
हमारी Retro Review सीरीज के तहत इस बार हम नजर डालते हैं 1968 की जासूसी थ्रिलर ‘आंखें’ पर. वह फिल्म जिसने अपने समय के सभी बॉलीवुड हिट्स को पीछे छोड़ दिया. इसमें था जेम्स बॉन्ड जैसा अंदाज, लेकिन धर्मेन्द्र के देसी स्टाइल के साथ.
फिल्म: आंखें (1968)
कलाकार: माला सिन्हा, धर्मेन्द्र, महमूद, कुमकुम, नज़ीर हुसैन, जीवन, मदन पुरी
निर्देशक: रामानंद सागर
संगीत/गीत: रवि, साहिर लुधियानवी
बॉक्स ऑफिस स्थिति: सुपरहिट
कहां देखें: यूट्यूब पर मुफ्त में उपलब्ध
देखने की वजहें: जेम्स बॉन्ड से इंस्पायर्ड देसी गैजेट्स, हिटलर जैसे अजीबोगरीब खलनायक, लेबनान-प्रेरित महिलाओं का ट्रेंडी फैशन.
कहानी की सीख: कर्तव्य की भावना इच्छाओं से ऊपर है. क्योंकि जब एक संस्कारी जासूस दुश्मनों से लड़े, तो भारत को कोई हरा नहीं सकता.
रिव्यू...
क्या होता है जब रामानंद सागर, जेम्स बॉन्ड से प्रेरणा लेते हैं? आपको मिलता है एक ऐसा 007 जो न सिगरेट पीता है, न मार्टिनी में दिलचस्पी रखता है, और जो सुंदर महिलाओं से दूर भागता है, चाहे वे खुद उस पर फिदा क्यों न हों. यानी एक संस्कारी जासूस- जो कलयुग के शराब, शबाब और तबाही वाले गुप्तचर के बजाय सतयुगी अवतार बनकर सामने आता है.
‘आंखें’ में वही रामानंद सागर- जिन्होंने दो दशक बाद दूरदर्शन पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम दिया- हमें देते हैं सुनील (धर्मेन्द्र), एक ऐसा इंटरनेशनल स्पाई जो कभी अपनी मर्यादा की लक्ष्मण रेखा पार नहीं करता. दो खूबसूरत महिलाएं उसकी दीवानी हैं और उसका पीछा करती हैं. लेकिन जैसे ही वे उससे करीब होने की कोशिश करती हैं, संस्कारी सुनील उन्हें देश, कर्तव्य और धर्म पर भाषण देने लगता है.
‘आंखें’ जेम्स बॉन्ड की रात की रंगीनियों का विरोध करती है, लेकिन उनके दिन के गैजेट्स से परहेज नहीं करती. जैसे रामायण में तीर एक-दूसरे को सांप की सीटी जैसी आवाज के साथ चूमते हैं और फिर गिर जाते हैं, वैसे ही रामानंद सागर यहां कुछ बेहद ‘टैकी’ लेकिन दिलचस्प गैजेट्स लेकर आते हैं. एक डिवाइस है- कम्पास जैसा, जो टू-टू-टू करता है जब भी सुनील पास आता है. दूसरा गैजेट- एक स्टेथोस्कोप जैसा, जो लेबनान के होटल में शराब की बोतलों में छिपे ‘बग्स’ को पकड़ता है. और एक दृश्य में तो सागर ने भविष्य के टॉम क्रूज को भी पछाड़ दिया. एक ऐसा मास्क दिखाकर जो एक देशभक्त को गद्दार में बदल देता है.
अफसोस, सागर ने इस मास्क का पेटेंट नहीं कराया, वरना मिशन इम्पॉसिबल से मिलने वाले रॉयल्टी ने उनकी आंखें और भी दूर तक देख पातीं. यहां तक कि उनमें से एक महिला मौत को गले लगाना बेहतर समझती है. क्योंकि उसके सामने एक ऐसा जासूस है, जो माइक मायर्स की बॉन्ड स्टाइल की तरह "शेक ए लेग" तो क्या, आंख तक नहीं झपकाता.
‘आंखें’ की स्क्रिप्ट एक साथ दिखावटी भी है और दूरदर्शी भी. इसमें Kingsmen जैसी एक गुप्त संस्था दिखाई गई है, लेकिन देसी अंदाज में जहां भारत को बचाने का जिम्मा लिया है. कुछ रिटायर्ड आईएनए (आजाद हिंद फौज) अफसरों ने, जो देश के दुश्मनों को जड़ से खत्म करने को तैयार हैं. दुश्मन भी कम दिलचस्प नहीं है, बल्कि पूरा झुंड है. इसका सरगना है डॉ. एक्स, जिसे निभाया है जीवन ने. वह हमेशा दांत भींचकर आदेश देता है, और उसकी आवाज इतनी बिखरी हुई लगती है कि सुनकर लगता है जैसे उसे जल्द से जल्द कोई लैक्सेटिव लेने की जरूरत है.
डॉ. एक्स का लुक हिटलर जैसा है- खाकी कपड़े, सख्त हावभाव, लेकिन उसका कोडनेम है नेपोलियन. उसका ठिकाना भारत के पूर्वोत्तर में कहीं है और उसका मिशन है: भारत को अस्थिर करना, किसके लिए? (हिंट: पाकिस्तान नहीं!)
उसका सबसे डरावना हथियार है ‘मैडम’ ललिता पवार. एक दृश्य में, छोटी कद-काठी वाली पवार एक झुंड पर अकेली भारी पड़ती हैं- कराटे चॉप्स से मर्दों की पूरी टोली को चीरती चली जाती हैं. सिर्फ इस एक सीन के लिए ही ‘आंखें’ को फिर से देखना बनता है. संस्कारी सुनील को भेजा जाता है लेबनान- इस रहस्यमयी डॉक्टर एक्स की असल पहचान पता लगाने के लिए.
मिशन तो जैसे बच्चों का खेल है, क्योंकि लेबनान में हर कोई धड़ल्ले से हिंदी बोलता है! और दो महिलाएं, जो सुनील के बेसुध कानों में मीठी-मीठी बातें फुसफुसाती हैं, उसकी मदद के लिए तैयार भी हैं. एक बेतुकी बात से दूसरी और भी अजीब बात जुड़ती जाती है. और इस तरह संस्कारी सुनील अपने मिशन को कामयाबी से पूरा कर लेता है.
ठंडा परोसा गया गर्म धरम
फिल्म के आधे रास्ते में ही आप सोचने लगते हैं- धर्मेन्द्र ने आखिर ये फिल्म साइन क्यों की? उनका किरदार सुनील, जोधपुरी कोट में एंट्री करता है, जैसे मंडप पर दुल्हन के भाग जाने के बाद अकेला खड़ा दूल्हा हो, कोई स्टाइलिश स्पाई नहीं. न कोई ढ़ाई किलो का डायलॉग, न कोई हॉट सीन, बस इतना संस्कार कि गर्म धरम भी बर्फ हो जाए. लेकिन तभी समझ आता है, ‘आंखें’ असल में धर्मेन्द्र की फिल्म है ही नहीं. ये तो माला सिन्हा का जलवा है. 60 के दशक के अंत में बॉक्स ऑफिस की महारानी, माला सिन्हा हर फ्रेम पर पूरी तरह से छाई हुई हैं.
वो बिना किसी झिझक के हर लुक में फिट हो जाती हैं, हेयरस्टाइल्स, किमोनो, साड़ी, स्कर्ट, या अरबी ड्रेस. माला सिन्हा हर रूप में बेहद असरदार लगती हैं. जापान में सुनील का पीछा करने से लेकर, रवि-साहिर के गानों को भावनाओं के ज्वालामुखी में ढालने तक, और क्लाइमैक्स में खलनायकों को गोली मारने तक, वो हर सीन में छा जाती हैं. यह सिर्फ एक जासूसी कहानी नहीं है- यह तो एक फेमिनिस्ट उत्सव है, जिसमें माला सिन्हा उतनी ही खूबी से स्टीरियोटाइप्स को ध्वस्त करती हैं, जितनी कुशलता से विलेन को धूल चटाती हैं.
धर्मेन्द्र को भी अपना मर्दाना पल मिलता है- एक ऐसे सीन में जो सिर्फ उनके लिए ही लिखा गया हो. जब उन्हें एक पिंजरे में बंद कर दिया जाता है, और बाहर बाघ पहरा दे रहा होता है. वो सिर्फ भागते नहीं, लोहे की सलाखें काटते हैं, और फिर बाघ से कुश्ती भी करते हैं! यही तो था वो टेम्पलेट जिसे 70 के दशक के बॉलीवुड ने अपनाया, जब बाघों की भारी मांग थी.
‘आंखें’ अपने देसी जुगाड़ू गैजेट्स, अति-नाटकीय भावनाओं और मासूम लेकिन बेमिसाल मनोरंजन के साथ 1960 के दशक की बॉलीवुड टाइम ट्रैवल है- बेतुकी, सच्ची और मनोरंजक. इसे पुरानी यादों के लिए रीवाइंड करें, और रुक जाएं उस हिम्मत के लिए, जहां एक संस्कारी जासूस 007 को ऐसा बगैर मकसद वाला बागी बना देता है, जिसके पास न शराब है, न औरतें- बस देश है. बस देश, न मदिरा, न मादकता- यही है ‘आंखें’.