आमतौर पर स्त्रियों को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील माना जाता है. इन्हें सदियों से 'ममतामयी' जैसे खास विशेषणों से नवाजा जाता रहा है. स्त्रियों की संवेदनशील हृदय की झलक कई नजरियों से दिखलाई पड़ती है.
हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में इन बातों की फिर से पुष्टि हो गई है. रैगिंग के मामले में हुए एक नए सर्वेक्षण में लड़कियों को लड़कों से अधिक तार्किक और संवेदनशील बताया गया है.
सर्वेक्षण के नतीजों में कहा गया है कि ज्यादातर छात्र-छात्राएं अब भी इस मिथक पर भरोसा करते हैं कि रैगिंग से व्यक्तित्व विकास होता है. रैगिंग के खिलाफ काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन के प्रतिनिधियों ने देश के अलग अलग हिस्सों में 28 विश्वविद्यालयों और कॉलेजों का दौरा किया. उनके अध्ययन के नतीजे इस ओर इशारा करते हैं कि किसी संस्थान में भाषा, जाति, क्षेत्र या धर्म के आधार पर छात्र रैगिंग का बुरी तरह शिकार होते हैं.{mospagebreak}
एनजीओ ‘काएलिशन टू अपरूट रैगिंग’ (क्योर) के अनुसार अनेक विद्यार्थियों से बातचीत के दौरान यह बात सामने आई कि इनमें से अनेक को रैगिंग के बारे में गलतफहमी है. उन्हें लगता है कि इससे व्यक्तित्व विकास होता है, उन्हें जीवन की कठिन परिस्थितियों का सामना करने की मजबूती मिलती है और छात्रों में आपस में भी तारतम्य बढ़ता है.
संगठन कहता है, ‘‘यह देखा गया कि रैगिंग के मुद्दे पर लड़कियां अधिक तार्किक और संवेदनशील हैं. रैगिंग की बुराइयों के बारे में लड़कियों को बताना और समझाना लड़कों से ज्यादा आसान था.’’ अध्ययन के अनुसार रैगिंग में क्षेत्रवाद की बड़ी भूमिका रहती है.
क्योर के सह संस्थापक हर्ष अग्रवाल ने कहा कि इस विषय पर अधिकतर संस्थानों में बहस निषिद्ध है. उन्होंने कहा, ‘‘कॉलेज प्रमुख, शिक्षक और छात्र इस पर ज्यादा बात नहीं करते.’’ संगठन ने इस दौरान पांच हजार से अधिक छात्र-छात्राओं के समक्ष रैगिंगरोधी वृत्तचित्र का प्रदर्शन किया.