कभी सोचा है कि हम अक्सर वो काम क्यों करते हैं जो हमें नहीं करना चाहिए? जैसे कि काम का टाइम हो लेकिन फोन उठाकर इंस्टा रील्स में खो गए. ऑफिस में डेडलाइन सिर पर हो लेकिन यूट्यूब पर मजेदार वीडियो में फंस गए. मन ही मन जानते हुए कि इस सबमें टाइम बर्बाद हो रहा, फिर भी रुक नहीं पाते. इसके पीछे न्यूरोसाइंस का बड़ा रोल है, जिसे समझकर आप नई आदत आसानी से अपना सकते हैं.
जी हां, न्यूरोसाइंस कहता है कि हम जो करते हैं उसका 40% हिस्सा हमारी च्वाइस या फैसला नहीं, बल्कि आदत होती है. इसी तरह बुरी आदतें हमारे दिमाग की वो मेहमान हैं, जो बिना बुलाए आते है और आसानी से जाने का नाम नहीं लेते. फिर इनसे छुटकारा कैसे पाएं? और नई और अच्छी आदत कैसे बनाएं? न्यूरोसाइंस इसके लिए एक छोटा सा बदलाव अपनाने की सलाह देता है.
कैसे चलती है दिमाग में सही-गलत की जंग
न्यूरोसाइंस की मानें तो हमारे दिमाग में दो हिस्से आपस में भिड़ते रहते हैं. एक है प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स जो तर्क के लिए जिम्मेदार है. ये कहता है पहले अपना काम कर लो, अपने टारगेट पर ध्यान दो. वहीं दूसरा हिस्सा ऑर्बिटोफ्रंटल कॉर्टेक्स इसे रोक देता है. मसलन ये हिस्सा सलाह देता है कि अरे, बस दो मिनट और, कर लेंगे. आम लोगों में ज्यादातर बार ये लालची वाला हिस्सा जीत जाता है. इसिलए क्योंकि ये हावी होता है और हमारा दिमाग तुरंत मजा चाहता है.
Good Habits, Bad Habits की लेखिका डॉ. वेंडी वुड ने एक वेबसाइट को दिए अपने बयान में कहा कि जब हमारा दिमाग सोच-समझकर काम करता है तो हम अपने गोल्स की तरफ बढ़ते हैं. वहीं, जब आदतें हावी हो जाती हैं तो हम बिना सोचे-समझे बस वही करते हैं जो आसान है. उदाहरण के लिए बिना इरादे के स्क्रॉल करते रहना, वीडियो देखते रहना.
बुरी आदत तोड़ने का न्यूरोसाइंस फंडा
तो इस आदत के चक्कर से निकलें कैसे? इस सवाल का जवाब आसान है लेकिन अमल में लाना उतना ही मुश्किल. वो जवाब है कि सोचना शुरू करो लेकिन सही वक्त पर. मतलब आदत शुरू होने से पहले नहीं बल्कि उसके दौरान.
इसे ऐसे समझिए कि मान लीजिए आप इंस्टा खोलकर रील्स देख रहे हैं. उस वक्त रुकें और खुद से पूछें कि यार, ये क्यों कर रहे हैं. इससे मुझे क्या मिल रहा है? शायद थोड़ा मजा, थोड़ा टाइमपास. लेकिन अब जरा सोचिए कि क्या ये मजा उस गोल से ज्यादा कीमती है जो इसके लिए आप छोड़ रहे हैं? क्या ये रील्स आपको उस डेडलाइन, उस प्रोजेक्ट या उस सपने के करीब ले जा रही हैं? जवाब शायद नहीं में होगा.
पहली बार में ये सोचने से शायद फर्क न पड़े लेकिन इसे बार-बार दोहराइए. हर बार जब आप बुरी आदत में फंसें, उसी वक्त खुद से सवाल करें. धीरे-धीरे आपका दिमाग समझ जाएगा कि ये टाइमपास का मजा बाद में पछतावे से ज्यादा कीमती नहीं.
नई आदत को अपनाने का फायदा
जब आप ऐसा करते हैं तो आपका वो लालची ऑर्बिटोफ्रंटल कॉर्टेक्स भी आपके तर्क वाले प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स के साथ तालमेल बिठाने लगता है. वो हावी होना बंद कर देता है. और फिर आपकी आदत बदलने लगती है. आप बिना सोचे रील्स स्क्रॉल करने की बजाय बिना सोचे काम पर फोकस करने लगते हैं.
डॉ. वुड कहती हैं कि आदतें हमें दूसरी चीजों पर फोकस करने की आजादी देती हैं लेकिन विलपावर की लिमिट सीमित होती है. जब वो खत्म होती है तो हम आदतों के वश में होते हैं. फिर ऐसे में क्यों न हॉबी या आदत ही ऐसी बनाई जाए जो हमें ऊपर ले जाए? मतलब अपने को इंटरटेन करने का तरीका अगर थोड़ा अलग होगा, जैसे थोड़ी-सी वॉक, रीडिंग या कोई और अच्छी आदत तो आपको एक अच्छा अहसास होगा.
कैसे लाएं खुद में चेंज
अगली बार जब खुद को बुरी आदत में फंसता देखें, चाहे वो फोन स्क्रॉल करना हो, जंक फूड खाना हो या टीवी पर टाइम वेस्ट करना. इस समय ठिठककर उसी वक्त पूछिए खुद से कि ये मुझे क्या दे रहा है? और इसके बदले मैं क्या खो रहा हूं?. ये छोटा सा बदलाव, ये एक पल की सोच ही वो चिंगारी है जो आपकी बुरी आदत को जलाकर राख कर देगी.