2014 का आख़िरी महीना. भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी नाम का तूफ़ान आ चुका था. सर्द मौसम की ठंडी हवा से बिहार सुस्ता रहा था. मगर राजधानी पटना में नरेंद्र मोदी को पहली पटखनी देने की तैयारी शुरू हो चकी थी. एयरपोर्ट से सटे राबड़ी देवी आवास में एक गाड़ी आकर रुकी. सफेद कुर्ता, पायजामा और काली सदरी पहने एक जदयू नेता गाड़ी से उतरकर अंदर दाखिल हुआ. वो लालू प्रसाद यादव के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का संदेसा लाया था. संदेसा... दोनों विरोधी दलों के एक हो जाने का...संदेसा जदयू और राजद के गठबंधन का.
साल भर पहले नीतीश कुमार एनडीए का साथ छोड़ चुके थे और नए साथी के तलाश में थे. लालू यादव के पास एक तय वोट बैंक था लेकिन लालू जनता दल के समय नीतीश से धोखा खा चुके थे. उन्हें दोबारा नीतीश पर भरोसे के लिए मनाना आसान काम नहीं था. नीतीश का प्रस्ताव ठुकरा दिया गया.
इस संकट में अब नीतीश की गाड़ी दिल्ली के सात तुगलक रोड आवास की ओर मुड़ी. सफेद कुर्ता धोती और आंखों पर चश्मा लगाए एक नेता वहां नीतीश का इंतज़ार कर रहा था. कुछ देर बात हुई और उस नेता ने राबड़ी आवास में फोन लगाया और कहा- लालू जी, बीजेपी के ख़िलाफ साथ आना होगा, पुराना समाजवाद ख़तरे में है.
कुछ दिनों बाद वो नेता नीतीश के साथ लालू यादव के पर मौजूद था. ये मुलाकात टीवी चैनलों की सबसे बड़ी ख़बर बन गई.
बिहार में जदयू-राजद के महागठबंधन के किंगमेकर थे, दिल्ली के सात तुगलक रोड में बैठे.... शरद यादव
शरद यादव को कुछ जानकारों ने चाणक्य की संज्ञा भी दी. लेकिन उनकी राजनीति जेपी से लेकर तेजस्वी यादव तक पसरी हुई है. साल 1974 में 25 साल की उम्र में वो मध्य प्रदेश के जबलपुर से लोकसभा सांसद बने. लेकिन अगले साल ही अज़ाब की तरह आई इमरजेंसी और उनसे इस्तीफा दिलवा दिया गया. नामी गिरामी में क्लिक कर के सुनिए
21 महीने बाद इमरजेंसी हटाई गई. लेकिन इंदिरा गांधी को सबक सिखाने के लिए कई राजनीतिक पार्टियों ने एक छतरी के नीचे आने का फैसला किया...इस छतरी का नाम था जनता पार्टी..... जिसमें चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, अटलबिहारी वाजपयी जैसी हस्तियां कांग्रेस के खिलाफ लामबंदी कर रही थी. 1977 में चुनाव हुए. जनता पार्टी सत्ता में आई और मध्यप्रदेश की जबलपुर सीट से शरद यादव वापस सांसद चुने गए. लेकिन सत्ता लोभ अच्छे-अच्छे का बेड़ागर्क कर देती है. जनता पार्टी भी उसकी शिकार हुई. पार्टी दो धड़ों में बंट गई. एक धड़े ने मोरारजी देसाई को नेता माना और दूसरा चौधरी चरण सिंह के पीछे हो लिया. शरद यादव भी इनमें से ही एक थे.
जनता पार्टी टूटने के साथ ही जनवरी 1980 में इंदिरा वापस सत्ता में आई. लेकिन पांच महीने बाद ही एक दुर्घटना उनका इंतज़ार कर रही थी. विमान हादसे में इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी का निधन हो गया था. इंदिरा के सामने राजनीतिक विरासत को मज़बूत करने की चुनौती थी और इसी चुनौती ने राजीव गांधी को सियासी अखाड़े में ला पटका. इंदिरा ने राजीव गांधी को अमेठी लोकसभा चुनाव मैदान में उतार दिया. दूसरी ओर इंदिरा के कारण प्रधानमंत्री कुर्सी छिन जाने से नाराज़ चौधरी चरण सिंह बदले की आग में धधक रहे थे. वो राजीव के राजनीतिक सफर पर ग्रहण लगाने की तैयारी में थे. सो उन्होंने लोक दल से राजीव के खिलाफ अपने उम्मीदवार को उतारने का फैसला किया और नाम आया- शरद यादव का.
मगर जबलपुर, मध्य प्रदेश में अपनी राजनीतिक पकड़ मज़बूत बना रहे शरद यादव अमेठी से चुनाव लड़ने को राज़ी नहीं थे. जनसंघ के नेता नानाजी देशमुख ने भी शरद पर दबाव बनाया लेकिन बात नहीं बनी. तभी चौधरी साहब ने एक रोज़ शरद यादव को बुलाया और कहा कि तुम्हें हमारे साथ एक ज्योतिषी के पास चलना होगा. दोनों ज्योतिषी के पास पहुंचे और ज्योतिषी ने भविष्यवाणी कर दी कि शरद यादव अगर अमेठी से चुनाव लड़ेंगे तो निश्चित जीतेंगे और ये आगामी चुनाव में इंदिरा की हार का कारण होगा. इस बात ने चौधरी साहब को और ज्यादा प्रभावित कर दिया. अब दवाब वापस से शरद यादव पर आ गया. लेकिन वो नहीं माने. शरद का हठ देख चौधरी साहब भड़क गए और बोले- तुम डरपोक हो शरद. राजनीति में आकर हारने से डरते हो. चरण सिंह की ये बात शरद को चुभ गई और उन्होंने लोक दल से अमेठी का पर्चा भर दिया. लेकिन हुआ वही जिसका डर था. शरद यादव सवा दो लाख के ज्यादा मतों से हार गए . उन्हें केवल 21 हज़ार वोट मिले.
1984 में वो उत्तर प्रदेश के बदायूं से वापस लोकसभा चुनाव हारे जिसके बाद उन्हें 1986 में लोक दल ने राज्यसभा भेज दिया गया . क्लिक कर के सुनिए नामी गिरामी में
समाजवाद की राजनीति कर रहे शरद यादव का नया ठिकाना अब जनता दल था. बोफोर्स स्कैंडल की मार झेल रही कांग्रेस सत्ता से बाहर थी और अब केंद्र का नया चेहरा थे जनता दल की अगुवाई कर रहे... वीपी सिंह. जनता पार्टी की ही तरह 1989 में कांग्रेस विरोधी पार्टियों ने जोड़ –जोड़ कर भानुमति का कुनबा खड़ा कर दिया. मगर जल्द ही वीपी सिंह के सिर पर एक वज्रपात टूटने वाला था... मंडल कमीशन. एक कमीशन जिसके तहत शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्ल की ही तरह ओबीसी जातियों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान किया गया था. 10 सालों से इस कमिशन की सिफारिशें अटकी हुई थीं. वीपी सिंह भी इसे लागू करने के पक्ष में नहीं थे लेकिन पार्टी के अंदर समाजवाद का एक बड़ा धड़ा इसके पक्ष में आवाज़ बुलंद कर रहा था और इसमें सबसे आगे नाम था शरद यादव का.
वीपी सिंह अब सोच में पड़ गए लेकिन तभी उन्होंने एक चाल चली और उप प्रधानमंत्री और अपने प्रतिद्वंदी चौधरी देवी लाल के नेतृत्व में मंडल कमीशन पर कमेटी बना दी. लेकिन तभी एक संकट और आन पड़ा. हरियाणा और पश्चिमी यूपी का जाट समाज भी खुद को ओबीसी में शामिल करने की मांग करने लगे. चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह भी इसके पक्ष में मुखर थे. देवी लाल के लिए ये धर्म संकट था. अगर वो जाटों को ओबीसी का दर्जा देते तो सारा श्रेय अजीत सिंह ले जाते और ऐसा नहीं करते तो ओबीसी का एक बड़ा वर्ग उनके ख़िलाफ हो जाता.
ये देख वीपी सिंह को लगा कि मंडल कमीशन अपने अंत की ओर है. लेकिन शरद यादव सही मौके के इंतज़ार में थे. इसी सबके बीच वीपी सिंह ने शरद यादव को मिलने का न्योता भेजा. शरद वीपी से मिलने पहुंचे तो मालूम चला कि वीपी ने देवी लाल को कैबिनेट से बर्खास्त कर दिया है. शरद ने वीपी से ऐसा न करने का अनुरोध किया लेकिन वो न माने. शरद जब पीएम आवास से जाने लगे तो वीपी सिंह बोले- शरद... मेरी एक बात मानोगे.. मैं जानता हूँ कि चौधरी देवी लाल से तुम्हारे अच्छे संबंध हैं , लेकिन जनता दल छोड़ कर देवी लाल का हाथ मत थामना वरना पार्टी बिखर जाएगी.
शरद यादव ने मौके का फायदा उठाया और छूटते ही बोले- ठीक है. लेकिन मेरी एक शर्त है. आपको मंडल कमीशन की सिफारिश लागू करनी होगी.
वीपी सिंह इसके लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने खुद को संभाला और बोले- ठीक है. 15 अगस्त को मैं लाल किले से इसकी घोषणा कर दूँगा.
मैं 15 अगस्त तक इंतज़ार नहीं कर सकता. आपको 9 अगस्त से पहले इसकी घोषणा करनी होगी.
वीपी सिंह मौन रहे और सिर हिला दिया. शरद भी उसी वक्त वहां से रवाना हो गए. 7 जनवरी 1990, मंडल कमीशन लागू हुआ जिसने ओबीसी के खाते में 27 फीसदी आरक्षण लाकर रख दिया. नामी गिरामी में क्लिक कर के सुनिए
देश में मंडल कमीशन लागू हो गया लेकिन इसके लागू होने से पांच महीने पहले बिहार में राजनीतिक पेंच फंसा हुआ था. जनता दल बिहार चुनाव जीत कर सत्ता में थी लेकिन विधायक दल के नेता को लेकर पार्टी बंटी हुई थी. एक खेमा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री राम सुंदर दास को अपना नेता बता रहा था तो दूसरा खेमा लालू प्रसाद यादव के दावे को स्वीकार रहा था जो उस वक्त अपने उभार के दौर से गुजर रहे थे. मगर सबको इस बात का भान था कि राम सुंदर दास लालू यादव पर बीस पड़ रहे हैं. कारण था.. वीपी सिंह, जॉर्ज फर्नांडिस, अजीत सिंह जैसे नेताओं का समर्थन जो राम सुंदर दास को हासिल था. वहीं लालू के पास चौधरी देवी लाल का स्वामित्व. इन्हीं सब के बीच प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने जॉर्ज फर्नांडिस, अजीत सिंह और सुरेंद्र मोहन को पर्यवेक्षक बना कर पटना भेजा. इन तीनों नाम ने लालू यादव की चिंता को और ज्यादा कस दिया. वो भागे भागे देवी लाल के पास पहुंचे और बोले कि अगर बिहार में आपका कोई हिमायती पर्यवेक्षक दल में नहीं होगा तो वो चुनाव नहीं जीत पाएंगे. इस मुलाकात के बाद देवी लाल ने दो सिपासलाहरों की परीवेक्षक दल में एंट्री हुई. मुलायम सिंह यादव और शरद यादव. पटना का सियासी मुआयना करने के बाद शरद को इसका अंदाज़ा हो गया कि लालू का विधायक दल चुनाव जीत पाना, असंभव है. अब घी को निकालने के लिए उंगली टेढ़ी करने का समय था. शरद यादव बिना समय गवाएं हाज़िरी लगाने पहुंचे... जनता दल के तीसरे सबसे बड़े स्तंभ चंद्रशेखर के दरबार में, जो वीपी सिंह से खार खाए बैठे थे. शरद और चंद्रशेखर के कुछ घंटे की बातचीत ने बिहार में एक नई राजनीतिक करवट को जन्म दे दिया. चंद्रशेखर के आदेश पर लालू यादव, राम सुंदर दास के सामने एक नया नेता विधायक दल के चुनाव में अपनी दावेदारी ठोक दिया.. शिवहर से विधायक और चंद्रशेखर के चेले... रघुनाथ झा.
8 मार्च 1990 को चुनाव का दिन तय हुआ. पर्चे बांट दिए गए. हॉल के बाहर राम सुंदर दास ज़िंदाबाद के नारे लग रहे थे, इसी शोर के बीच लालू यादव के समर्थक भी हुंकार भर रहे थे और इन दोनों से अलग एक नारा था जो सबकी कानों में साफ-साफ सुनाई पड़ रहा था... दिल्ली में विश्वनाथ, बिहार में रघुनाथ.
वोटिंग खत्म हुई. अब बारी काउंटिंग की थी. बक्सा खोला गया. रघुनाथ झा के हिस्से 12 वोट आए. 56 वोटों पर राम सुंदर दास का नाम था और लालू प्रसाद यादव को 59 वोटों समर्थन हासिल था. लालू प्रसाद यादव विधायक दल के नए नेता थे जो 10 मार्च को बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले थे और इन सब में किंगमेकर बन कर उभरे... शरद यादव.
देश की राजनीति में एक ही समाज से आने वाले तीन नेता, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और लालू प्रसाद यादव का सफ़र अरसे तक साथ साथ चला, लेकिन जानकार ये भी कहते हैं कि बदलते हालात में ये तीनों नेता एक दूसरे को आगे बढ़ने से भी रोकते रहे. बिहार में लालू यादव की सरकार बनाने के छह साल बाद ही सब कुछ बदल चुका था. लालू के सबसे करीबी शरद यादव ही उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी बन गए. नामी गिरामी में क्लिक कर के सुनिए
मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के बाद 1991 में शरद यादव ने बिहार का रुख किया. मधेपुरा से जीतकर वो चौथी दफा लोकसभा पहुंचे. जिस लालू प्रसाद यादव को उन्होंने बिहार का मुख्यमंत्री बनवाया और उनकी मदद से बिहार के मधेपुरा को अपना कार्यक्षेत्र बनाया. लेकिन 1997 में उसी लालू के सामने जनता दल के अध्यक्ष पद को लेकर शरद यादव ने अपनी चुनौती पेश कर दी. उन दिनों लालू प्रसाद चारा घोटाले में मुश्किलों में फंसते जा रहे थे. लालू प्रसाद ने अपनी पुस्तक 'राजनीतिक यात्रा गोपालगंज टू रायसीना' में राष्ट्रीय जनता दल के गठन की वजह बताते हुए कहा है, "जुलाई, 1997 में पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव होना था. मैं नहीं समझ पाया कि आख़िर शरद जी ने किन वजहों से आख़िरी समय में अध्यक्ष पद की दौड़ में कूदने का फ़ैसला लिया. मैं अपने नेतृत्व में पार्टी को जीत दिला रहा था, बिहार में दूसरी बार सरकार बन गई थी, केंद्र में सरकार थी, उन्हें मेरा साथ देना था, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा पार्टी अध्यक्ष पद पर मुझे हटाकर क़ाबिज़ होने की हो गई.
दरअसल, पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष रहते हुए शरद यादव ने पार्टी की कार्यकारिणी में अपने समर्थकों की संख्या इतनी कर ली थी कि लालू प्रसाद यादव को अंदाज़ा हो गया था कि अगर वे चुनाव लड़ेंगे तो उनकी हार होगी. इन सब के अवाला शरद यादव पर नीतीश कुमार के साथ उनके राजनीतिक गुरु जॉर्ज फर्नांडिस को किनारे लगाने का भी आरोप लगता रहा, जब एक योजनाबद्ध तरीके से जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष की कुर्सी शरद यादव और नीतीश कुमार ने उनसे मिलकर छीन ली. बाद में शरद यादव ने इस आरोप पर अपना पक्ष भी रखा था. नामी गिरामी में क्लिक कर के सुनिए
जॉर्ज को किनारे कर पार्टी अध्यक्ष बने शरद यादव भी उसी चक्रव्यूह का शिकार हुए जिसकी जद में कभी जॉर्ज आए थे. 2016 में शरद यादव पर पार्टी विरोधी गतिविधी करने का आरोप लगाते हुए नीतीश ने शरद से अध्यक्ष पद वापस ले लिया और राज्यसभा की सदस्यता भी छीन ली. जदयू से अलग होकर उन्होंने अपनी नई पार्टी बना ली.. लोकतांत्रिक जनता दल.
दरअसल, 2015 में महागठबंधन बनने के सालभर बाद ही नीतीश वापस एनडीए का साथ चाहते थे, शरद यादव ने इसका विरोध किया जो नीतीश को खटक गया और दोनों के रास्ते जुदा हो गए.
शरद यादव अपनी साफ़गोई और संसद में अपने भाषणों के लिए भी जाने गए. उद्योगपति विजय माल्या जब राज्यसभा पहुंचे तो शरद ने सदन में कहा कि विजय माल्या जैसे लोगों पर सरकार मेहरबान होगी तो यही होगा. विजय माल्या लोफर आदमी है, इसको पकड़ना चाहिए.
इसके अलावा, नोटबंदी, कालाधन और अन्ना आंदोलन के बाद लोकपाल पर भी उनके भाषण बहुत चर्चित रहे. 2016 में नोटबंदी के समय वो उस समय के वित्त मंत्री अरुण जेटली से भी चुटकी लेने में नहीं चूके.
हालांकि महिला आरक्षण बिल पर उनका भाषण भी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने संसद में महिला आरक्षण का विरोध किया और कहा कि इस बिल का फायदा सिर्फ परकटी महिलाओं को होगा. उनका इशारा शहरी, छोटे बाल वाली महिलाओं की ओर था. इस बयान स्त्रीविरोधी कहा गया और इसके लिए उनकी ख़ूब आलोचना भी हुई. फिर भी शरद यादव की भाषण शैली, देसज और अनूठी थी. नामी गिरामी में क्लिक कर के सुनिए