पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में सड़के सुनसान हैं, दुकानें बंद हैं. हिंसा प्रभावित इलाकों में इंटरनेट नहीं चल रहा है. सुरक्षा बल सड़कों पर गश्त लगा रहे हैं. मुर्शिदाबाद जिले के हिंसा प्रभावित इलाकों मुख्य रूप से सुती, समसेरगंज, धुलियान और जंगीपुर में स्थिति शांतिपूर्ण है लेकिन तनाव बना हुआ है. हिंसाग्रस्त इलाकों में बीएनएसएस की धारा 163 के तहत निषेधाज्ञा लागू है.
बता दें कि शुक्रवार दोपहर से सुती, धुलियान, समसेरगंज और जंगीपुर इलाकों में भड़की हिंसा में तीन लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए, लेकिन जिले में कहीं से भी किसी नई घटना की खबर नहीं है. बता दें कि इस हिंसा में अबतक 3 लोगों की मौत हो चुकी है.
इस बीच पश्चिम बंगाल के नेता प्रतिपक्ष सुवेन्दु अधिकारी ने पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की है. उन्होंने कहा कि हम बंगाल में चुनाव से पहले राष्ट्रपति शासन की मांग करते हैं. सुवेन्दु अधिकारी ने कहा कि बंगाल में हिन्दूओं को सताया जा रहा है, उनके पास रहने के लिए घर नहीं है. राज्य में चुनाव से पहले हम राष्ट्रपति शासन की मांग करते हैं. सुवेन्दु अधिकारी ने कहा कि पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन के अंदर चुनाव कराना चाहिए.
बंगाल पुलिस के महानिदेशक राजीव कुमार पर आरोप लगाते हुए सुवेन्दु अधिकारी ने कहा कि वे बंगाल के पुलिस अधिकारी नहीं बल्कि ममता बनर्जी के कैडर हैं. उन्होंने कहा कि बिना राष्ट्रपति शासन के बंगाल में निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से चुनाव नहीं हो सकता है. सुवेन्दु ने आरोप लगाया कि जहां हिन्दू 50 प्रतिशत से कम हैं वहां ये लोग हिन्दुओं को वोट डालने नहीं देंगे.
चुनाव आयोग से मांग करते हुए सुवेन्दु अधिकारी ने कहा कि आयोग बंगाल में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करे. बता दें कि 2026 में मार्च-अप्रैल में पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने को हैं.
इसके अलावा केन्द्रीय जल शक्ति मंत्रालय राज्यमंत्री राज भूषण चौधरी ने भी राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग की है. उन्होंने कहा कि लगता ही नहीं है कि वहां बंगाल और हिन्दुस्तान की सरकार है, ऐसा लगता है कि वहां रोहिंग्या की सरकार है. इसलिए लॉ एंड ऑर्डर लागू करने के लिए वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया जाना चाहिए. अब हम बंगाल की स्थितियों को देखते हुए संवैधानिक प्रावधानों के आलोक में समझते हैं कि देश का संविधान किन परिस्थितियों में ऐसा करने की इजाजत देता है.
अनुच्छेद-356 कब, कैसे और किन परिस्थितियों में लगाया जाता है
जब देश का संविधान बन रहा था. तो संविधान निर्माताओं ने ऐसी किसी परिस्थिति का अनुमान लगाया था जब राज्य में सीधे केंद्र को हस्तक्षेप करने की जरूरत पड़ सकती थी. इसी को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति शासन का प्रावधान संविधान में किया गया है.
हालांकि संविधान निर्माता चाहते थे कि इस प्रावधान का उपयोग कम से कम हो. संविधान निर्माता डॉ बी आर आम्बेडकर ने कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि ऐसे अनुच्छेद कभी भी लागू नहीं होंगे और वे एक मृत पत्र (Dead letter) बनकर रह जाएंगे.
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लेकिन आजाद भारत का अनुभव ऐसा नहीं रहा. देश में अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग के कई मामले सामने आए.
भारतीय संविधान के भाग XVIII में उल्लिखित आपातकालीन प्रावधान भारत की संप्रभुता, एकता और सुरक्षा की रक्षा करते हैं. वे केंद्र सरकार को स्थिरता सुनिश्चित करने और लोकतांत्रिक ढांचे की रक्षा करने के लिए अस्थायी रूप से नियंत्रण संभालकर असाधारण संकटों से निपटने का अधिकार देते हैं. संविधान में तीन प्रकार की आपात स्थितियों का प्रावधान है - राष्ट्रीय (अनुच्छेद 352), राज्य (अनुच्छेद 356) और वित्तीय (अनुच्छेद 360).
अनुच्छेद 356 भारतीय संविधान का एक प्रावधान है, जो राष्ट्रपति शासन (President’s Rule) से संबंधित है. यह केंद्र सरकार को किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर उस राज्य की सरकार को बर्खास्त करने और वहां केंद्र के प्रत्यक्ष नियंत्रण में शासन स्थापित करने की शक्ति देता है. इसे संवैधानिक आपातकाल भी कहा जाता है.
गौरतलब है कि इससे पहले भी कानून व्यवस्था के मुद्दे पर बीजेपी बंगाल में राष्ट्रपति शासन की मांग कर चुकी है. इससे पहले पिछले साल जब कोलकाता में मेडिकल छात्रा के साथ रेप का मामला सामने आया था तो बीजेपी ने राष्ट्रपति शासन की मांग की थी.
केंद्र का उत्तरदायित्व
अनुच्छेद 355 में यह प्रावधान है कि संघ सरकार प्रत्येक राज्य को बाह्य आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाएगी तथा संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार शासन सुनिश्चित करेगी.
इसी के बाद संविधान में अनुच्छेद 356 है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 में राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रावधान है, बशर्ते राष्ट्रपति को यह विश्वास हो कि राज्यों में शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता. दूसरे शब्दों में, इसका इस्तेमाल तब किया जाना चाहिए जब राष्ट्रपति को राज्यपाल की रिपोर्ट या अन्य स्रोतों से यह विश्वास हो कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य नहीं कर पा रही है. राज्य में स्थिति ऐसी हो गई है कि
कोई भी पार्टी/गठबंधन सरकार बनाने में सक्षम न हो
या सरकार सदन में बहुमत खो चुकी हो
या फिर कानून-व्यवस्था का व्यापक रूप से उल्लंघन हो रहा हो.
राष्ट्रपति आमतौर पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करते हैं. राज्य की स्थिति के बारे में संतुष्ट होने के बाद राष्ट्रपति एक घोषणा जारी करते हैं, जिसके तहत राज्य विधानसभा को निलंबित या भंग किया जा सकता है.
राष्ट्रपति शासन शुरू में 6 महीने के लिए लागू होता है, जिसे संसद की मंजूरी से हर 6 महीने में बढ़ाया जा सकता है. इसे अधिकतम 3 साल तक लागू किया जा सकता है.
राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को राज्य प्रशासन संभालने का अधिकार देता है, जिससे कार्यकारी शक्तियों पर केंद्र का नियंत्रण हो जाता है और संसद को विधायी शक्तियों का प्रयोग करने की अनुमति मिल जाती है.
सरल शब्दों में कहें तो अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद राज्य का प्रशासन केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल के माध्यम से चलता है. राज्यपाल से उम्मीद की जाती है कि वे गैर-पक्षपातपूर्ण प्रशासकों की मदद से शासन चलाएंगे. इसके अलावा राज्य की कार्यकारी शक्ति केंद्र के पास चली जाती है, और विधायी शक्तियां संसद को हस्तांतरित हो सकती हैं.
आजादी के बाद 134 बार लागू हुआ अनुच्छेद 356
अनुच्छेद 356 का उपयोग 1950 में संविधान लागू होने के बाद से कई बार किया गया है. अगर आंकड़ों के आईने में देखें तो अबतक 134 बाद अनुच्छेद 356 का उपयोग किया गया है.
अनुच्छेद 356 का पहली बार उपयोग पंजाब में किया गया. जब 1951 में वहां राजनीतिक अस्थिरता के कारण सरकार संविधान के अनुसार कार्य नहीं कर पाई और इस प्रावधान को लागू किया गया.
इस अनुच्छेद का सबसे ताजा इस्तेमाल 13 फरवरी 2025 को किया गया जब राज्यपाल की रिपोर्ट के बाद राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा की.
राष्ट्रपति शासन का इतिहास
1971 से 1990 के बीच भारत के अलग अलग राज्यों में 20 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया.
1960-70 के दशक में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने अनुच्छेद 356 का व्यापक उपयोग किया, खासकर विपक्षी दलों की सरकारों को हटाने के लिए. 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार आई तो 12 कांग्रेस शासित राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया, इसे जवाबी कार्रवाई माना गया. 1980 में इंदिरा गांधी की वापसी के बाद अनुच्छेद 356 के जरिये 9 विपक्षी सरकारों को हटाया गया.
1991 से 2010 के बीच इसका 27 बार इस्तेमाल किया गया. अयोध्या आंदोलन के दौरान केवल 1991 और 1992 में इसका 9 बार इस्तेमाल किया गया.
बता दें कि पश्चिम बंगाल में अनुच्छेद 356 को 4 बार लागू किया गया है.
बोम्मई केस का अहम फैसला
भारत में अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का मामला कई बार आया है. इस मामले में 1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ के मामले में दिया गया फैसला अहम है.
1989 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई की जनता दल सरकार को केंद्र ने अनुच्छेद 356 के तहत बर्खास्त कर दिया.राज्यपाल ने दावा किया कि बोम्मई सरकार ने विधानसभा में बहुमत खो दिया है. सीएम बोम्मई ने इसे असंवैधानिक और केंद्र की राजनीतिक साजिश बताया. फिर ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.
इस मामले में 9 जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से महत्वपूर्ण फैसला दिया. इस जजमेंट को अनुच्छेद 356 के मामले में नजीर माना जाता है.
एस.आर. बोम्मई केस ने अनुच्छेद 356 को एक आपातकालीन प्रावधान तक सीमित कर दिया, जिसका उपयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में और न्यायिक निगरानी के साथ हो सकता है. इसने भारतीय लोकतंत्र और संघवाद को मजबूत किया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 356 की घोषणा न्यायिक समीक्षा के अधीन है यानी कि पीड़ित पक्ष इस फैसले के खिलाफ कोर्ट जा सकता है.
अदालत ने कहा कि अगर घोषणा असंवैधानिक या दुर्भावनापूर्ण पाई जाती है तो इसे रद्द किया जा सकता है.
अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति शासन केवल तभी लागू हो सकता है जब ठोस सबूत हों कि राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य नहीं कर पा रही.
सामान्य प्रशासनिक समस्याएं, भ्रष्टाचार, या कानून-व्यवस्था की विफलता राष्ट्रपति शासन का पर्याप्त आधार नहीं हैं. अदालत ने फैसला दिया कि केंद्र को राष्ट्रपति शासन का कारण बताना होगा और यह संसद और अदालत की जांच के अधीन होगा.
अदालत ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का मूल ढांचा है. इसे कमजोर करने वाली कार्रवाइयां अनुच्छेद 356 का आधार नहीं हो सकतीं. कोर्ट के फैसले के अनुसार अगर घोषणा अवैध पाई जाती है, तो भंग विधानसभा को बहाल किया जा सकता है
अदालत के फैसले का सार यह था कि अनुच्छेद 356 का उपयोग राज्यों की स्वायत्तता का उल्लंघन नहीं कर सकता. यह "अंतिम उपाय" है, न कि राजनीतिक हथियार.
इस फैसले के बाद बोम्मई सरकार को बहाल नहीं किया गया क्योंकि नई सरकार बन चुकी थी लेकिन इस फैसले ने भविष्य के लिए मिसाल कायम की. 1994 के बाद इसका दुरुपयोग काफी हद तक रुका, क्योंकि केंद्र को अब ठोस सबूत पेश करने पड़ते हैं.
इसी फैसले का हवाला देते हुए 1997 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह सरकार पर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश को राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने खारिज कर दिया था. 2005 में बिहार में विधानसभा भंग करने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक माना था.