हर दिन दुनिया भर का सिनेमा चखने की अभ्यस्त हो चुकीं आंखों को नए कॉन्सेप्ट लेकर आए, नए इंडिपेंडेंट फिल्ममेकर्स का बनाया रॉ सिनेमा देखना एक फ्रेश अनुभव लगता है. इस बार ये मौका बनाया है फिल्म 'बैदा' ने. यूट्यूब पर अपनी किस्सागोई से लोगों का ध्यान खींचने वाले कहानीकार सुधांशु राय की फिल्म 'बैदा' का ट्रेलर पिछले दिनों सोशल मीडिया पर काफी चर्चा में रहा. इस साइंस फिक्शन फिल्म का ट्रेलर देखने के बाद लोग 'तुम्बाड़' जैसी फिल्म से इसकी तुलना करने लगे, जिसने अचानक से सिनेमा लवर्स में एक खलबली मचा दी थी.
इस तुलना ने 'बैदा' के ट्रेलर को जनता से काफी पॉजिटिव तारीफें दिलाईं. 'बैदा' देखने के बाद ये कहा जा सकता है कि ये फिल्म एक बेहद दिलचस्प आईडिया को पर्दे पर लाने की अच्छी कोशिश है. डायरेक्टर पुनीत शर्मा और लीड एक्टर-राइटर-प्रोड्यूसर सुधांशु राय को इस कोशिश के लिए पूरे नंबर मिलने चाहिए. बहुत लिमिटेड संसाधनों में, अपने गांव में शूट हुई फिल्म में जिस तरह उन्होंने साइंस-फिक्शन के कॉन्सेप्ट को उतारने की कोशिश की है वो हर तरह से सराहनीय है. हालांकि हर फिल्म की तरह 'बैदा' की भी अपनी समस्याएं हैं.
क्या है 'बैदा' की कहानी?
ये फिल्म एक एक्स इंटेलिजेंस ऑफिसर रामबाबू (सुधांशु राय) की कहानी है जिसके काम का हिंसक स्वभाव उसे मेंटली परेशान करने लगा है. अब वो एक ट्रेक्टर कंपनी के लिए काम करने लगा है और उसका ये काम उसे एक दूरदराज के गांव में ले जाता है, जहां तक पहुंचने के लिए उसे आधी रात को घने जंगल से पैदल गुजरना है. रामबाबू भटक जाता है और उसे एक संदिग्ध सा लगने वाला आदमी अपनी झोंपड़ी में रुकने की जगह देता है.
कुछ मिनटों बाद रामबाबू खुद को आजादी से पहले के समय में पाता है, जहां उसे फांसी होने वाली है. वो फांसी से बचकर निकलता है तो खुद को वापस उस जगह पड़ा पाता है, जहां वो बीती रात था. मगर अब ना तो वो अजनबी है, ना उसकी झोंपड़ी. तंत्र शक्ति का अभ्यास करने वाली एक महिला से उसे पता चलता है कि उसे जो अजनबी मिला था, वो एक पिशाच है जिसने अपनी शक्तियों से एक अलग दुनिया बना रखी है. रामबाबू भले उसकी दुनिया से निकल आया है लेकिन उसकी जान अभी सुरक्षित नहीं है. क्या एक्स ऑफिसर रामबाबू इस पिशाच से लड़कर उसकी इस भयानक दुनिया का तिलिस्म तोड़ पाएगा? यहां देखें 'बैदा' का ट्रेलर:
'बैदा' का स्क्रीनप्ले और ट्रीटमेंट
इस तरह की कहानी के तीन बड़े हिस्से होते हैं- हीरो की कहानी, विलेन का रहस्य और उस रहस्य का तोड़. 'बैदा' फर्स्ट हाफ में पहले रामबाबू की कहानी बताती है. लेकिन ये हिस्सा जरूरत से ज्यादा लंबा लगता है क्योंकि इसमें लंबे-लंबे शॉट्स हैं. अपने विलेन तक पहुंचाने में फिल्म जितना समय लेती है वो थोड़ा कम हो सकता था क्योंकि कहानी का सारा कनफ्लिक्ट वहीं पर है.
एक बार जब रामबाबू विलेन के ट्रैप में फंसता है और ब्रिटिश काल में पहुंचता है तब आपका ध्यान फिल्म की कहानी में पूरी तरह फंसा होता है. फिल्म का पहला आधा हिस्सा कहानी को बांधता है. जबकि दूसरे हिस्से में कहानी ज्यादा भारी है क्योंकि इसी हिस्से में रामबाबू को पिशाच का सेटअप समझना है और उसके तिलिस्म को तोड़ना है. इस काम में उसकी मदद दो लोग करते हैं- एक तांत्रिक लड़की हिलमा और विज्ञान के पेंच सुलझाने वाला साइंटिस्ट टाइप का व्यक्ति डॉक्टर शेखावत.
इस हिस्से में 'बैदा' के विलेन का बिज्ञान थोड़ा भारी साबित होता है. सुधांशु का लिखा स्क्रीनप्ले अपने विलेन के काम करने के तौर तरीके, उसके विज्ञान या तांत्रिक गणित एक्सप्लेन करने में चूकता है. हिलमा का काम फिर भी समझ आता है, लेकिन डॉक्टर शेखावत के कैरक्टर को फिल्म एंगेजिंग तरीके से समझा नहीं पाती. पिशाच ने साइंस और तांत्रिक शक्तियों को किस तरह मिलाकर एक नया संसार रचा है वो भी स्पष्ट नहीं होता. और इसीलिए इस हिस्से में फिल्म से कनेक्ट कर पाना थोड़ा मुश्किल होता है. यानी 'बैदा' एक पावरफुल विलेन बनाने में तो कामयाब होती है, लेकिन उस विलेन का लॉजिक नहीं एक्स्प्लेन कर पाती जिसकी वजह से सेकंड हाफ में कई चीजों का सेन्स समझ पाना मुश्किल हो जाता है.
एक्टिंग और टेक्निकल पहलू
बतौर हीरो सुधांशु अपनी परफॉरमेंस से ध्यान बांधने और एक अनजान समस्या में फंसे हीरो की उलझन से दर्शकों को रिलेट करवाने में कामयाब हुए हैं. पिशाच के रोल में सौरभ राज जैन की बॉडी लैंग्वेज, आंखें और आवाज कमाल करते हैं. बिना किसी बाहरी मेकअप या प्रोस्थेटिक हेल्प के सिर्फ अपनी एक्टिंग से ही वो भरपूर दमदार विलेन लगते हैं.
फिल्म में कॉमिक रिलीफ लाने वाले किरदार गोलू के रोल में शोभित सुजय जमते हैं और फिल्म के भारी सेकंड हाफ में कुछ हल्के मोमेंट्स लेकर आते हैं. हितेन तेजवानी का किरदार कहानी में क्लियर नहीं है और उनका स्क्रीनटाइम भी बहुत कम है. जबकि शेखावत के रोल में तरुण खन्ना का एक सीन दिलचस्प है. उनका किरदार अगर स्क्रीनप्ले में थोड़ा क्लियर होता तो मजा आता. बाकी सपोर्टिंग एक्टर्स का काम भी अपनी जगह ठीक है.
टेक्निकली सॉलिड प्रेजेंटेशन
'बैदा' के डी ओ पी अभिषेक मोदक ने जिस तरह रात के सीन शूट किए हैं वो कहानी का पूरा माहौल बनाते हैं. 'कांतारा' जैसी फिल्म पर काम कर चुके प्रतीक शेट्टी की एडिटिंग भी टाइट है और महत्वपूर्ण सीन्स को दमदार बनाती है. 'बैदा' में सबसे ज्यादा जान डाली है रोनाडा बक्केश और कर्तिक चेनोजी राव के बैकग्राउंड स्कोर ने. फिल्म का स्कोर लगातार कहानी में सस्पेंस और थ्रिल वाला मूड बनाए रखता है.
'बैदा' पर बजट और रिसोर्स की कमी का असर साफ नजर आता है. एक साइंस फिक्शन थ्रिलर होने के नाते इस फिल्म का कॉन्सेप्ट स्पेशल इफेक्ट्स और बेहतर सेट्स के साथ ज्यादा असरदार तरीके से स्क्रीन पर आ सकता था. खासकर क्लाइमेक्स सीक्वेंस में बेहतर प्रेजेंटेशन फिल्म का लेवल बहुत ऊपर उठा सकता था. कम रन टाइम के बावजूद फिल्म लंबी इसलिए लगती है क्योंकि बहुत जगहों पर सीक्वेंस में शॉट्स कम हैं. ऐसा तब होता है जब रिसोर्स की कमी की वजह से अलग-अलग कैमरा एंगल के शॉट्स कम होते हैं. लेकिन ये सब बातें एक तरफ रख देने पर भी 'बैदा' की सबसे बड़ी कमी स्क्रीनप्ले में नजर आती है.
स्क्रीन पर 'बैदा' देखते हुए या जज करते हुए ये ध्यान रखना जरूरी है कि ये बिल्कुल भी 'तुम्बाड़' जैसी फिल्म नहीं है. इसका प्लॉट, कहानी का ट्रीटमेंट और सेटअप बहुत अलग है. ये एक बेहद लिमिटेड बजट में बनी फिल्म है जो आपकी नजर में आने वाली रूटीन फिल्मों की तरह बहुत अच्छे तरह से पॉलिश की हुई नहीं है.
सुधांशु को यूट्यूब पर बतौर कहानीकार सफलता 2019-20 के बाद ही मिलनी शुरू हुई है. करीब 5 सालों के अंदर ही अपने लिमिटेड संसाधनों में उन्होंने जिस तरह की महत्वाकांक्षा और नए कॉन्सेप्ट के साथ फिल्म बनाई है, वो सराहनीय है. जब आप फिल्म मेकिंग के प्रोसेस और फिल्ममेकर्स के संसाधनों की सीमाओं को ध्यान में रखकर 'बैदा' देखते हैं, तो इसके कई हिस्से आपको इम्प्रेस करते हैं.