supreme court सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने आज राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से भेजे गए 14 संवैधानिक सवालों पर अपनी राय दी, जो राज्यपाल और राष्ट्रपति की ओर से विधेयकों पर कार्रवाई की समय-सीमा और उनकी शक्तियों से जुड़े हैं. राष्ट्रपति के संदर्भ में निर्णय सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने अपने ही एक पुराने निर्णय को पलटते हुए कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए सभी रोके गए विधेयकों के मामलों में लगाई गई समय सीमा न्यायोचित नहीं है. लेकिन राज्यपाल को अपने काम से संघवाद की अवधारणा को मजबूती देनी चाहिए ना कि इस मामले में रोड़ा बनना चाहिए.
कोर्ट ने कहा कि प्रभावी रूप से पारित होने से पहले एक विधेयक अदालत में आएगा यह न्यायसंगत नहीं है. केवल एक कानून जो पारित किया गया है वह न्यायसंगत हो सकता है. अनुच्छेद 200/201 के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल के कार्य का निर्वहन न्यायोचित है. राज्यपाल सदन से पारित विधेयकों को मंजूर करने, सदन को वापस भेजने या राष्ट्रपति के पास भेजने का अधिकार रखते हैं.
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यह संदर्भ उस फैसले के बाद आया था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को पारित बिलों पर तय अवधि में निर्णय लेना होगा. राष्ट्रपति ने इस पर संवैधानिक सीमाओं के उल्लंघन की चिंता जताई थी. दस दिनों की सुनवाई के बाद सुरक्षित रखे गए इस फैसले का असर संघीय ढांचे, राज्यों के अधिकार और गवर्नर की भूमिका पर व्यापक होगा.
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सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अपने फैसले में कहा, 'आर्टिकल 142 प्रयोग कर सुप्रीम कोर्ट विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता. यह राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में आता है.' SC ने कहा कि विधानसभा से पारित विधेयक को राज्यपाल अगर अपने पास रख लेता है तो यह संघवाद की भावना के खिलाफ होगा. हमारी राय है कि राज्यपाल को विधेयक को दोबारा विचार के लिए लौटाना चाहिए. सामान्य तौर पर राज्यपाल को मंत्रिमण्डल की सलाह पर काम करना होता है. लेकिन विवेकाधिकार से जुड़े मामले में वह खुद भी फैसला ले सकता है.
संविधान पीठ के निर्णय के मुताबिक चुनी हुई सरकार यानी कैबिनेट को ड्राइवर की सीट पर होना चाहिए. ड्राइवर की सीट पर दो लोग नहीं हो सकते. लेकिन गवर्नर का कोई सिर्फ औपचारिक रोल नहीं होता. गवर्नर, प्रेसिडेंट का खास रोल और असर होता है. गवर्नर के पास बिल रोकने और प्रोसेस को रोकने का कोई अधिकार नहीं है. वह मंजूरी दे सकता है. बिल को असेंबली में वापस भेज सकता है या प्रेसिडेंट को भेज सकता है.
कोर्ट ने कहा कि विधेयक के अधिनियम बनने के बाद ही न्यायिक समीक्षा लागू की जा सकती है. गवर्नर की ओर से बिलों को मंजूरी देने के लिए टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती. 'डीम्ड असेंट' का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राज्यपाल के लिए समयसीमा तय करना संविधान की ओर से दी गई लचीलेपन की भावना के खिलाफ है. पीठ ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास केवल तीन संवैधानिक विकल्प हैं- बिल को मंजूरी देना, बिल को दोबारा विचार के लिए विधानसभा को लौटाना या उसे राष्ट्रपति के पास भेजना. राज्यपाल बिलों को अनिश्चितकाल तक रोककर विधायी प्रक्रिया को बाधित नहीं कर सकते. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि न्यायपालिका कानून बनाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं कर सकती, लेकिन यह स्पष्ट किया कि- 'बिना वजह की अनिश्चित देरी न्यायिक जांच के दायरे में आ सकती है.'
पीठ ने राज्यपाल के विवेकाधिकार की संवैधानिक सीमाओं को रेखांकित करते हुए कहा कि बिलों को एकतरफा तरीके से रोकना संघवाद का उल्लंघन होगा. मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अगुआई वाली संविधान पीठ ने कहा, 'अगर राज्यपाल अनुच्छेद 200 में तय प्रक्रिया का पालन किए बिना विधानसभा की ओर से पारित बिलों को रोक लेते हैं, तो यह संघीय ढांचे के हितों के खिलाफ होगा.'
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल किसी बिल को मंजूरी देने के लिए उसे अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते, लेकिन साथ ही अदालत ने साफ किया कि उन पर समयसीमा तय करना शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) के सिद्धांत का उल्लंघन होगा. मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अगुआई वाली पीठ ने अपने पहले के उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें राज्यपाल और राष्ट्रपति को राज्य के बिलों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेने को बाध्य किया गया था. कोर्ट ने कहा कि संवैधानिक पदाधिकारियों पर कड़े समय-निर्धारण लागू करना न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के रेफरेंस पर फैसला सुनाते हुए कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल के पास मूल रूप से तीन ही विकल्प उपलब्ध हैं- बिल को मंजूरी देना, रोकना या राष्ट्रपति के लिए सुरक्षित रखना. अदालत ने स्पष्ट किया कि पहले प्रावधान (proviso) को चौथा विकल्प नहीं माना जा सकता. अदालत ने कहा कि जब दो व्याख्याएं संभव हों, तो वह व्याख्या अपनाई जानी चाहिए जो संवैधानिक संस्थाओं के बीच संवाद और सहयोग को बढ़ावा दे. कोर्ट ने टिप्पणी की कि भारतीय संघवाद की किसी भी परिभाषा में यह स्वीकार्य नहीं होगा कि राज्यपाल किसी बिल को बिना सदन को वापस भेजे अनिश्चितकाल तक रोके रखें. राष्ट्रपति के लिए बिल सुरक्षित रखना भी संस्थागत संवाद का हिस्सा है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को टकराव या बाधा पैदा करने के बजाय संवाद और सहयोग की भावना को अपनाना चाहिए.