भारत में शहरी इलाकों में किराए के घर का तरीका अब बदल रहा है. पहले जहां लोग PG में रहते थे, वहीं अब को-लिविंग का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. को-लिविंग एक ऐसा ऑप्शन है जहां आपको सब कुछ पहले से तैयार मिलता है, यह बहुत लचीला है और यहां एक कम्युनिटी जैसी फीलिंग होती है. इसीलिए, आज के युवाओं को यह बहुत पसंद आ रहा है.
को-लिविंग का मतलब है एक ऐसी व्यवस्था जहां आप किसी पूरी तरह से सुसज्जित, साझा प्रॉपर्टी में एक प्राइवेट रूम या स्टूडियो किराए पर लेते हैं. इसके साथ ही आपको कुछ साझा सुविधाओं का भी उपयोग करने की अनुमति होती है, जैसे कि किचन, लाउंज, या को-वर्किंग ज़ोन. यह सिर्फ रहने की जगह नहीं है, बल्कि एक पूरी लाइफस्टाइल है.
यह पारंपरिक PG से कई मायनों में अलग है. को-लिविंग में आमतौर पर फर्नीचर, वाई-फाई, साफ-सफाई, सुरक्षा और यूटिलिटी बिल जैसी सेवाएं एक ही पैकेज में शामिल होती हैं, जिससे रहने वालों के लिए जीवन आसान और सुविधाजनक हो जाता है.
यह भी पढ़ें: रियल एस्टेट से जुड़ी शिकायतों में गौतमबुद्ध नगर-लखनऊ सबसे आगे, UP RERA को मिलीं 2 हजार से ज्यादा शिकायतें
यह मॉडल 18 से 35 साल की उम्र के छात्रों, युवा पेशेवरों के बीच बहुत लोकप्रिय है. Gen Z और मिलेनियल्स को लचीलापन, सुरक्षा और प्रीमियम सुविधाओं तक पहुंच पसंद है, इसलिए वे मेट्रो शहरों में इसे तेजी से अपना रहे हैं. वे ऐसे घर पसंद करते हैं, जो शहर के केंद्र में हों, किफायती हों, और जहां बिना किसी परेशानी के तुरंत रहा जा सके. उन्हें फर्नीचर खरीदने या लंबी अवधि के समझौते करने की चिंता नहीं करनी पड़ती.
को-लिविंग का क्षेत्र रियल एस्टेट और निवेशकों के लिए कई कारणों से एक आकर्षक और उभरता हुआ बाजार बन रहा है. भारत में को-लिविंग का बाजार तेजी से बढ़ रहा है और इसमें निवेश के बड़े अवसर हैं. भारत में शहरों की ओर लोगों का तेजी से पलायन हो रहा है, खासकर युवा पेशेवरों और छात्रों का, ये लोग अक्सर महंगे और भीड़-भाड़ वाले शहरों में किफायती और सुविधाजनक आवास की तलाश में रहते हैं.
पारंपरिक किराए के मकानों में अक्सर ज्यादा खर्च, नौकरों और सुविधाओं की व्यवस्था करने की परेशानी होती है. को-लिविंग इन चुनौतियों का समाधान प्रदान करता है, जिससे यह इन प्रवासी आबादी के लिए एक पसंदीदा विकल्प बन जाता है.
यह भी पढ़ें: 2030 तक बदलेगी मुंबई की सूरत, पुनर्विकास से मिलेंगे 44,000 से ज़्यादा नए अपार्टमेंट
निवेशकों के लिए, को-लिविंग पारंपरिक किराए के मॉडल की तुलना में अधिक रिटर्न देता है. एक ही संपत्ति में कई लोगों को जगह देने से प्रति वर्ग फुट किराया बढ़ जाता है. इसके अलावा, को-लिविंग ऑपरेटर अक्सर लीज समझौते पर लंबे समय तक रहते हैं, जिससे निवेशकों के लिए एक स्थिर और अनुमानित आय का प्रवाह सुनिश्चित होता है.
वहीं को-लिविंग कंपनियां अक्सर टेक्नोलॉजी का उपयोग करती हैं ताकि बुकिंग, भुगतान, शिकायत निवारण और समुदाय प्रबंधन को आसान बनाया जा सके. यह दक्षता न केवल ग्राहक अनुभव को बेहतर बनाती है, बल्कि परिचालन लागत को भी कम करती है, जिससे यह व्यवसाय और भी लाभदायक हो जाता है.
यह भी पढ़ें: पैसे दिए, लेकिन घर नहीं मिला... Mahagun Montagge प्रोजेक्ट में फ्लैट बायर्स परेशान
भारत में बढ़ते बाजार को देखते हुए, संस्थागत निवेशक जैसे कि प्राइवेट इक्विटी फंड, वेंचर कैपिटल फर्म और बड़े कॉर्पोरेट भी को-लिविंग क्षेत्र में भारी निवेश कर रहे हैं. इन बड़े खिलाड़ियों के आने से इस क्षेत्र को और भी विश्वसनीयता और विकास का अवसर मिल रहा है. प्रमुख खिलाड़ी जैसे Zolo Stays, Stanza Living और Coho इस बाजार का नेतृत्व कर रहे हैं.
को-लिविंग केवल एक अस्थायी आवास समाधान नहीं है, बल्कि एक स्थायी और लाभदायक व्यवसाय मॉडल है. शहरीकरण, बदलती जीवनशैली, और टेक्नोलॉजी के प्रभाव से यह क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है. निवेशकों के लिए, यह एक ऐसा बाजार है जो पारंपरिक रियल एस्टेट की तुलना में अधिक रिटर्न, कम जोखिम और स्थिर आय का वादा करता है.