इंटरनेट पर उपलब्ध बड़े-बड़े उरोजों वाली खांटी भारतीय महिला के रूप में कार्टून चरित्र सविता भाभी को लें, जो उसका कौमार्य भंग करने वाले रिश्ते में भाई लगते आगंतुक की, एक नए नौकर की जिसके बारे में उसने सुन रखा था कि वह किसी सहेली के पास रहता है, ब्रा बेचने वाले नटखट सेल्समैन की और यहां तक कि पड़ोस के दो 18 वर्षीय लौडों के बारे में भी फंतासी देखती है. अब जरा सविता को हकीकत की दुनिया में रखकर देखिए. इंडिया टुडे-एसी नील्सन-ओरआरजी मार्ग सेक्स सर्वेह्नण के अश्लील फिल्मों से संबंधित आंकड़ों की तरह सविता भाभी के भी दो पहलू हैं. क्या वह सिलिकॉन वैली में कहीं बैठे वैश्विक मंदी की मार से त्रस्त कुछ लंपट युवकों की गढ़ी गई कोई काल्पनिक पात्र है? या वह वास्तविक जीवन की अनेक भाभियों का मिलाजुला ऐसा रूप है जो जीवन को कॉफी के चम्मचों से नहीं, रिमोट के क्लिक करने से आंकती है, जैसे अपने नए घरेलू उपकरणों को आजमा रही हो? तो देवियो और सद्गजनों जरा गौर करें. यदि टीवी ने सविता भाभी के नीरस जीवन में संभावनाएं जगाई हैं तो डीवीडी प्लेयर और पर्सनल कंप्यूटर ने इसे हकीकत में बदल दिया है.
सेक्स की देसी देवी का स्वागत कीजिए
हताश गृहिणियों के दिन अब लद गए हैं. उनकी जगह लंपट गृहिणियों ने ले ली है. घरेलू देवी को अब अलविदा कहें. सेक्स की देसी देवी का स्वागत कीजिए, जिसकी कार्यक्षेत्र किचन के बजाए शयनकक्ष बन रहा है. यदि शहरी भारतीय पुरुष के मन में अश्लील फिल्मों की जबरदस्त भूख है तो भारतीय महिला भी ठीक उसके पीछे तीन हाथ की सम्मानजनक दूरी पर खड़ी है. 62 फीसदी पुरुष अश्लील साहित्य को स्वीकार करते हैं, यह नई बात नहीं है. दिलचस्प यह है कि हर पांच में से एक महिला इसे स्वीकार करती है. यही नहीं, चार में से एक इसे देखती भी है. यह भी दिलचस्प है कि जिन्होंने अश्लील फिल्में देखी हैं, उनमें चार में से एक महिला (23 फीसदी) अविवाहित और तीन में एक महिला (29 फीसदी) विवाहित है. यदि यह जानना हो कि अश्लील फिल्में घरेलू उद्योग के रूप में फल-फूल रही हैं तो इसका सुबूत यह हैः पांच में से एक महिला ने अश्लील फिल्म घर पर ही देखी. और इनमें से करीब आधी ने घर पर शयनकक्ष में इसका लुत्फ उठाया, जिनमें से 45 फीसदी महिलाओं ने नए आसन अश्लील फिल्मों से सीखे. 55 फीसदी ने कहा कि अश्लील फिल्म देखने में उनके सहभागी की सहमति होती है. यह उनकी फंतासी को पूरा करने का ही नहीं, उनकी अंतरंगता को भी नए तरह से परिभाषित करने का मामला है.
क्या यह मजा करने का लाइसेंस है?
किराए पर मिलने वाले वीडियो अश्लील फिल्मों का सबसे सहज रूप हैं जबकि इनकी दर्शक प्रत्येक दस में से एक महिला का कहना है कि मौका मिलने पर वह ऐसी फिल्म में काम करना चाहेगी. बंगलुरू में ऐसी महिलाओं का प्रतिशत सर्वाधिक 19 फीसदी है. अश्लील फिल्मों को प्रायः पुरुष क्षेत्र माने जाने वाली दुनिया में इन आंकड़ों का क्या मतलब है? क्या यह मजा करने का लाइसेंस है? इसका एक पक्ष जोर-जबरदस्ती के रूप में भी हो सकता है जैसे 2004 में जम्मू की अनारा गुप्ता के साथ हुआ था. लुधियाना में 10 में से एक महिला कहती है कि उसने दबाव में अश्लील फिल्म देखी. दूसरे तत्व आजादी, सशक्तीकरण, हो सकते हैं जिसे महिलाओं की स्वीकारोक्ति से बल मिला. अश्लील फिल्में देखने वाली जयपुर की एक-चौथाई महिलाओं और पटना की 16 फीसदी महिलाओं ने कहा कि उन्होंने अपने सहचर को बिना बताए इसे देखा. इस खेल में महिलाएं नई हैं, पर वे तेजी से सीख रही हैं. पुरुष किशोरवस्था में ही अश्लील फिल्में देखने लगते हैं, तो अधिकांश महिलाएं बीसेक वर्ष की उम्र में इसके बारे में जान पाती हैं.{mospagebreak} पुरुष जहां अश्लील साहित्य पढ़ने और अश्लील फिल्में देखने के मामले में बंटे हुए हैं, महिलाएं सिर्फ फिल्में देखना पसंद करती हैं.
अश्लीलता अब निषेध नहीं है
लेखिका और प्रकाशक उर्वशी बुटालिया को लगता है कि यह उत्सुकता और प्रयोग का मिश्रित रूप है जो सुविधासंपन्न वर्ग तक सीमित नहीं है. वे कहती हैं, ''तकनीक ने महिलाओं को अपने एकांतिक पलों में फंतासी में खो जाने के मौके दिए हैं. इसके सार्वजनिक होने का खतरा नहीं है.'' दरअसल, महिलाओं के लिए ऐसे कोई सामाजिक माध्यम नहीं हैं जहां वे निस्संकोच अश्लील फिल्में देख सकें. यह बकौल लेखिका रुक्मणी भाया नायर, अत्याधुनिक भावना यानी बोरियत को दूर करने का जरिया भी हो सकता है. वे कहती हैं, ''व्यग्रता और उकताहट जैसी कुरूप भावनाएं अक्सर कुरूपता के क्षेत्र में दाखिल होने से दूर होती हैं.'' पांच में से 3 पुरुषों के अश्लीलता को स्वीकार करने और चार में से करीब तीन के इसमें लिप्त रहने से जाहिर है, अश्लीलता अब निषेध नहीं है.
अश्लील फिल्मों ने भारत में कारोबार के अवसर मुहैया कराए
पर उस दुनिया में अश्लील का क्या अर्थ है जहां म्युजिक एल्बम में बालाएं लघु परिधान में और भीड़ खींचती फिल्मों में आला दर्जे की स्टार अधनंगी नजर आती हैं? दरअसल किसे अश्लील माना जाए? क्या यह विजुएल कल्चर में परदे की खाली जगह भरना है जिसे आज भी बुरी तरह सेंसर किया जाता है? यह संकोची गृहिणी हो सकती है जो अपनी पहली ही डेट में रति क्रीड़ा में मग्न हो सकती है. यह कोई व्यस्त पति हो सकता है जो देर रात सन टीवी के गानों की झलक देखने के लिए टीवी ऑन कर सकता है. अमेरिका में धमाल मचाने वाली नई कॉमेडी जैक ऐंड मिरी मेक ए पोर्न में अलौकिक प्रेम में लिप्त जोड़ा अपना कर्ज चुकाने के लिए एक्स ग्रेड की इंटरनेट वीडियो क्लिपिंग तैयार करने के बाद प्यार को समझ् पाता है. वे अपनी फिल्म के बाद शायद सफल भी हो गए. भारी-भरकम नाम वाली स्वैलोइंग कॉकेसिनो जबरदस्त हिट सिद्ध हुई और उनकी कंपनी अपने गृह निर्माण वाली फिल्मों के जरिए नीरस और थके-मांदे जोड़ों को यौन जीवन में नई ताजगी लाने में मदद कर रही है. मंदी के दौर में अश्लील फिल्मों ने भारत में कारोबार के अवसर मुहैया कराए हैं.
हर उम्र में अश्लीलता की अपनी परिभाषा है
हर उम्र में अश्लीलता की अपनी परिभाषा है. ऐसे देश में जहां अश्लील कॉमेडी पारिवारिक फिल्मों का मुखौटा लगाकर पेश की जा रही है और बच्चे फटी आंखों से उन्हें देख रहे हैं, पर जहां परदे पर चुंबन के दृश्य आज भी खबर बनते हैं, इसकी परिभाषा अभी तैयार हो रही है. इस पर भी गौर करें. यदि वातानुकूलित घरों में अश्लीलता को कामलिप्सा वृद्धि वाले कारक के बतौर स्वीकार किया जा रहा है, तो इनका निर्माण सीलन भरे कमरों में दबाव डालकर किया जा रहा है ताकि आतंकवाद की वित्तीय मदद की जा सके. वैसे भारतीय पुरुषों, महिलाओं को अश्लील फिल्मों में देसी लड़की और देसी लड़के को देखना उसी तरह पसंद है जिस तरह से नामचीन हस्तियों को. लेकिन खतरा यह है कि जितनी वे ऐसी फिल्में देखेंगे, उतने ही भावनाओं से रहित होते जाएंगे. वास्तव में रतिक्रीड़ा की सीमाओं को लांघना तभी तक ठीक है जब तक कि यह खेल बना रहे. वरना, बकौल नायर, सब कुछ नाटकीय लगेगा.