सिखों के 10वें और अंतिम गुरु 'गुरु गोबिंद सिंह' का जन्म 22 दिसंबर 1666 को हुआ था. उनके बचपन का नाम गोबिंद राय था. उन्होंने संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएं सीखीं. इसके साथ ही उन्होंनें धनुष-बाण, तलवार, भाला चलाने की कला भी सीखी. एक आध्यात्मिक गुरु होने के साथ-साथ वह एक निर्भीक योद्धा, कवि और दार्शनिक भी थे. उनकी शिक्षाओं ने सिख समुदाय और अन्य लोगों को कई पीढ़ियों से प्रेरित किया है. आज ही के दिन वर्ष 1708 में, महाराष्ट्र के नांदेड़ में स्थित श्री हुजूर साहिब में उन्होंने अपने प्राणों का त्याग किया था. आइये जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी 10 बड़ी बातें.
- गोबिंद राय का जन्म सिख धर्म के 9वें गुरु, गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के घर तख्त श्री पटना साहिब (अब पटना) में हुआ था.
- वह केवल 9 वर्ष की आयु के थे, जब 10वें सिख गुरू बने.
- अपने पिता गुरु तेग बहादुर के मुगल सम्राट औरंगजेब के हाथों शहादत स्वीकार करने के बाद वह कश्मीरी हिंदुओं की रक्षा के लिए आगे आए.
- अपने बचपन में ही, बालक गोबिंद ने संस्कृत, उर्दू, हिंदी, ब्रज, गुरुमुखी और फारसी सहित कई भाषाएं सीखीं. उन्होंने युद्ध में निपुण होने के लिए मार्शल आर्ट भी सीखा.
- वह दक्षिण सिरमुर, हिमाचल प्रदेश में यमुना नदी के किनारे एक शहर पांवटा गए. यहां उन्होंने पांवटा साहिब गुरुद्वारा की स्थापना की और सिख सिद्धांतों के बारे में प्रचार किया. पांवटा साहिब आज भी सिखों के लिए एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है. यहां उन्होंने 3 वर्ष बिताए, जिस दौरान कई ग्रंथ लिखे और अपने अनुयायियों की पर्याप्त संख्या भी एकत्र की.
- सितंबर 1688 में, 19 साल की उम्र में, गुरु गोबिंद सिंह ने भीम चंद, गढ़वाल के राजा फतेह खान और शिवालिक पहाड़ियों के अन्य स्थानीय राजाओं की एक संयुक्त सेना के खिलाफ भंगानी की लड़ाई लड़ी. लड़ाई एक दिन तक चली और हजारों लोगों की जान चली गई. गुरू गोबिंद सिंह ने संयुक्त सेना को हराया.
- बिलासपुर की रानी के निमंत्रण पर गुरु गोबिंद नवंबर 1688 में आनंदपुर लौट आए, जो चक नानकी के नाम से जाना जाने लगा है.
- 30 मार्च 1699 को, गुरु गोबिंद सिंह ने अपने अनुयायियों को आनंदपुर में अपने घर पर इकट्ठा किया. उन्होंने एक स्वयंसेवक से अपने भाइयों के लिए अपना सिर बलिदान करने के लिए कहा. एक अनुयायी दया राम फौरन इसके लिए राजी हो गया. गुरु उन्हें एक तंबू के अंदर ले गए और एक खूनी तलवार के साथ बाहर निकले. उन्होंने फिर से एक स्वयंसेवक को बुलाया और फिर ऐसा ही किया. 5 बार ऐसा करने के बाद, अंत में गुरु पांच स्वयंसेवकों के साथ तम्बू से निकले और तम्बू में पांच सिर कटी बकरियां मिलीं. इन पांच सिख स्वयंसेवकों को गुरु ने 'पंज प्यारे' या 'पांच प्यारे' के रूप में नामित किया.
- 1699 की सभा में, गुरु गोबिंद सिंह ने 'खालसा वाणी' की स्थापना की - "वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह". उन्होंने अपने सभी अनुयायियों का नाम 'सिंह' रख दिया जिसका अर्थ है शेर. उन्होंने खालसा के '5 ककार' या सिद्धांतों की भी स्थापना की. ये हैं- केश, कंघा, कच्छा, कड़ा, कृपाण.
- गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा और सिखों के धार्मिक ग्रंथ 'गुरु ग्रंथ साहिब' को ही सिखों के अगले गुरु के रूप में नामित किया. उन्होंने 07 अक्टूबर 1708 को अपना शरीर छोड़ दिया.