोपाल, अहमदाबाद, जयपुर, मुंबई, दिल्ली, चंडीगढ में रह रहे हरजीत के तमाम दोस्त अपनी अपनी स्मृतियों के साथ हरजीत को गाहे-बगाहे याद कर रहे थे. सब अपनी स्मृतियों तक सीमित. किसी का किसी से कोई सम्पर्क नहीं.
तेजी ग्रोवर की फ़ेसबुक पर एक पोस्ट ने भीतर तक हिला दिया. क्या जीवन जीया मैंने? इसी सवाल के जवाब में मन बनाया कि हरजीत की स्मृतियों को संग्रहीत किया जाए. मन बनाने की देर थी, कारवाँ बनता चला गया.आज हरजीत के दोस्त फ़ेसबुक पेज और इसी नाम से व्हाटस अप ग्रुप पर सक्रिय है. सब अपनी अपनी क्षमता से सहयोग कर हरजीत की स्मृतियों को संजोने के काम में लगे हैं.
इक्कीस बरस हो गये हरजीत को हमसे अलविदा कहे. इक्कीस साल कम नहीं होते, एक पीढ़ी जन्म लेकर जवान तक हो जाती है इक्कीस साल में. आज हरजीत के दोस्त जिस तरह हरजीत की स्मृतियों को संजोने का काम कर रहे हैं, वह पहले क्यों नहीं किया? बिलाशक, हरजीत हम में से हरेक के हृदय में हमेशा विराजता रहा पर अपने जज़्बात को हम कभी कोई शक्ल ही नहीं पाये और अब एक महीने भर हम सब हरजीताना हो गये. पता नहीं कहां-कहां से उसकी चीजें ढूंढकर ला रहे हैं दीवाने. इस बारे में सोचता हूं तो यही एक जवाब अंतर्मन से मिलता है कि हरजीत की बड़ी बेटी सोनू की गोद में दूध पी रहा यह नन्हा मुन्ना ही यह सब करा रहा है. क्या यह कम हैरत की बात नहीं है कि जनाब एक महीने पहले ही जन्मे हैं और जन्मते ही ऐसा जादू किया इस नन्हें जादूगर ने कि सारे के सारे नानू-नानियां सब को 'हरजीत' कर दिया.
लेखक राजेंद्र शर्मा ने अपनी तरह के अनूठे शायर हरजीत सिंह के बारे में यह टिप्पणी रात के तकरीबन 12.15 पर ह्वाट्स पर भेजी, तो एक बारगी चौंक सा गया. पहले लगा वे क्या और किसकी बात कर रहे हैं. फिर हरजीत की जो ग़ज़लें उन्होंने भेजी थीं, उन पर नज़र गई. वाकई कितने अनोखे रचनाकार हैं हरजीत. फिर शर्मा ने ही उनके बारे में ये जानकारियां दीं.
5 जनवरी, 1959 को देहरादून में जन्मे हरजीत सिंह इंटरमीडिएट तक की ही पढ़ाई की थी. जीवनयापन के लिए वे अपने ही शहर में बढ़ईगीरी करते थे. बाद में बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौने बनाने में लग गए. सुन्दर तराशे हुए खिलौने बनाना उनका जुनून होता था. बच्चों से उन्हें विशेष लगाव था. कन्धे पर लटके एक झोले में बढ़ईगिरी का सामान आरी, रंधा आदि होता तो वहीं दूसरे झोले में एक दो किताब, मैगजीन, प्लास्टिक के ग्लास, एक दो प्याज, गाजर आदि.
इस साधारण से व्यक्तित्व वाले हरजीत ने आठवें दशक में एक से बढ़कर ग़ज़लें लिखीं. एक समय था कि हरजीत की ग़ज़लें देश भर की तमाम पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुईं. उनकी ग़ज़लें अपनी बिम्ब योजना, कथ्य और ग़ज़लियत की दृष्टि से हिन्दी ग़ज़ल की अमूल्य निधि हैं. विष्णु खरे को जानने वाले जानते हैं कि हिंदी साहित्य का यह दुर्वासानुमा कवि सामान्य तौर पर किसी की तारीफ नहीं करता था, परन्तु हरजीत सिंह के बारे में उन्होंने लिखा था कि हिंदी साहित्य को दुष्यंत कुमार के बाद का ग़ज़लकार मिल गया है. हरजीत सिंह के दो ग़ज़ल संग्रह ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए हैं- 'ये हरे पेड़ हैं' सन् 1993 में प्रकाशित हुआ, इसमें 49 ग़ज़लें संग्रहीत हैं तथा दूसरा ग़ज़ल संग्रह 'एक पुल' सन् 1996 में प्रकाशित हुआ, जिसमें 67 ग़ज़लें संग्रहीत हैं. यह दोनों संग्रह भी अब आउट ऑफ प्रिंट है .
हरजीत ग़ज़ल की दुनिया में शोहरत की बुलन्दियों पर पहुंचने ही वाले थे कि वक्त की फिसलन की चपेट में आ गए और 22 अप्रैल, 1999 को उनका देहान्त हो गया.
अपनी तरह के अनूठे शायर हरजीत सिंह की आज जयंती है. उनकी याद में पढ़ें उनकी ये रचनाएंः
1.
उसके लहजे में इत्मिनान भी था
और वो शख्स बदगुमान भी था
फिर मुझे दोस्त कह रहा था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान भी था
सब अचानक नहीं हुआ यारो
ऐसा होने का कुछ गुमान भी था
देख सकते थे छू न सकते थे
काँच का पर्दा दरमियान भी था
रात भर उसके साथ रहना था
रतजगा भी था इम्तिहान भी था
आयीं चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आस्मान भी था
**
2.
जलते मौसम में कुछ ऐसी पनाह था पानी
सोये तो साथ सिरहाने के रख लिया पानी
सिसकियाँ लेते हुए मैंने तब सुना पानी
मुझसे तपते हुये लोहे पे पड़ गया पानी
इस मरज़ का तो यहाँ अब कोई इलाज नहीं
शहर बदलो कि बदलना है अब हवा-पानी
आसमां रंग न बदले तो इस समन्दर से
ऊब ही जायें जो देखें फ़क़त हरा पानी
शहर के एक किनारे पे लोग प्यासे थे
शहर के बीच फव्वारे में जब कि था पानी
उस जगह अब तो फ़क़त ख़ुश्क सतह बाक़ी है
कल जहाँ देखा था हम सबने खौलता पानी
जब समंदर से मिलेगा तो चैन पायेगा
देर से भागती नदियों का हाँफता पानी
**
3.
रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख़ हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ों से उतर कर ही मिलेगी बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रस्तों को
देखना है कि धुआँ उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते हैं
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर की इक नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है तो मर जाता है
**
4.
जब भी आँगन धुएं से भरता है
दिल हवाओं को याद करता है
साफ़ चादर पे इक शिकन की तरह
मेरी यादों में तू उभरता है
उड़ने लगता है हर तरफ़ पानी
इस नदी से तू जब गुज़रता है
दिन-ब-दिन पा रहा हूँ मैं तुझको
जैसे नशा कोई उतरता है
रात जुगनू से बातचीत हुई
अब अंधेरों से वो भी डरता है
हम लकीरें ही खींच सकते हैं
रंग तो उनमें वक़्त भरता है
**
5.
शहरों में थे न गाँव में न बस्तियों में थे
वो लोग कुछ पुलों की तरह रास्तों में थे
सड़कों पे नंगे पाँव जो फिरते हैं दर-बदर
कल ही की बात है ये बच्चे घरों में थे
फिर यूँ हुआ कि फूल बहुत सख़्त हो गये
कुछ ऐसे हादसे भी गुज़रती रुतों में थे
उनकी ज़ुबाँ भी तेज़ थी लहज़ा भी तुर्श था
लेकिन वे लोग कैद खुद अपने घरों में थे
अब जैसे तुमने ख़ून बहाया नगर-नगर
लगता है इससे पहले कहीं जंगलों में थे
***

6.
कोई दिल ही में छुपा हो जैसे
दिल उसे ढूँढ रहा हो जैसे
साये-साये वो चले आते हैं
धूप से उनको गिला हो जैसे
जश्न के बावजूद लगता है
कोई आया न गया हो जैसे
वो तो ख़ामोश नहीं हो सकता
उसको ख़ामोश किया हो जैसे
आपसे कुछ भी नहीं कहता हूँ
आपसे कुछ न छुपा हो जैसे
दर्द सावन में खूब खिलता है
दर्द का रंग हरा हो जैसे
**
7.
फूल सभी अब नींद में गुम हैं महके अब पुरवाई क्या
इतने दिनों में याद जो तेरी आई भी तो आई क्या
मैं भी तन्हा तुम भी तन्हा दिन तन्हा रातें तन्हा
सब कुछ तन्हा-तन्हा सा है इतनी भी तन्हाई क्या
खिंचते चले आते हैं सफ़ीने देख के उसके रंगों को
तुमने इक गुमनाम इमारत साहिल पर बनवाई क्या
सारे परिंदे सारे पत्ते जब शाखों को छोड़ गये
उस मौसम में याद से तेरी हमने राहत पाई क्या
काँच पे धूल जमी देखी तो हमने तेरा नाम लिखा
काग़ज़ पे ख़त लिखने की भी तुमने रस्म बनाई क्या
आ अब उस मंज़िल पर पहुंचें जिस मंज़िल के बाद हमें
छू न सकें दुनिया की बातें शोहरत क्या रुसवाई क्या
**
8.
दोस्त बन कर ज़िन्दगी में आ गयी है चाँदनी
अब मुझे अच्छी तरह पहचानती है चाँदनी
दूर रहना उसकी मज़बूरी भी है अच्छा भी है
मुझसे जब मिलती है लगता है नई है चाँदनी
मैंने कुछ लोगों की आँखों से चुराया है उसे
मैं वो इक बादल हूँ जिसमें घिर गई है चाँदनी
मेरा यह तन्हाईयों का शहर उसका शहर है
जिसके रस्ते जिसके आँगन चूमती है चाँदनी
जिस नदी में रोज़ सूरज डूबता है शाम को
रात उस काली नदी में नाचती है चाँदनी
धूप से मैं उसकी कोई बात भी क्यूँ कर कहूँ
धूप कह देगी कि हाँ मुझसे बनी है चाँदनी...
**
9.
सीढ़ियाँ कितनी बड़ी हैं सीढ़ियाँ
मुझको छत से जोड़ती हैं सीढ़ियाँ
गाँव के घर में बुज़ुर्गों की तरह
आजकल सूनी पड़ी हैं सीढ़ियाँ
इन घरों में लोग लौटे ही नहीं
धूल में लिपटी हुई हैं सीढ़ियाँ
सिर्फ बच्चों की कहानी के लिए
आसमानों में बनी हैं सीढ़ियाँ
इस महल में रास्ते थे अनगिनत
अब गवाही दे रही हैं सीढ़ियाँ
उस नगर को जोड़ते हैं सिर्फ पुल
उस नगर की ज़िन्दगी हैं सीढ़ियाँ
इस इमारत में है ऐसा इंतजाम
हम रुकें तो भागती हैं सीढ़ियाँ
***
10.
सूरज हज़ार हमको यहाँ दर-ब-दर मिले
अपनी ही रौशनी में परीशाँ मगर मिले
नक़्शे सा बिछ चुका है हमारा नगर यहाँ
आँखें ये ढूँढती हैं कहीं अपना घर मिले
फिर कौन हमको धूप की बातें सुनायेगा
तुम भी मिले तो हमसे बहुत मुख़्तसर मिले
कच्चे मकान खेत कुँए बैल गाड़ियाँ
मुद्दत हुई है गाँव की कोई ख़बर मिले
नदियों के पुल बनेंगे ख़बर जब से आई है
कश्ती चलाने वाले झुकाकर नज़र मिले