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स्वरलिपि विकसित की, लिखने की परंपरा में ढाला... पंडित विष्‍णुनारायण भातखंडे, जिन्होंने संगीत को सीखने लायक बनाया

पंडित भातखंडे ने हिंदुस्तानी संगीत को व्यवस्थित करने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए. उन्होंने रागों को पुराने राग-रागिनी-पुत्र वर्गीकरण से हटाकर थाट प्रणाली में पुनर्वर्गीकृत किया, जो आज भी प्रचलित है.

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पं. विष्णु नारायण भातखंडे को शास्त्रीय संगीत के आधुनिक पक्ष का जनक माना जाता है
पं. विष्णु नारायण भातखंडे को शास्त्रीय संगीत के आधुनिक पक्ष का जनक माना जाता है

ज्ञान की श्रुति परंपरा, यानि किसी को सिर्फ सुनाकर या किसी गुरु से सुनते-सुनते सीखने की परंपरा... प्राचीन भारत से यह परंपरा ज्ञान के फैलाव का आधार रही है. सभी वेद-पुराणों का ज्ञान गुरुओं से शिष्यों तक इसी तरह से पहुंचा है. पीढ़ी दर पीढ़ी इसे ऐसे ही एक-दूसरे को दिया गया है.

संगीत, जिसे सामवेद से निकला हुआ और कठिन शास्त्रों में से एक बताया जाता है, इसके भी सीखने की प्रक्रिया सिर्फ श्रुति के आधार पर ही थी. अगर यही श्रुति परंपरा संगीत के लिए आज भी मौजूद रहती तो जैसे वेदों के ज्ञान से हम अछूते रह गए हैं, संगीत की भी अमूल्य निधि से दूर ही हो जाते.

लेकिन... जिनकी वजह से आज हम संगीत को सीख पाते हैं और इस कलाकारी को समझ पाते हैं तो इसके लिए भगीरथ प्रयास करने वाले मनीषी का नाम है पंडित विष्णु नारायण भातखंडे. पंडित भातखंडे को आज याद करने की वजह है उनकी पुण्यतिथि. 10 अगस्त 1860 को मुंबई के वालकेश्वर में जन्मे पं. भातखंडे ने हिंदुस्तानी संगीत को व्यवस्थित करने और इसे आमजन तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया.

उस दौर में, जब संगीत मुख्य रूप से मौखिक परंपराओं के जरिए ही जीवित था, पं. भातखंडे ने इसे एक सुसंगठित और वैज्ञानिक ढांचे में ढाला और लिपिबद्ध किया. लिखने की परंपरा में संगीत के स्वर, राग और आलाप-तान आने से संगीत के छात्रों के लिए उसे सीखना आसान हो गया. 

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बचपन से ही था संगीत से लगाव

पंडित भातखंडे का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ, जहां संगीत का महत्व पहले से ही बहुत था. उनके पिता, उस समय के बड़े बिजनेसमैन थे और घर में भी पढ़ने-लिखने का माहौल था तो विष्णु और उनके भाई-बहनों को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी मिली. पंद्रह वर्ष की आयु में  बालक विष्णु ने ने सितार सीखना शुरू किया और प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में संगीत सिद्धांतों का अध्ययन किया.

1885 में पुणे के डेक्कन कॉलेज से बीए और 1887 में एलफिंस्टन कॉलेज, मुंबई विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री हासिल करने के बाद, उन्होंने कुछ समय तक क्रिमिनल लॉयर के तौर प्रैक्टिस भी की, लेकिन संगीत के लिए उनका जुनून जिंदा रहा. 

1884 में वह मुंबई की ‘गायन मंडली’ से जुड़े, जहां उन्होंने खयाल और ध्रुपद शैलियों में कई रचनाएं सीखीं. इस दौरान श्रीरावजीबुआ बेलबागकर और उस्ताद अली हुसैन जैसे संगीतज्ञों से उनकी मुलाकात ने उनके संगीत के प्रति उनके नजरिए को और विस्तार दिया, लेकिन 1900 में उनकी पत्नी और 1903 में उनकी बेटी के निधन ने उनके जीवन को बदल दिया. इस दुखद मोड़ पर उन्हें अपनी कानूनी प्रैक्टिस पूरी तरह छोड़ दी और संगीत के ही होकर रह गए. 

संगीत में शोध और यात्राएं
पंडित भातखंडे ने भारत के विभिन्न हिस्सों में यात्राएं कीं, जहां उन्होंने उस्तादों और पंडितों से मुलाकात की और संगीत की गहराइयों को समझा. उन्होंने प्राचीन ग्रंथों जैसे नाट्य शास्त्र और संगीत रत्नाकर का गहराई  से अध्ययन किया. बड़ौदा, ग्वालियर और रामपुर जैसे रियासतों में उनकी मुलाकात प्रसिद्ध वीणा वादक उस्ताद वाजिर खान जैसे दिग्गजों से हुई, जो मियां तानसेन के वंशज थे. 

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1904 में पं. भातखंडे दक्षिण भारत पहुंचे और मद्रास (आज का चेन्नई) में कर्नाटक संगीत की दुनिया से परिचित हुए. हालांकि भाषा की बाधा ने उनकी बातचीत को सीमित किया, फिर भी उन्होंने वहां से दो महत्वपूर्ण ग्रंथ जुटाए. व्यंकटमखी की चतुर्दंडी प्रकाशिका और रामामात्य की स्वरमेल कलानिधि. इन ग्रंथों और उनकी उत्तर भारत की यात्राओं के अनुभवों ने उन्हें हिंदुस्तानी रागों को दस थाट प्रणाली में वर्गीकृत करने में मदद की, जो कर्नाटक संगीत की मेलकर्ता प्रणाली से प्रेरित थी.

संगीत को ऐसे दिया नया स्वरूप
पंडित भातखंडे ने हिंदुस्तानी संगीत को व्यवस्थित करने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए. उन्होंने रागों को पुराने राग-रागिनी-पुत्र वाले वर्गीकरण से हटाकर थाट प्रणाली में फिर से बांटा. जो आज भी प्रचलित है. यह प्रणाली, हालांकि सभी रागों को पूरी तरह तो नहीं समेट पाती, फिर भी अधिकांश रागों को समाहित करती है और भारतीय संगीत सिद्धांत में एक मील का पत्थर है.

उनका पहला प्रकाशित कार्य स्वर मालिका एक पुस्तिका थी, जिसमें सभी प्रचलित रागों का विस्तृत विवरण था. 1909 में, उन्होंने ‘चतुर-पंडित’ के छद्मनाम से संस्कृत में श्री मल्लक्ष्य संगीतम प्रकाशित किया. इसके बाद, उन्होंने अपने संस्कृत ग्रंथ की मराठी में व्याख्या हिंदुस्तानी संगीत पद्धति के रूप में चार खंडों में प्रकाशित की. यह ग्रंथ आज हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के अध्ययन का आधार है. उनकी रचनाएं और बंदिशें रागों की व्याकरण को सरल और समझने योग्य बनाती हैं.

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संगीत स्वरलिपि और शिक्षा
पं. भातखंडे ने एक ऐसी स्वरलिपि प्रणाली विकसित की, जो आज भी प्रकाशकों और संगीतज्ञों के बीच लोकप्रिय है. हालांकि बाद में पंडित वी.डी. पलुस्कर, पंडित विनायकराव पटवर्धन और पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने इसमें सुधार किए, लेकिन भातखंडे की प्रणाली ने संगीत को लिखित रूप में संरक्षित करने का रास्ता दिखाया. उनकी बनाई बंदिशें और रागों की व्याख्या आज भी संगीत शिक्षण का आधार हैं.

उन्होंने संगीत शिक्षा को व्यवस्थित करने के लिए कई संस्थानों की स्थापना भी की. 1916 में उन्होंने बड़ौदा राज्य के संगीत विद्यालय को पुनर्गठित किया और ग्वालियर के महाराजा की सहायता से माधव म्यूजिक कॉलेज की स्थापना की. 1926 में लखनऊ में राय उमानाथ बाली और उनके भतीजे डॉ. राय राजेश्वर बाली के सहयोग से मैरिस कॉलेज ऑफ म्यूजिक की स्थापना हुई, जिसे बाद में भातखंडे म्यूजिक इंस्टीट्यूट (डीम्ड यूनिवर्सिटी) के नाम से जाना गया. इस संस्थान के लिए भातखंडे ने पाठ्यसामग्री तैयार की, जो गुरु-शिष्य परंपरा को लिखित और व्यवस्थित रूप में बदलने का एक ऐतिहासिक कदम था.

पंडित भातखंडे ने हिंदुस्तानी संगीत क्रमिक पुस्तक मालिका नामक पाठ्यपुस्तकों की एक श्रृंखला तैयार की और अखिल भारतीय संगीत सम्मेलनों की परंपरा शुरू की, जिसने हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीतज्ञों को एक मंच पर लाकर संगीत के विकास को बढ़ावा दिया. उनके शिष्य, जैसे एस.एन. रतनजंकर, दिलीप कुमार रॉय, के.जी. गिंदे, और सुमति मुटाटकर जैसे विद्वानों ने उनकी परंपरा को आगे बढ़ाया.

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19 सितंबर को हुआ था निधन
पं. भातखंडे ने अपने सभी कार्य ‘विष्णु शर्मा’ और ‘चतुर-पंडित’ जैसे छद्मनामों के तहत किए. उनकी दूरदर्शिता और समर्पण ने हिंदुस्तानी संगीत को न केवल व्यवस्थित किया, बल्कि इसे विश्व स्तर पर एक सम्मानजनक स्थान दिलाया. 19 सितंबर 1936 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी जीवित है. उनके द्वारा स्थापित थाट प्रणाली, स्वरलिपि, और शिक्षण संस्थान हिंदुस्तानी संगीत के हर विद्यार्थी और प्रेमी के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं.

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे सिर्फ एक संगीतज्ञ नहीं, बल्कि एक युग-निर्माता थे, जिन्होंने हिंदुस्तानी संगीत को आधुनिकता की राह पर ले जाकर इसे अमर कर दिया.

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