ज्यूडिशियल ओवररीच, ज्यूडिशियल एक्टिविज्म पर गहरी क्षुब्धता जताते हुए भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने गुरुवार को विवादों का वो पैंडोरा बॉक्स खोल दिया है जिस पर भारतीय गणराज्य की लोकतांत्रिक बुनियाद टिकी हुई है. भारत का संविधान कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का बंटवारा करता है. इन तीन अंगों के बीच नियंत्रण और संतुलन (Checks and Balances) की व्यवस्था बनी है.
धनखड़ ने गुरुवार को विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों और दायित्वों पर ऐसा रोषपूर्ण भाषण दिया कि सत्ता के गलियारों से लेकर न्यायपालिका की चैंबर्स तक में एक डिबेट शुरू हो गई. धनखड़ के भाषण का मुख्य तर्क यह है कि न्यायपालिका को अपनी संवैधानिक सीमाओं का पालन करना चाहिए और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वायत्तता का सम्मान करना चाहिए. हालांकि सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण यह है कि वह संवैधानिकता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप कर सकता है.
यह विवाद न केवल कानूनी, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह भारत के लोकतंत्र की मजबूती और संतुलन पर सवाल उठाता है.
आइए सबसे पहले जगदीप धनखड़ के बयान का संदर्भ और उनके बयान के मायने को समझते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में एक ऐतिहासिक फैसला दिया था. इस फैसले में कोर्ट ने कहा कि अगर राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर उस पर फैसला लेना होगा. अगर विधेयक की संवैधानिकता पर सवाल हो, तो राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेनी चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 201 के अनुसार, जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो राष्ट्रपति को या तो उस पर सहमति देनी होती है या असहमति जतानी होती है. हालांकि, संविधान में इस प्रक्रिया के लिए कोई समयसीमा तय नहीं की गई है.
सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था कि कानून की यह स्थिति स्थापित है कि यदि किसी प्रावधान में कोई समयसीमा निर्दिष्ट नहीं है, तब भी वह शक्ति एक उचित समय के भीतर प्रयोग की जानी चाहिए. बेंच ने निर्देश दिया था कि हम यह निर्धारित करते हैं कि राज्यपाल द्वारा विचारार्थ भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को उस संदर्भ की प्राप्ति की तिथि से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना जरूरी है.
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का मतलब क्या?
सुप्रीम कोर्ट की ये टिप्पणी भारत के सत्ता के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति के अधिकारों में दखल माना गया. केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस बयान को चुनौती देने का फैसला किया. दरअसल यह फैसला राष्ट्रपति की स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति पर सवाल उठाता है. संविधान के अनुच्छेद 143 में राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेने का अधिकार है, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है. कोर्ट का यह निर्देश कि राष्ट्रपति को सलाह लेनी "चाहिए" राष्ट्रपति की स्वायत्तता पर अतिक्रमण है.
जगदीप धनखड़ का रोष, राष्ट्रपति की शपथ का सवाल
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने इस फैसले को संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन बताया. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च है और संविधान उन्हें स्वतंत्र रूप से कार्य करने की शक्ति देता है. कोर्ट का यह निर्देश कि राष्ट्रपति को समय-सीमा में फैसला लेना होगा या सलाह लेनी होगी, उनके अनुसार न्यायपालिका का कार्यपालिका पर अनुचित हस्तक्षेप है. धनखड़ ने इसे "सुपर संसद" की तरह व्यवहार करने का आरोप लगाया.
उपराष्ट्रपति धनखड़ न्यायपालिका की ओर से शुरू किए गए इस ट्रेंड पर रोष जताते हुए कहा, "हाल ही में एक फैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिया गया है, हम कहां जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है?". उन्होंने कहा कि,"हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां आप भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें और किस आधार पर?’
संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में न्यायपालिका के पास एकमात्र अधिकार ‘अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना’ है और वह भी पांच या उससे ज्यादा जजों की बेंच की ओर से किया जाना चाहिए. अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल बन गया है, जो न्यायपालिका के लिए 24x7 उपलब्ध है.
राज्यसभा के इंटर्न के साथ संवाद करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि हमने इस दिन के लिए लोकतंत्र की कभी कल्पना नहीं की थी, राष्ट्रपति से डेडलाइन के तहत फैसले लेने के लिए कहा जा रहा है और अगर ऐसा नहीं होता है, तो वह विधेयक कानून बन जाता है. हमारे पास ऐसे जज हैं जो कानून बनाएंगे, कार्यपालिका की तरह काम करेंगे, सुपर संसद के रूप में काम करेंगे और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता है.
उपराष्ट्रपति ने अपने भाषण में भारत के राष्ट्रपति का पद बहुत ऊंचा बताया. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण और बचाव की शपथ लेते हैं. यह शपथ केवल राष्ट्रपति और राज्यपाल ही लेते हैं. प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद और जज संविधान के अनुसार चलने की शपथ लेते हैं लेकिन संविधान की रक्षा करने की शपथ, संविधान को संरक्षित करने की शपथ सिर्फ राष्ट्रपति ही लेते हैं.
गौरतलब है कि उपराष्ट्रपति धनखड़ की ये चिंता तब सामने आई है जब सुप्रीम कोर्ट ने संसद के दोनों सदनों से पारित और राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित और गजट में प्रकाशित वक्फ संशोधन कानून के दो अहम प्रावधानों पर अगली सुनवाई के लिए रोक लगा दी है.
हालांकि केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्री ने वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से पहले एक संदेश देते हुए कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट विधायी मामले में दखल नहीं देगा. हमें एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए. अगर कल सरकार न्यायपालिका में हस्तक्षेप करती है तो यह अच्छा नहीं होगा.
जगदीप धनखड़ के बयान के मायने क्या?
राष्ट्रपति की शक्तियों पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश और वक्फ कानून जैसे मामलों में उसका हस्तक्षेप कार्यपालिका-न्यायपालिका और विधायिका-न्यायपालिका के बीच किसी किस्म के तनाव को उजागर करता है. भारत की शासन व्यवस्था में ऐसे तनाव और टकराव के मौके कम ही देखने को मिलते हैं. धनखड़ का बयान न्यायपालिका और लोकतांत्रिक संस्थाओं के बीच सीमाएं तय करने की बहस को आगे बढ़ाता है. यह केवल कानूनी मुद्दा नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की मूलभूत संरचना से जुड़ा प्रश्न है.
संस्थाओं के बीच संतुलन पर बहस
धनखड़ ने अपने बयान से सरकार के अंगों के बीच संतुलन की जरूरत पर जोर दिया है. गौरतलब है कि भारत का संविधान किसी एक संस्था (न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका) को सर्वोच्च नहीं मानता. संविधान निर्माताओं ने देश को ऐसा संविधान दिया जहां संस्थाएं मिलकर काम करती थीं. जगदीप धनखड़ ने अपने बयान में "संसदीय लोकतंत्र" के पक्ष को स्थापित करने की कोशिश की है. जहां जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की नीतिगत फैसलों की प्राथमिकता मिले, ये भारत के शासन का मूल चरित्र भी है. हालांकि यहां न्यायपालिका का जिम्मेदारी संविधान के संरक्षक की है. इसलिए समय समय पर अदालतों द्वारा की गई टिप्पणियों, फैसलों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. क्योंकि ये टिप्पणियां सरकार के व्यवहार पर नियंत्रण रखती हैं.
लेकिन समस्या तब खड़ी होती है जब जज ही जांच के दायरे में आ जाते हैं.
धनखड़ ने जस्टिस यशवंत वर्मा के घर बड़े पैमाने पर नगदी मिलने का मामला उठाते हुए कहा, 'अगर यह घटना आम आदमी के घर पर हुई होती तो इसकी (प्राथमिकी दर्ज किए जाने की) गति इलेक्ट्रॉनिक रॉकेट सरीखी होती, लेकिन उक्त मामले में तो यह बैलगाड़ी जैसी भी नहीं है. इस मामले में केस न दर्ज होने पर उन्होंने कहा कि क्या कानून से परे एक श्रेणी को अभियोजन से छूट हासिल है.
उपराष्ट्रपति ने कहा, "जब उनके जैसे संवैधानिक पदाधिकारी भी एफआईआर से मुक्त नहीं हैं, तो जज के खिलाफ इतनी लंबी संवैधानिक प्रक्रिया क्यों अपनाई जा रही है? उन्होंने कहा कि कानून के मुताबिक, हर संज्ञेय अपराध को पुलिस के पास दर्ज करना जरूरी है, और ऐसा न करना एक अपराध है."
न्यायपालिका को जांच और जिम्मेदारी के दायरे में लाने का संदेश
दरअसल उपराष्ट्रपति ने यह संदेश देने की कोशिश की कि न्यायपालिका को भी जिम्मेदारी और जांच के दायरे में लाने की जरूरत है. जब न्यायापालिका की जिम्मेदारी की बात होती है तो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की चर्चा होती है.
बता दें कि भारत में जजों की नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रिया को संचालित करने के लिए 2014 में पारित एक कानून था. यह कॉलेजियम सिस्टम को बदलने के लिए लाया गया था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका का प्रभुत्व था. इस कानून के तहत NJAC न्यायाधीशों के नामों की सिफारिश करता था, जिसे राष्ट्रपति मंजूरी देते थे. कानून मंत्री और "प्रतिष्ठित व्यक्ति" शामिल होने से न्यायपालिका पर एक चेक-एंड-बैलेंस स्थापित होता.
2015 में सुप्रीम कोर्ट ने NJAC को असंवैधानिक घोषित कर दिया. कोर्ट ने माना कि NJAC में कार्यपालिका (कानून मंत्री) की भागीदारी से न्यायपालिका की स्वायत्तता प्रभावित होगी. अदालत ने यह भी कहा कि संविधान के मूल ढांचे के तहत न्यायपालिका की स्वतंत्रता अटल है, जिसे संसद संशोधित नहीं कर सकती. SC ने कहा कि भले ही कॉलेजियम सिस्टम में खामियां हैं, लेकिन NJAC जैसा विकल्प संविधान के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं है. अभी सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम से ही होती है.
बता दें कि 2010 में मनमोहन सिंह सरकार (UPA-II) ने न्यायिक नियुक्तियों में सुधार पर विचार किया था. इस दौरान विधि आयोग और संसदीय समितियों ने कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता की कमी को उजागर किया. हालांकि, कांग्रेस ने NJAC जैसा कोई कानून 2010 में नहीं बनाया, बल्कि सिर्फ चर्चाएं हुईं.
उपराष्ट्रपति घनखड़ की ओर से गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट पर की गई टिप्पणी के बाद कई लोगों ने एक बार फिर से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की चर्चा सोशल मीडिया पर हो रही है.
न्यायपालिका इस संदेश को आत्मसात करेगी
पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने कहा कि न्यायपालिका को सलाह देते हुए कहा है कि चेक और बैलेंस की स्थिति को दोनों तरफ से काम करना चाहिए. उन्होंने एक्स पर पोस्ट कर कहा, "यह कहना जरूरी था. उपराष्ट्रपति की ओर से यह बात राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है. उम्मीद है कि न्यायपालिका इस संदेश को आत्मसात करेगी और अतिक्रमण और पावर ग्रैब से बचेगी. अगर ऐसा नहीं हुआ तो न्यायपालिका के बारे में जनता की राय में सवाल उठने लगेंगे जो हमारे लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह होगा. न्यायिक व्यवहार के रूप में आत्म-संयम सामान्य होना चाहिए. जांच और संतुलन दोनों तरफ़ से काम करना चाहिए."
कानून की खामियां दूर करे सरकार
वहीं वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े ने एक डिबेट शो में कहा कि अगर कोई कानून खराब है और उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया जाता है, तो उसे दोबारा लागू नहीं किया जा सकता. आपको उस कमी को ठीक करना होगा जो कोर्ट ने इंगित की है. संजय हेगड़े ने तर्क दिया कि अगर कोर्ट ने NJAC को खारिज किया, तो सरकार को उसकी खामियों को सुधारकर नया कानून बनाना चाहिए, न कि पुराने को दोहराना चाहिए.
RSS से जुड़ी संस्था ने की NJAC की मांग
गौरतलब है कि RSS से संबंधित वकीलों की संस्था अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद (एबीएपी) ने कुछ दिन पहले ही न्यायपालिका में नियुक्ति के लिए NJAC की मांग की थी.
इस संस्था ने एक बयान जारी कर कहा था कि, "उच्च न्यायपालिका में हाल की घटनाओं ने एक बार फिर देश को झकझोर दिया है. न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करते समय, किसी को जवाबदेही की अनदेखी नहीं करनी चाहिए - जवाबदेही प्रत्येक व्यक्ति की अंतरात्मा के प्रति नहीं, बल्कि एक स्थायी तंत्र के माध्यम से समाज के प्रति है जो पारदर्शी और जिसे वैरिफाई किया जा सकता है."
वीपी के बयान पर दुख और आश्चर्य
वहीं वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि मुझे वीपी का बयान पढ़कर दुख और आश्चर्य हुआ. उन्होंने कहा कि मुझे न्यायपालिका पर भरोसा है.
मुझे लगता है कि जब सरकार में बैठे कुछ लोगों को न्यायपालिका के फैसले पसंद नहीं आते तो वे दोष मढ़ते हैं. जब उन्हें फैसले पसंद आते हैं तो वे सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला देते हैं और कहते हैं कि 370 सुप्रीम कोर्ट का फैसला था.
सिब्बल ने कहा कि संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का ऐसा कहना सही नहीं है. आपने सेक्शन 142 को परमाणु मिसाइल कहा है. आप ऐसा कैसे कह सकते हैं. राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया होता है. राष्ट्रपति मंत्रियों की सलाह और सहायता पर काम करता है. यह केंद्र की मंत्रिपरिषद के पास जाता है. यह राष्ट्रपति का निजी अधिकार नहीं है. वीपी धनखड़ को यह पता होना चाहिए.