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हिन्दी आन्दोलन पर रामदेव का ज्ञान अधूरा: उपाध्याय

‘हिन्दी हितरक्षक समिति’ के संस्थापक सदस्यों में से एक तथा उत्तराखंड सरकार के पूर्व विशेष कार्याधिकारी शिव शशांक चंद्रशेखर उपाध्याय ने दावा किया है कि योगगुरु बाबा रामदेव की देश में हिन्दी आंदोलन के बारे में जानकारी अधूरी है और उन्हें पूरी जानकारी के बाद ही इस मुद्दे को उठाना चाहिये और इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये.

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बाबा रामदेव
बाबा रामदेव

‘हिन्दी हितरक्षक समिति’ के संस्थापक सदस्यों में से एक तथा उत्तराखंड सरकार के पूर्व विशेष कार्याधिकारी शिव शशांक चंद्रशेखर उपाध्याय ने दावा किया है कि योगगुरु बाबा रामदेव की देश में हिन्दी आंदोलन के बारे में जानकारी अधूरी है और उन्हें पूरी जानकारी के बाद ही इस मुद्दे को उठाना चाहिये और इसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये.

उपाध्याय ने बाबा रामदेव को लिखे एक पत्र में कहा है कि यह दुर्भाग्य है कि स्पष्ट रूप से करीब 30 उच्च विषयों में हिन्दी माध्यम से परीक्षा और पढाई का आदेश हो जाने के बाद भी रामदेव के मंच से इन्ही विषयों के लिये हिन्दी माध्यम की मांग की जा रही है. उन्होंने लिखा है कि इससे लगता है कि जिन लोगों ने अपने खून पसीने से उस समय आंदोलन चलाकर हिन्दी को एक मुकाम तक पहुंचाया था उनके इस आंदोलन की अनदेखी की जा रही है.

उपाध्याय ने लिखा है कि बाबा रामदेव का विशेष दायित्व बनता है कि वह हिन्दी के बारे में जिन गुमनाम आंदोलनकारियों द्वारा पहले ही सफलता हासिल की जा चुकी है, उसके बारे में राजनैतिक लाभ उठाने की कोशिश के बजाय उनकी सफलता को और अधिक पुख्ता करें ताकि देश में हिन्दी को और महत्व प्रदान किया जा सके.

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उन्होंने बताया कि आज से करीब 20 वर्ष पूर्व जब हिन्दी आंदोलन किया गया था तो उस लंबे आंदोलन के बाद देश में इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान, विधि, एमएड तथा एमबीए (प्रबंधन) तथा कुछ अन्य उच्च पाठ्यक्रमों मे हिन्दी भाषा को पहली बार वैकल्पिक माध्यम बनाया गया था. उन्होंने बताया कि इस सिलसिले में सरकारी आदेश भी जारी हो चुका है और कई लोगों ने हिन्दी में परीक्षायें भी दी हैं.

उपाध्याय ने अपने पत्र में कहा कि कम से कम बाबा रामदेव के आंदोलन से ऐसी उम्मीद नहीं की जा रही थी कि जिन हिन्दीवीरों ने इस देश में हिन्दी को लेकर इतिहास रचा है, उनकी एक सुयोजित राजनीति के तहत अनदेखी कर दी जायेगी और हकीकत को दबा दिया जायेगा. उन्होंने कहा कि अच्छा होता कि हिन्दी के इस अभियान में बाबा रामदेव इन आंदोलनों की पूर्ण जानकारी हासिल कर लेते तथा इस दिशा में जो कार्य अपूर्ण रह गया है उसके बारे में ही आवाज उठाते, लेकिन बाबा ने ऐसा नहीं किया.

उपाध्याय ने कहा कि गुमनामी के अंधेरे में डूबे हिन्दीवीरों के जख्मों को कुरेदने के बजाय रामदेव को अपने आंदोलन में हिन्दी की प्रतिष्ठा को और अधिक बढाये जाने के बारे में शंखनाद करना चाहिये था. उन्होंने बाबा रामदेव को याद दिलाते हुये पत्र में लिखा है, ‘मैंने आज से करीब सात वर्ष पूर्व व्यक्तिगत रूप से आपके हरिद्वार के कनखल स्थित आश्रम में सम्पर्क कर हिन्दी आंदोलन के बारे में पूरी जानकारी दी थी और आग्रह किया था कि जो कार्य अधूरे रह गये हैं उसे पूरा किये जाने की आवश्यकता है.’

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उपाध्याय ने कहा कि बाबा रामदेव के साथ जो लोग हिन्दी भाषा के पक्षधर हैं उन्हें अच्छी तरह से पूरी जानकारी हासिल करने के बाद ही, जो कार्य अभी तक अधूरा रह गया है, उसे पूरा करने के बारे में आवाज उठाने के लिये रचनात्मक कार्य करना चाहिये. उन्होंने बाबा रामदेव को ऐसे लोगों से बचने की सलाह देते हुये कहा कि हिन्दी की प्रतिष्ठा को और अधिक बढाने के लिये ईमानदार प्रयास किये जाने चाहिये न कि सिर्फ राजनैतिक उद्देश्य या वाहवाही लूटने के लिये आवाज उठानी चाहिये.

उपाध्याय ने बाबा रामदेव को हिन्दी आंदोलन के बारे में विशेष रूप से जानकारी देते हुये कहा कि तत्कालीन हिन्दी आंदोलन में मुकेश जैन, डॉ. मुनीश्वर, पुष्पेन्द्र चौहान, भानु प्रताप सिंह, विनोद गौतम, अजय मलिक, श्यामरुद्ध पाठक तथा अन्य कई योद्धाओं ने अपने जान की बाजी तक लगा दी थी. उन्होंने बताया कि पुष्पेन्द्र चौहान तो संसद में दर्शक दीर्घा से कूद गये थे और उनकी पसलियां तक टूट गयी थीं. उन्होंने दिल्ली में शास्त्री भवन के सामने कई दिनों तक अनशन भी किया था.

उपाध्याय ने अपने पत्र में लिखा है कि वर्ष 1980 में उत्तराखंड के रुडकी से हिन्दी का उग्र आंदोलन शुरू हुआ था और वर्ष 2009 तक स्थिति यह बनी है कि देश की सिर्फ नौ विशेष परीक्षाओं को छोडकर शेष में हिन्दी भाषा से भी परीक्षा दी जा सकती है, ऐसा आदेश हो चुका है. यहां तक कि अब संयुक्त सैन्य परीक्षा (सीडीएस) भी हिन्दी में दी जा सकती है. उन्होंने कहा कि आमतौर पर हिन्दी का आंदोलन साहित्य से शुरू होकर व्याकरण और उच्चारण के रास्ते गुजरता हुआ पुरस्कार की हवेली पर समाप्त होता रहा है. उन्होंने कहा कि ऐसे कथित आंदोलनकारियों का सही मायने में हिन्दी की बदहाली से कोई सरोकार नहीं रहता है.

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