देश में अपराध बढ़ रहे हैं. आतंक का साया मंडरा रहा है और आए दिन सांप्रदायिक दंगों की खबरें भी आती हैं. संसद से लेकर सड़क तक सुरक्षा के मसले पर बहस होती है. सांसद अपनी राय जाहिर करते हैं. एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं. लेकिन उस समस्या की जड़ तक कोई नहीं पहुंचता, जिससे घर के अंदर सुरक्षा चाक-चौबंद हो. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सुरक्षा की बाट जोह रहे इस देश में लगभग 5.5 लाख पुलिसकर्मियों की कमी है. यह तब है जब देश में 22 लाख पुलिस बल की जरूरत बताई गई है.
बीएसएफ और असम राइफल्स की बात छोड़ दें तो देश में अन्य सभी में अल्पसंख्यकों की प्रतिभागिता बढ़ी है. हालांकि गृह मंत्रालय के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, सीआरपीएफ, आईटीबीपी और सीआईएसएफ सहित सभी पैरामिलिट्री फोर्स में अल्पसंख्यक वर्ग की हिस्सेदारी 10 फीसदी से भी कम है.
गुजरात यहां नीचे से शीर्ष पर
पुलिसकर्मियों और सुरक्षाबलों की संख्या में सबसे अधिक कमी उन राज्यों में है, जो सांप्रदायिक हिंसा के लिहाज से संवेदनशील माने जाते हैं. जिस गुजरात मॉडल के नाम पर बीजेपी ने देश की सत्ता हासिल की, वहां वर्तमान पुलिस बल कुल जरूरी संख्या से 40 फीसदी कम है.

रेप से लेकर लूटपाट और दबंगई के मामले में यूपी का आंकड़ा भले ही बढ़ रहा हो, लेकिन राज्य में एक लाख पुलिस बल की कमी है. यह कुल जरूरी संख्या का 20 फीसदी है. यह तब है जब देश में सबसे अधिक पुलिस बल (3.6 लाख) की मंजूरी इसी राज्य को है.
नक्सल घटनाओं के बावजूद ध्यान नहीं
देश में सबसे अधिक नक्सली घटनाओं की वारदात छत्तीसगढ़ में होती है, लेकिन यहां भी पुलिस बल में 30 फीसदी रिक्तियां हैं. पश्चिम बंगाल भी इसी श्रेणी में 35 फीसदी पुलिस बलों की कमी का दंश झेल रहा है.
सबसे बेहतर स्थिति में महाराष्ट्र
मौजूदा पुलिस बलों की संख्या और संवेदनशीलता के लिहाज से महाराष्ट्र की स्थिति सबसे बेहतर है. यहां कुल मंजूर पुलिस बलों की संख्या 2 लाख 9 हजार 441 है, जबकि राज्य में सिर्फ 7 फीसदी यानी 13 हजार 790 पुलिस बलों की कमी है. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में मंजूर पुलिस बलों की संख्या के मुकाबले 7 फीसदी की कमी है.