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पायलट क्या बनाएंगे अपनी पार्टी, राजस्थान की सियासत में छत्रपों का नहीं चला जादू

सीएम अशोक गहलोत से बागवत करने वाले सचिन पायलट किसी पार्टी का दामन थामने के बजाय अपनी पार्टी बना सकते हैं. राजस्थान की सियासत में कई नेता अपनी राजनीतिक ताकत को आजमाने के लिए ऐसी कोशिश कर चुके हैं, लेकिन वो अपना असर नहीं दिखा सके. राजस्थान की सियासी जमीन ऐसी है, जहां सिर्फ दो ही दलों के बीच मुकाबला रहा है. ऐसे में पायलट क्या गुल खिलाएंगे?

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सचिन पायलट
सचिन पायलट

  • सचिन पायलट क्या बनाएंगे अपनी राजनीतिक पार्टी
  • पायलट बीजेपी में जाने से भी कर रहे हैं इनकार

राजस्थान के सियासी घमासान में बागी रुख अख्तियार करने वाले सचिन पायलट को कांग्रेस अभी मनाने में जुटी है, लेकिन वो अपनी मांगो-शर्तों से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं. पायलट न तो बीजेपी का दामन थाम रहे हैं और न ही कांग्रेस में वापसी के संकेत दे रहे हैं. ऐसे में पायलट अपने समर्थक विधायकों के साथ मिलकर नई राजनीतिक पार्टी बनाने की कवायद कर सकते हैं.

हालांकि, राजस्थान की सियासत में पहले भी कई नेता अपनी राजनीतिक ताकत को आजमाने के लिए ऐसी कोशिश कर चुके हैं, लेकिन वो अपना असर नहीं दिखा सके हैं. राजस्थान की सियासी जमीन ऐसी है, जहां सिर्फ दो ही दलों के बीच मुकाबला रहा है, यहां न तो कोई क्षेत्रीय दल पनप पाया है और न ही कोई छत्रप अपनी छाप छोड़ पाया है. ऐसे में सचिन पायलट अगर नई पार्टी बनाकर मैदान में उतरते हैं को क्या सियासी गुल खिलाएंगे यह वक्त ही बताएगा?

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घनश्याम तिवाड़ी

राजस्थान में वसुंधरा राजे सरकार के दौरान 2018 में बीजेपी के कद्दावर नेता घनश्याम तिवाड़ी ने बगावत कर अलग पार्टी बनाई थी. तिवाड़ी भारत वाहिनी पार्टी का गठन कर चुनावी मैदान में उतरे थे, लेकिन उन्हें एक भी सीट नहीं मिली. हालांकि, तिवाड़ी बीजेपी दिग्गज और मजबूत नेता माने जाते थे और छह बार विधायक और कई बार मंत्री भी रहे हैं. इसके बावजूद अपनी परंपरागत सीट नहीं बचा सके थे. इसके बाद उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस का दामन थाम लिया

हनुमान बेनीवाल

राजस्थान की सियासत में हनुमान बेनीवाल ने भी बीजेपी से बागवत कर राष्ट्रीय लोक तांत्रिक पार्टी का गठन किया है. 2013 में बेनीवाल ने वसुंधरा राजे और राजेंद्र राठौड़ के खिलाफ बागी रुख अख्तियार किया था, जिसके बाद बीजेपी ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. 2018 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने जमकर मेहनत की थी और 58 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे, जिनमें से महज 3 विधायक ही जीतकर आए थे और 2.4 फीसदी वोट मिला था. हालांकि, एक महीन के बाद ही उन्होंने बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया था और लोकसभा चुनाव में नागौर सीट से मैदान में उतरे और जीत दर्ज कर संसद पहुंचने में सफल रहे.

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किरोड़ी लाल मीणा

राजस्थान की राजनीति में मीणा समुदाय सियासी तौर पर काफी मजबूत माना जाता है. राजस्थान में गुर्जर आंदोलन के खिलाफ किरोड़ी लाल मीणा प्रमुख चेहरा बनकर उभरे थे. 2008 में बीजेपी से बगावत कर पूर्व लोकसभा स्पीकर पीए संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी में शामिल हो गए थे. इसके बाद उन्होंने अपनी अलग राष्ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी का गठन कर कांग्रेस और बीजेपी के विकल्प बनने की कोशिश की थी, लेकिन असफल रहे. 2013 के चुनाव में महज तीन सीट ही उन्हें मिल सकी थी जबकि मीणा समुदाय राजस्थान की करीब 3 दर्जन सीटों पर जीत-हार तय करते हैं. इसी का नतीजा था कि किरोड़ा लाल मीणा 2018 के विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी में वापसी कर गए. इसके बदले बीजेपी ने उन्हें इनाम में राज्यसभा भेजा.

देवी सिंह भाटी

राजस्थान में पूर्व मंत्री देवी सिंह भाटी बीकानेर के कोलायत सीट से सात बार विधायक रहे हैं और बीजेपी कद्दावर नेता माने जाते थे. बीकानेर से बीजेपी सांसद अर्जुनराम मेघवाल से अदावत के चलते 2019 के लोकसभा चुनाव में देवी सिंह भाटी ने बीजेपी का साथ छोड़ दिया है. इसके बाद उन्होंने सामाजिक न्याय मंच का गठन किया था और 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को समर्थन किया था.

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लोकेंद्र सिंह कालवी

राजस्थान की सियासत में करणी सेना के प्रमुख लोकेंद्र सिंह कालवी ने अपनी सियासी ताकत को नापने के लिए अलग पार्टी बनाई, लेकिन सफल नहीं रहे. लोकेंद्र सिंह कालवी अपना सफर बीजेपी से शुरू किया औ बाड़मेर सीट से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे. इसके बाद वो राजपूत समुदाय को आरक्षण की मांग को उठाकर सुर्खियों में आए थे. लोकेंद्र कालवी ने देवी सिंह भाटी के साथ मिलकर 'राजस्थान सामाजिक न्याय मंच' का गठन किया था.

2003 के विधानसभा चुनाव में लोकेंद्र कालवी ने 65 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए. इनमें से सिर्फ देवी सिंह भाटी ऐसे उम्मीदवार थे जो विधानसभा पहुंच पाए बाकी 65 में से 60 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई थी. इसके बाद कालवी ने करणी सेना का गठन किया. 2018 में पद्मावत मूवी का जमकर विरोध किया, जिससे उनके संगठन को अच्छी खासी पहचान मिली, लेकिन राजनीतिक विरासत को नहीं संभाल पाए.

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