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स्‍मृति शेषः मैनेजर पांडेय, आलोचक जिन्हें भारतीय परिस्थितियों और पारिस्थितिकी में उपजी रचनात्मकता की समझ थी

हिंदी के जाने माने आलोचक डॉ मैनेजर पांडेय हमारे बीच नहीं रहे. वे मंचों पर दोटूक और सच बोलने वाले इने-गिने आलोचकों में एक थे.

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मैनेजर पांडेयः हिंदी को अपनी तरह के इस अनूठे आलोचक की कमी खलेगी
मैनेजर पांडेयः हिंदी को अपनी तरह के इस अनूठे आलोचक की कमी खलेगी

हिंदी के जाने माने आलोचक डॉ मैनेजर पांडेय हमारे बीच नहीं रहे. वे कुछ समय से बीमार चल रहे थे. गोपालगंज, बिहार में जन्‍मे मैनेजर पांडेय हिंदी में अपनी तरह के वामपंथी आलोचक थे जिन्‍होंने साहित्‍य को समाजशास्‍त्र के आईने में जांचा परखा तथा अपने विचारों पर आजीवन दृढ रहे. उनके जाने से हिंदी के बौद्धिक जगत का एक सितारा और चला गया है. वे मंचों पर दोटूक और सच बोलने वाले इने-गिने आलोचकों में एक थे. उनकी आलोचना के मुख्‍य बिन्‍दुओं पर हिंदी के सुपरिचित कवि आलोचक डॉ ओम निश्‍चल का यह श्रद्धांजलि लेख.  
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चालू समीक्षा संस्कॄति की चमक-दमक ने न केवल रचना का बल्कि आलोचना का भी बेहद नुकसान किया है. आज की आलोचना का काम प्रायः इतना ही रह गया है कि वह पुस्तक के बांड प्रचारक की भूमिका निभाए, और ऐसा चौतरफा हो भी रहा है. अखबारों, पत्रिकाओं में छपने वाली समीक्षाओं में आलोचना का स्वर तो तिरोहित रहता ही है, समीक्षा में, सम्यक अवलोकन का निहित दायित्व भी लुप्तप्राय होता जा रहा है. ऐसे में यदि आज भी ऐसे कुछ आलोचक हैं, जिन पर भरोसे से उंगली उठाई जा सकती है, तो यह कम सौभाग्य की बात नहीं है. 
दुनिया भर के साहित्‍यिक विमर्शो पर मैनेजर पांडेय की निगाह रहती थी तथा सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर ही उन्‍होंने कवियों लेखकों को कस कर देखा. अब जब वह नहीं हैं, तब आलोचना और सामाजिकता, शब्‍द और कर्म, साहित्‍य की समाजशास्‍त्रीय भूमिका, हिंदी कविता के प्रगतिशील कवियों, प्रतिरोध की परंपरा और साहित्‍य की भूमिका को लेकर मैनेजर पांडेय की पुस्‍तकें और सैंद्धांतिकी हमें इस बात का भरोसा दिलाती है कि उन्होंने आलोचना के तयशुदा फार्मेट और समीक्षा के चालू मानदंडों का अनुसरण नहीं किया है बल्कि रचना और अपने समय के विमर्श की पड़ताल सामाजिक परिप्रेक्ष्य से गहरे जुड़ कर किया है. 
मैनेजर पांडेय हिंदी के उन इने-गिने समालोचकों में हैं जिन्होंने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया. गोपालगंज, बिहार में 23 सितंबर, 1941 में जन्मे पांडेय जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की तथा कुछ समय जोधपुर विश्वविद्यालय में पढ़ाने के बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आ गए, जहां से सेवानिवृत्त होकर इन दिनों स्वतंत्र लेखन कर रहे थे. पांडेय जी ने अपनी आलोचना के केंद्र में साहित्य की सामाजिक भूमिका की स्थापना को महत्त्व के साथ आंका है. श्यामाचरण दुबे, पीसी जोशी एवं डीपी मुखर्जी एवं एआर देसाई जैसे समाजविज्ञानियों की प्रेरणा से मैनेजर पांडेय ने साहित्य के समाजशास्त्र का व्यवस्थित अध्ययन-अनुशीलन किया तथा उनकी पहली ही किताब साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका का हिंदी आलोचना में एक नवाचार की तरह स्वागत हुआ. तब से शब्‍द और कर्म, साहित्‍य के समाज शास्‍त्र की भूमिका, भक्‍ति आंदोलन और सूरदास का काव्‍य, हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान, आलोचना में सहमति असहमति, भारतीय समाज में प्रतिरोध की भूमिका, अनभै सांचा, आलोचना की सामाजिकता, उपन्यास और लोकतंत्र, साहित्‍य और दलित दृष्‍टि,शब्‍द और साधना, संगीत रागकल्‍पद्रुम, संकट के बावजूद और साहित्य और समाजशास्त्रीय दृष्टि सहित उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई, होती रहीं। वे हिंदी अकादेमी के शलाका सम्‍मान, राष्‍ट्रीय दिनकर सम्‍मान, गोकुलचंद्र शुक्‍ल पुरस्‍कार, एवं सुब्रहमण्‍य भारती सम्‍मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित रहे.
कहा जाता है कि एक खराब रचना केवल कुछ पाठकों को पथभ्रष्ट करती है जबकि एक खराब आलोचना समूचे समाज को. इसलिए आलोचना का उत्तरदायित्व आज के समय में सर्वाधिक है. ऐसे समय में जब बाजारवाद की अनुगामी संस्कृति का असर लेखन पर भी पड़ा है और खराब रचनाओं के पेशेवर प्रचारक समीक्षकों की तथाकथित सात्विक भंगिमाओं में इर्द-गिर्द फैले हुए हैं. तब अकारण नहीं है कि मैनेजर पांडेय 'आलोचना की सामाजिकता की भूमिका' में इस बात को रेखांकित करते हैं कि इधर के दशकों में साहित्य की नई सामाजिकता सामने आई है. उनका कहना है कि साहित्य विनोद का साधन नहीं  है, वह स्वतंत्रता के लिए बेचैन आत्मा की पुकार है. इस साहित्य की व्‍याख्या में वही आलोचना सक्षम होगी जो स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों की स्वतंत्रता की आकांक्षा की पहचान करेगी और उनके रचने की सामाजिकता का मूल्यांकन करेगी. हिंदी आलोचना को असामाजिक बनाने का उत्तरदायी वे उन आलोचकों को मानते हैं जो अतिरंजना, सरलीकरण, धमकी, फतवा, आशीर्वाद और दुविधा की भाषा में आलोचना लिखते हैं. 
आलोचना के क्षेत्र में किसी एक विषय पर धैर्य और एकजुटता के साथ विचार करने की प्रवृत्ति रामविलास शर्मा के बाद उत्तरोत्तर विरल होती गई है. इस प्रवृत्ति की कुछ कुछ झलक मैनेजर पांडेय में दीख पड़ती है. वे यहां आलोचना का समाज, संस्कॄति की राजनीति, कविता का समय और उपन्यास का लोकतंत्र जैसे बुनियादी विमर्शों को उठाते और कुछ नए विमर्शों को अपनी आलोचना में जगह देते हैं. सबसे बुनियादी थीसिस उनकी यही है कि आलोचना की अपनी सामाजिकता होनी चाहिए. उसका एक समाज होना चाहिए. साहित्य के समाजशास्त्रीय अध्ययन की जरूरत पर बल देते हुए उन्होंने साहित्यिक हल्के में विद्यमान आलोचना की राजनीति, भाषा की राजनीति, राजनीति की भाषा जैसे मुद्दों पर तो विचार किया ही है, उपन्यास और लोकतंत्र, उपन्यास और यथार्थ चेतना, उपन्यासों की भारतीयता तथा प्रेमचंद की प्रासंगिकता पर भी विचार किया है. जिन शख्सियतों पर मैनेजर पांडेय ने अलग से विचार किया है, वे हैं रामचंद्र शुक़्ल, नामवर सिंह, नागार्जुन, नाथू राम शर्मा शंकर. कहना न होगा कि वे आधुनिक आलोचना की रौ में बहते हुए रामचंद्र शुक़्ल की काव्‍य भाषा को लेकर अपने पूर्वग्रह का परिचय नहीं देते और न नामवर सिंह की आलोचनात्मक दृष्टि की विवेचना करते हुए वे भवदीयता की मुद्रा अपनाते हैं. अपनी मुखरता में वे नामवर सिंह की ही तरह वाग्विदग्ध तथा आलोचना में भी स्‍पष्टता से वह सब कुछ कह देने के हिमायती हैं, जिसे लेकर अकसर आलोचक भाषाई खेल में खो जाते हैं. 
मैनेजर पांडेय दरअसल रचना की चरितार्थता समाज से जुड़ कर रचे जाने में ही महसूस करते हैं. इसके लिए वे नागार्जुन जैसे कवि को केंद्र में रखते हैं. यहीं वे नागार्जुन जैसे जनचेता और अज्ञेय जैसे आत्मचेता कवि के बीच फर्क को रेखांकित करते हैं. अज्ञेय के आखिरी संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा है' पर लुब्ध-मुग्ध होने वालों की रुचियों पर आघात करते हुए कहते हैं कि उनके प्रतीक और बिम्ब अतीतवासी हैं और अभिव्‍यक्‍ति की भंगिमा कृत्रिम तथा भाषा समकालीन जीवन के यथार्थ और व्‍यवहार से कटी हुई है. यहीं वे नागार्जुन की कविता में जन-जीवन के संघर्षों के पर्याप्त साक्ष्य देते हैं. इस तरह इन दो कवियों की तुलनात्मक मुठभेड़ कराते हुए वे कविता के प्रति अपनी दो-टूक दृष्टि का परिचय भी देते हैं. वे अमूर्त कल्पनाशीलता में सुध-बुध खोने वाली तथा मनोरंजनवादी कविताओं को जीवन-वास्तविकताओं से दूर मानते हैं. नागार्जुन के हवाले से वे इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि कविता में ज्ञान की गठरी भले छोटी हो, किन्तु करुणा का सागर अथाह होना चाहिए. वह विचार से अधिक भावों को तरजीह दे. उनके लेखे कालजयी रचना के लिए कालजीवी होना लाजिमी है. उनकी दृष्‍टि में केवल शाश्वत विषयों पर कविता लिखना शाश्वत कवि होने का प्रमाण नहीं है.
मैनेजर पांडेय देसी समझ के आलोचक हैं. अपने ज्ञानकोश का इस्तेमाल वे भारतीय परिस्थितियों और पारिस्थितिकी में उपजी रचनात्मकता को समझने में करते हैं. नागार्जुन में यदि उन्हें सरलता का सौंदर्यशास्त्र खींचता है तो इसलिए कि उनकी कविता न केवल किसी तरह के सरलीकरण को प्रश्रय नहीं देती बल्कि उसे उन व्‍याधियों से भी बचाती है जो अमूर्तन और कलावादी लटके-झटकों से कविता को जटिल बनाती हैं. भक्‍त कवियों में सूरदास, कबीर जैसे बड़े कवियों के बाद नागार्जुन, त्रिलोचन के साथ नए कवियों में यदि उनकी पसंद बद्री नारायण, निलय उपाध्याय, देवीप्रसाद मिश्र, कात्यायनी, सविता सिंह और अनामिका जैसे कवि हैं, तो यह निश्चय ही अपनी जीवन-गंधी, लोकगंधी काव्‍यात्मकता के कारण ही. कविता में बहुत कला का निदर्शन करने वाले कवि उनकी आलोचना और अध्‍ययन चिंतन के केंद्र में कभी नहीं रहे. 
उपन्यास के लोकतंत्र को लेकर भी मैनेजर पांडेय ने अपनी आलोचना में गहराई से विचार किया है. यों तो कविता के लोकतंत्र की बात तो अशोक वाजपेयी भी यदा-कदा करते रहे हैं किन्तु उनके यहां लोकतंत्र का भूगोल उसकी सीमित स्‍वायत्ता में है. जबकि उपन्यास के लोकतंत्र की अवधारणा का अर्थ पांडेय के मत से समय, समाज और लोक के साथ उपन्यास का हमकदम होना है. वे निराला के इस कथन को याद करते हैं कि गद्य जीवन-संग्राम की भाषा है. वे इस बात पर आश्चर्य करते हैं कि विभाजन की त्रासदी पर प्रगतिशील कवियों के यहां कोई महत्त्वपूर्ण कविता नहीं मिलती, जबकि अज्ञेय के यहां ऐसी बहुतेरी कविताएं हैं. उनके यहां बंदी जीवन की कविताएं भी हैं. उपन्यासों में, खास कर झूठा-सच, आधा गाँव और तमस के साथ साथ अज्ञेय, मोहन राकेश, भीष्म साहनी तथा कॄष्णा सोबती के यहां इस त्रासदी पर अनेक कहानियां हैं. वे प्रेमचंद, नागार्जुन, रेणु, फकीर मोहन सेनापति, विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय, ताराशंकर बंद्योपाध्याय, महाश्वेता देवी, पन्नालाल पटेल, शिवराम कारंत, यू आर अनंतमूर्ति तथा तकषी शिवशंकर पिल्लै आदि के उपन्यासों में भारतीयता पर विचार करते हुए यह नहीं भूलते कि ओड़िया के फकीर मोहन सेनापति ने अपने उपन्यास छमाड़ आठ गुंठ से ही भारतीय उपन्यास को किसान जीवन की महागाथा बनाने की परंपरा की नींव डाली थी.
उपन्यास के लोकतंत्र का भाष्य वे यथार्थ, यथार्थवाद, स्वराज्य, उपनिवेशवाद, जातीय व्‍यवस्था की जकड़न, धार्मिक संकीर्णता, सांप्रदायिकता, किसान और मजदूर जीवन की विडंबनाओं, पितॄसत्ता से उपजी पराधीनताओं की ज़मीन पर खडे होकर करते हैं. किन्तु उपन्यास में आख्यान की सत्ता को जीवंत बनाने वाली भाषा संवेदना को भूल नहीं जाते, बल्कि 'मुझे चाँद चाहिए' के गद्य को आकांक्षा का गद्य और 'चाक' के गद्य को अनुभव की भाषा में संभावना का गद्य कह कर बोलचाल की भाषा व स्मृतिजीवी भाषा का फर्क समझाते हैं. हां, उपन्यासों में बार-बार अतीत की ओर लौटने की प्रवृत्ति के वे गहरे आलोचक हैं जिनमें उन्हें मौजूदा भारतीय समाज की समस्याओं और जनता की जागृत आकांक्षाओं की उपेक्षा नज़र आती है. कविता का लोकतंत्र अगर उन्हें नागार्जुन में नजर आता है तो उपन्यासों में निश्चित रूप से प्रेमचंद, रेणु और उनकी परंपरा  को आगे बढ़ाने वाले लेखकों में, जिनके यहां ठेठ भाषा का पूरा ठाठ मिलता है तथा बोलियों की अनगिनत भंगिमाएं और मुहावरे. अपने विमर्श में वे जिन उपन्यासों का जिक्र करते हैं, उनमें धर्म और राजनीति के गठजोड़ की कलई खोलते उपन्यास हमारा शहर उस बरस और आखिरी कलाम तथा समाज के परिवर्तनों के सूचकांक के रूप में अल्मा कबूतरी व सूत्रधार प्रमुख हैं. 
मैनेजर पांडेय की बुनियादी चिंता का विषय आलोचना को उत्तरदायी और सामाजिक बनाना रहा है. वे इस बात पर चिंतारत दिखाई देते हैं कि पूंजीवाद का मौजूदा दौर सामाजिक की मृत्यु का दौर है. ऐसी स्थिति में सामाजिकता की चिंता आलोचना और आलोचकों के केंद्र में होनी चाहिए. आज जबकि सामाजिकता, सामूहिकता तथा सांस्कृतिक और भाषायी विविधता पर बाजारवाद और पूंजीवादी शक़्तियों के खतरे ज्यादा घनीभूत दिखाई देते हैं, उनकी दृष्टि में आलोचना की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह साहित्य में बेहतर लोकतंत्र की स्थापना के लिए रचना में सामाजिक संघर्षों और मानवीय स्वतंत्रता के लिए की जा रही जद्दोजहद की आगे बढ़ कर पड़ताल करे और सहमतिवाद की गतानुगतिक लीक से अलग हट कर प्रतिरोध का मंच बने. नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय दोनों वाम चिंतन के आलोचक थे किन्‍तु आलोचना की जो सैद्धांतिकी मैनेजर पांडेय ने अपने लिए अपनाई उस पर नामवर सिंह बहुत बल देते नहीं जान पड़ते. कविता को समझने की कसौटियां भी दोनों आलोचकों की अलग-अलग है. कविता में नामवर सिंह यदि केदारनाथ सिंह या विनोदकुमार शुक्‍ल की भाषाई कलात्‍मकता की प्रशंसा कर सकते थे या उसकी शिल्‍पविघि पर प्रसन्‍न हो सकते थे तो मैनेजर पांडेय ऐसे कवियों से अलग उन कवियों पर भरोसा टिकाते हैं जिनकी रचना अपनी ही बौद्धिकता में ही घिर कर नहीं रह जाती बल्‍कि जनता के सुख-दुख से अपना नाता जोड़ती है. उनके लिए कविता का अर्थ है कि उसमें समाज का प्रतिबिम्‍ब दिखे, समाज का क्रिटीक दिखे और वह जनरुचि का सम्‍मान भी करे. इस तरह कहा जा सकता है कि वे ऐसी रचना या आलोचना के हिमायती रहे हैं जो संप्रेष्‍य हो, जनसंवेद्य हो तथा उसका अपना सामाजिक नजरिया हो. इस अर्थ में वे समाज की विडंबनाओं पर दृष्‍टिपात करने वाले आलोचकों में सर्वाधिक प्रखर थे.
सादर नमन! 
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# लेखक डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक कवि एवं भाषाविद हैं तथा शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, कवि विवेक जीवन विवेक, चर्चा की गोलमेज पर अरुण कमल  व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों 'अन्वय' एवं 'अन्विति' सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. वे हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उप्र हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब द्वारा शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्या‍णमल लोढ़ा साहित्य सम्मान और यूको बैंक के अज्ञेय भाषा सेतु सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं.  संपर्कः जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059, मेल dromnishchal@gmail.com
 

 

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