भारत पर राज करने के दौरान ब्रिटिश ने लोगों पर कई तरह के अत्याचार किए. लेकिन उस दौर की 16 अक्टूबर, 1905 की तारीख इतिहास में दर्ज हो गई. यह वह तारीख है जब भारत पर ब्रिटिश सरकार के विचारों का 'हमला' हुआ था.
धर्म के आधार पर भारतीयों को बांटा और बंगाल बना डाला. ब्रिटिश सरकार ने हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने की तैयारी कई महीनों पहले शुरू कर दी थी. जुलाई 1905 को इसकी आधिकारिक घोषणा भी कर दी. बड़े स्तर पर लगभग चार महीने चले विरोध के बावजूद बंगाल विभाजन हुआ.
बंगाल विभाजन क्यों हुआ?
भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने 20 जुलाई 1905 को बंगाल विभाजन की आधिकारिक घोषणा की थी. विभाजन पर कर्जन का तर्क था कि तत्कालीन बंगाल, जिसमें बिहार और ओडिशा भी शामिल थे. काफी बड़ा है, जहां व्यवस्था बनाए रखने के लिए अकेला लेफ्टिनेंट गवर्नर काफी नहीं है. विभाजन से पहले बंगाल की कुल जनसंख्या लगभग 8 करोड़ थी और बिहार, ओडिशा व बांग्लादेश इसका हिस्सा थे.
बंगाल की प्रेसिडेंसी सबसे बड़ी थी. तब कर्जन ने प्राशासनिक असुविधा का सहारा लेकर बंगाल विभाजन की रूपरेखा तैयार कर दी और कुछ महीनों बाद इसपर अमल हुआ. कर्जन ने मुस्लिम बहुल पूर्वी हिस्से को असम के साथ मिलाकर अलग प्रांत बना दिया. दूसरी ओर हिंदू-बहुल पश्चिमी भाग को बिहार और ओडिशा के साथ मिलाकर पश्चिम बंगाल नाम दे दिया.
वहीं, जानकार कहते हैं कि मामला इतना सीधा नहीं था जिसे बताकर कर्जन ने बंगाल विभाजन किया. दरअसल, उस समय अंग्रेजी सरकार और उसकी नीतियों का विरोध करने में बंगाल के लोग सबसे आगे थे. बंगाल उस वक्त राष्ट्रीय चेतना और देश भक्ति का केंद्र था. राजनीतिक जागृति ब्रिटिश सरकार की नींद हराम कर रही थी. बस, इसी आवाज को दबाने के लिए हिंदू-मुस्लिम के नाम पर बंगाल को बांटा गया और राजनीतिक जागृति को कुचलने का काम हुआ.
जब बंगाल विभाजन के विरोध में उमड़ा जनसैलाब
ब्रिटिश सरकार जिस बात का हवाला देकर बंगाल विभाजन करने जा रहा था, उसी ने भारतीयों में एकता जागृत कर दी थी. अंग्रेजी सरकर बंगाल विभाजन पर धर्म और जनसंख्या का तर्क दे रही थी लेकिन जब विभाजन की खबर उड़ी तो वही लोग इसका विरोध करने सड़कों पर उतर आए थे. 07 अगस्त 1905 को कलकत्ता (अब कोलकाता) के टाउनहॉल में विशाल जनसभा का आयोजन हुआ. बंगाल विभाजन के विरोध में लाखों लोग इस जनसभा में शामिल हुए थे.
विदेशी वस्तुओं और सेवाओं का जमकर हुआ बहिष्कार
इसी सभा में ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार का प्रस्ताव पास हुआ और स्वदेशी आंदोलन की औपचारिक शुरुआत हुई. नेताओं ने भारतीय से सरकारी सेवाओं, स्कूलों, न्यायालयों और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की अपील की. यह राजनीतिक अंदोलन के साथ-साथ बड़ा आर्थिक आंदोलन भी था.