ललित कलाओं में से एक संगीत कला की जब बात होती है तो सामने आता है कि इसका आधार भारतीय शास्त्रीय संगीत की विधा है. आप शास्त्रीय संगीत को नहीं समझते हैं, या इसे बहुत कठिन मानते हैं तो इसकी सिर्फ इतनी वजह है कि आप इसमें यूज होने वाले शब्दों को नहीं समझ पा रहे हैं. आम तौर पर इसे सारे गम या सरगम आधारित संगीत कहा जाता है. अगर आप इसमें शामिल शब्दों को समझेंगे तो आप संगीत को भी समझने लगेंगे.
जैसे कि हम पहले ध्वनि, कंपन, आंदोलन और नाद का अर्थ समझ चुके हैं. इसी कड़ी में हमारे लिए आगे ये जानना जरूरी है कि स्वर किसे कहते हैं.
संगीत में श्रुति की परिभाषा क्या है?
स्वर को भी जानने के क्रम में जो पहला जरूरी पड़ाव है वह है श्रुति. संस्कृत में 'श्रु 'शब्द का अर्थ होता है सुनना. इसलिए श्रुति का अर्थ हुआ 'सुना हुआ ' संगीत के ग्रंथों में कहा गया है, 'श्रूयते इति श्रुतिः'. यानी जो ध्वनि कानों को सुनाई दे वही श्रुति है. हालांकि यह परिभाषा इतने से पूरी नहीं होती. ऐसा इसलिए क्योंकि हमें सुनाई तो बहुत सी ध्वनियां देती हैं. ऐसे में फर्क सामने आता है कि श्रुति का संगीत के लिए उपयोगी होना जरूरी है. कानों को तो अनेक ऐसी ध्वनियां सुनाई देती रहती हैं जिनका संगीत से कोई जुड़ाव नहीं होता इसलिए केवल इतना कह देना कि जो ध्वनि कानों को सुनाई पड़े वही श्रुति है, यह ठीक नहीं है.
श्रुति की पूर्ण परिभाषा इस तरह दी जा सकती है कि
नित्यं गीतोपयोगित्वमभिज्ञेयत्वमप्युत .
लक्षे प्रोक्तं सुपर्याप्तं संगीत श्रुतिलक्षणम.
यानी ऐसी संगीतोपयोगी ध्वनि जो एक-दूसरे से अलग और स्पष्ट पहचानी जा सके उसे श्रुति कहते हैं. 'अलग' तथा 'स्पष्ट' यहां पर बहुत ही जरूरी है क्योंकि श्रुति का ये गुण है कि उसे कानों को स्पष्ट सुनाई देना चाहिए और पास की दो श्रुतियों में इतना अंतर जरूर होना चाहिए कि वे एक-दूसरे से स्पष्ट अलग पहचानी जा सकें इसीलिए संगीत के विद्वानों का कहना है कि ऐसी ध्वनियां जो एक-दूसरे से अलग तथा कानों को स्पष्ट सुनाई पड़ें वह एक सप्तक में कुल 22 हो सकतीं हैं.
यानी एक सप्तक में अलग-अलग होने वाले और स्पष्ट रूप से पहचाने जा सकने वाले 22 नाद ही श्रुति कहलाते हैं. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि, मध्य स से तार स (एक सप्तक के अंदर) के बीच में कुल 22 श्रुतियां हो सकती हैं.
क्या होता है स्वर, संगीत में कैसे बन जाते हैं सबसे जरूरी?
स्वर - एक सप्तक की 22 श्रुतियों में से चुनी हुई 7 श्रुतियां जो एक-दूसरे से ठीक-ठीक अंतर पर स्थापित हैं तथा जो सुनने में मधुर हैं. स्वर कहलाती हैं. इस प्रकार ये स्पष्ट है कि श्रुति और स्वर में अंतर नहीं है. केवल अंतर यह है कि 22 श्रुतियों में से दूर-दूर की 7 श्रुतियाँ छांट ली गई हैं और उन्हीं छाटीं गई 7 श्रुतियों को शुद्ध स्वरों के नाम से पुकारा जाता है. सात स्वरों को षडज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद इन नामों से जाना जाता है.
जिन्हें संक्षेप में गाते हुए सा, रे, ग, म, प, ध, नि गाया जाता है.
हालांकि संगीत रत्नाकर ग्रंथ कहता है कि 22 श्रुतियों में मुख्य तौर पर सुनाई देने वाली 12 श्रुतियां स्वर कहलाती हैं. ये स्वर सप्तक में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थापित हैं. इन बारे में से 7 स्वर शुद्ध या प्राकृति स्वर हैं तो वहीं 5 विकृत स्वर हैं.
शु्द्ध स्वर तो वही सा, रे, ग, म, प, ध, नि हैं, लेकिन पांच विकृत स्वर वे हैं जो स्वर अपने तयशुदा जगहों से थोड़ा-थोड़ा नीचे उतर जाते हैं, और गायकी में इसी अवस्था में प्रयोग किए जाते हैं वह विकृत स्वर कहलाते हैं.
विकृत स्वर पांच हैं, रे_, ग_, म_, ध_, नि_
इन स्वरों के नीचे पहचान के लिए अंडरलाइन की जाती है, ताकि गायन के समय याद रहे कि इस जगह पर विकृत स्वर लगाना है. विकृत स्वर शु्द्ध स्वरों से एक श्रुति पहले या बाद में होते हैं.
विकृत स्वर भी दो प्रकार के होते हैं. कोमल विकृत और तीव्र विकृत.
जब कोई स्वर अपनी शुद्ध अवस्था से एक श्रुति नीचा होता है तो वहां कोमल विकृत होता है. जब कोई स्वर अपनी शुद्ध अवस्था से एक श्रुति ऊपर होता है तब वहां तीव्र विकृत स्वर होता है.
इस तरह एक सप्तक में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र स्वर होता है. सप्तक में रे, ग, ध और नि कोमल विकृत स्वर में प्रयोग किए जाते हैं तो वहीं म_ तीव्र विकृत के तौर पर इस्तेमाल होता है.
अब इस आधार पर यह कहा जाए कि, ऐसी मधुर ध्वनियां जो बराबर स्थिर रहे तथा जिनकी आवाज मन को लुभाने वाली हो स्वर कहलाती है. स्वर ही संगीत की आत्मा है.