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न कन्या पूजन, न दुर्गा पंडालों की सजावट, दशहरा मेला भी नहीं... केरल की नवरात्रि जो मैंने देखी

केरल में नवरात्रि का उत्सव उत्तर भारत से अलग तरीके से मनाया जाता है, जहां पारंपरिक दुर्गा पूजा के बजाय बोम्मईगोलू नामक गुड़ियों की झांकी सजाई जाती है. यह परंपरा मुख्य रूप से मंदिरों में होती है और इसमें नौ दिनों के दौरान विभिन्न देवताओं और सामाजिक प्रतीकों को दर्शाया जाता है.

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केरल के अमृता विद्यापीठम (अमृतापुरी, कोल्लम) परिसर में सजी देवी-देवताओं की झांकी. इसे बोम्मईगोलू कहते हैं. यह नवरात्रि के दौरान सजाई जाती हैं
केरल के अमृता विद्यापीठम (अमृतापुरी, कोल्लम) परिसर में सजी देवी-देवताओं की झांकी. इसे बोम्मईगोलू कहते हैं. यह नवरात्रि के दौरान सजाई जाती हैं

भोर हो रही थी. घड़ी की ओर देखा तो सुबह के 4:45 हो रहे थे. ट्रैवलर चला रहे अन्ना ने मलयाली में कहा- पहुंच गए आप लोग. इस तरह कुछ उनींदी और अलसायी हालत में मैंने देश के दक्षिणी राज्य केरल की जमीन पर पांव रखा. समुद्र से आती नर्म-नम हवा के थपेड़ों ने मेरा स्वागत किया. मैंने सवालिया निगाह से अन्ना (ट्रैवलर ड्राइवर) की ओर देखा तो मेरा इशारा समझकर वह बोल पड़े- 'आथि, समुद्रम दग्गेरगा उन्दि.' (हां समुद्र पास ही है)

मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई. सड़कों पर डायवर्जन के बैरिकेडिंग लगे थे. कई जगहों पर काम जारी था. लेकिन मेरी निगाहें उस सुरीली आवाज का पीछा कर रही थीं, जो लगातार कानों से टकरा रही थी. बेशक! शब्द मलयाली में थे, लेकिन भाव समझ में आ रहे थे. मैंने अन्ना से इशारे में ही पूछा तो उन्होंने कहा- अद्युत्ताने ओरु केस्त्रम उंट, पास ही एक मंदिर है. मैं समझा नहीं तो उन्होंने हाथ जोड़कर टेंपल-टेंपल बोलकर बताने की कोशिश की.

इस वक्त मैं जहां पहुंचा था, ये केरल के कोल्लम जिले का नीन्दकारा कस्बा था. राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' के दौरान बैक वॉटर और समुद्री लहरों से घिरा ये छोटा कस्बा सुर्खियों में रहा था, लेकिन मंदिर में चल रहे मलयाली भजन को सुनकर मेरी दिलचस्पी इस बात में ज्यादा बढ़ गई कि भारत के दक्षिणी सिरे पर मौजूद एक प्रदेश नवरात्रि के दिनों को किस तरह से देखता है. हालांकि कोच्चि से कोल्लम तक के सवा चार घंटे के सफर में मैंने पूरे रास्ते कहीं भी वैसे दुर्गा पूजा पंडाल नहीं देखे थे, जिनसे नवरात्रि के दिनों में उत्तर भारतीय इलाका गुलजार रहता है.

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आश्चर्य! महिषासुर मर्दिनी की प्राचीन कहानी दक्षिणी राज्य (मैसूर, कर्नाटक) से ही निकली है, बावजूद केरल में दुर्गा पूजा का वैसा रुख नजर नहीं आ रहा था, जैसा बंगाली शाक्त परंपरा के प्रभाव में पूरे उत्तर भारत में दिखाई देता है.

खैर, दिन कुछ और चढ़ आया तो मैं अपने उस गंतव्य की ओर जाने के लिए निकला, जिसके लिए दिल्ली से केरल तक की यात्रा की योजना बनी थी. यहां अमृतापुरी में माता अमृतानंदमयी का आश्रम है, जहां उनका 72वां जन्मदिवस बहुत धूमधाम से मनाया जा रहा था. कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हो रहे थे और केरल की लोककलाओं का एक ही स्थान पर सुंदर संयोजन नजर आ रहा था.

इन सब के बीच मैं अपना सवाल लिए आश्रम के आस-पास बसे तटीय गांव में घूम रहा था. छोटी-छोटी घुमावदार गलियां और इनके किनारे-किनारे बने छोटे-छोटे घर. हर घर के छत की संरचना झोपड़ीनुमा जो दूर से देखने पर ऐसे लगते कि कई छोटे-छोटे मंदिर एक सीध में बने हों.

Navratri in Kerala
केरल में नवरात्रि के दौरान बोम्मईगोलू सजाए जाते हैं. ये देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाओं की झांकी होती हैं. इसे दैवीय गुड़ियों का दरबार भी कहते हैं. बीच में हैं बड़ी गोलू, जिसे महाशक्ति के तौर पर देखा जाता है

इस तरह घूमते हुए मैं अपने जवाब की खोज में लगा रहा, लेकिन कहीं ऐसे निशान नहीं मिले जो ऐसा सबूत देते हों कि नवरात्रि या दुर्गा पूजा की धूम यहां भी है. इसी बीच मुझे एक घर के बाहर अधीरे (उम्र-लगभग 45 वर्ष, वह मछ्ली उद्योग से जुड़े हैं) खड़े मिले. वह मेरी ही ओर देख रहे थे. उन्होंने मुझसे पूछा कि, क्या चाहिए, कौन हो तुम (इंग्लिश में पूछा).

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मैंने अपना परिचय दिया और फिर उनसे अपना सवाल किया. क्या यहां दशहरा-नवरात्र मनाते हैं? अधीरे ने कहा- नहीं, वैसा नहीं. वह कहना चाहते थे कि यहां बहुत चलन नहीं है, लेकिन थोड़ा बहुत मनाते हैं. ये जवाब मेरे लिए काफी तो नहीं था, लेकिन इससे इतना समझ आया कि कम से कम केरलवासी, नवरात्रि, दशहरा और विजयादशमी से वाकिफ हैं.

केरल में दक्षिणेश्वर मंदिर
अब मेरी खोज और दिलचस्पी इस ओर बढ़ चली थी कि वे इसे मनाते कैसे हैं? क्योंकि मनाए जाने का कोई चिह्न तो कहीं नजर नहीं आ रहा था. खैर, इसी बीच माता अमृतानंदमयी के आश्रम पहुंच गया. आश्रम का ये परिसर अपने आप में एक मंदिर है और इस परिसर में हिंदू और सनातनी परंपरा के कई देव स्थान बने हुए हैं. इनमें आश्रम के ही मुख्य द्वार के पास एक बड़े भवन में दक्षिणेश्वर काली मंदिर पर नजर पड़ी.

यह मंदिर खुद अम्मा ने ही बनवाया है. कहते हैं कि उनके ध्यान में पश्चिम बंगाल के कोलकाता स्थित दक्षिणेश्वर मंदिर की मां का स्वरूप नजर आया था और तब उन्होंने माता काली के इस मंदिर का निर्माण कराया. मंदिर दक्षिणेश्वर शैली की ही प्रतिकृति है. द्वार पर दो सिंह हैं, जो इसे सिंहद्वार बनाते हैं. चौखट पर कीर्तिमुख असुर की मौजूदगी है.

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गर्भगृह में मां के सामने एक बड़ा अखंड दीपक जल रहा है. लाल वस्त्र, स्वर्ण शृंगार धारण किए मां अपने रौद्र रूप में नजर आ रही हैं. उनके एक हाथ में त्रिशूल है, एक हाथ में खड्ग, एक हाथ में राक्षस का मुंड और सामने का दायां हाथ अभय देने वाली मुद्रा में हैं. जीभ बाहर निकली हुई है, जो उनके रौद्र रूप को और भी भयानक छवि दे रही है.

हालांकि इस रूप में भी माता महाकाली अभय मुद्रा के साथ सौम्य नजर आ रही हैं. गर्भगृह के चारों दीवारों पर बाहर की ओर चार अन्य देव प्रतिमाएं हैं. वहीं माता के भैरव के रूप में शिव भी विराजमान हैं. दक्षिणेश्वर काली के इस मंदिर में शाक्त परंपरा की पहचान वाला लाल-पीला गोलचंदन ही लगाया जा रहा था.

Amritapuri Kali
माता अमृतानंदमयी के आश्रम परिसर (अमृतापुरी, केरल) में स्थित दक्षिणेश्वर काली मंदिर की प्रतिमा. मंदिर शाक्त परंपरा से जुड़ाव का आभास कराता है

मंदिर परिसर में सीढ़ीदार झांकी
इन सबके बीच मेरी निगाह पड़ी किनारे की ओर एक सजी एक सीढ़ीनुमा झांकी पर. लगभग 11 सीढ़ियों की इस झांकी में हर सीढ़ी पर कुछ-कुछ दैवीय आकृतियां सजी थीं. कुछ हाथ से बनी हुई, कुछ काठ की, कुछ को कपड़ों और फोम से गुड़ियों की तरह सजा कर बनाया गया था. कुछ पकी मिट्टी की भी दैवीय आकृतियां थीं. इनमें शिव, विष्णु, काली, दुर्गा, तीनों महाशक्तियां, देवगण आदि शामिल थे.

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मैंने पूछा- ये क्या है? अमृतापुरी आश्रम से जुड़े मैनेजर विष्णु प्रसाद (जो हिंदी भी समझते और बोलते थे) ने बताया कि ये गोलू है. इनको बोम्मईकोलू (बोम्मई गोलू) भी कहते हैं. विष्णु के इतना ही बताने से मुझे मेरे सवालों के जवाब मिलने शुरू हो गए थे. मैं अपनी खोज में अब ठीक जगह पर था.

मैंने पूछा- गोलू क्या है? इसका क्या मतलब हुआ?

विष्णु ने बताया- देवता की हाथ से बनी छोटी-छोटी प्रतिमाओं को गोलू कहते हैं. पहले इन्हें घरों में ही बनाते थे, लेकिन अब मार्केट से भी ले आते हैं. इनको सजाते हैं.

मैंने पूछा- लेकिन क्यों?

विष्णु- ये आजकल वो नाइन डेज होते हैं, यू नो... इसलिए.

मैंने कहा- नवरात्रि?? इस पर विष्णु ने हामी भरी और कहा- हां ऐसा ही कुछ.
 
केरल में नवरात्रि के दिनों में गोलू झांकी सजाई जाती है, जिसे असल में बोम्मईकोलू या बोम्मई गोलू कहा जाता है. बोम्मई शब्द शायद माता या देवता से आया होगा. गोलू-कोलू का अर्थ गुड़िया होता है. बोम्मईगोलू का अर्थ होता है गुड़ियों का दरबार, लेकिन असल में देखें तो यह वैसी ही झांकी है, जैसी आप उत्तर भारत में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर देखते हैं.

कई मंदिरों में सजा था गोलू दरबार
विष्णु प्रसाद से मुझे इतनी ही जानकारी मिल सकी, लेकिन मैंने वहां कई जगहों पर मंदिरों में देखा कि गोलू दरबार सजा हुआ था. हर जगह एक जैसी ही व्यवस्था. सीढ़ीनुमा स्टैंड पर नीचे से ऊपर तक अलग-अलग देवताओं की प्रतिमाओं की सजावट. ध्यान से देखने पर मैंने पाया कि नीचे के पायदान पर जो प्रतिमाएं नजर आ रही हैं, वह देवताओं जैसी नहीं हैं, वह कौन हैं, ये अनुमान लगाना मुश्किल था.

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इसी तरह मैंने यह भी देखा कि सीढ़ियों की संख्या भी हर जगह समान नहीं थी. कहीं तीन-कहीं पांच, कहीं-कहीं 9 और 11 तक पायदान वाली सीढ़ियां भी थीं. सीढ़ियों के पायदान जितने बढ़ते जाते थे गोलू की भव्यता बढ़ती जाती थी और इसी के साथ बढ़ जाते थे गोलू की सजावट के किरदार.

Bommai Kolu
तीन सीढ़ियों वाली गोलू झांकी...यह तीन लोकों की व्याख्या करती है

कहीं तीन तो कहीं पांच सीढ़ियों वाले बोम्मईगोलू
एक गोलू में ऐसा देखा कि वहां निचले तल पर मछली, उससे ऊपर कछुए, उससे अगले पायदान पर सांप और फिर पेड़-पौधे, वन्य पशु थे. फिर सामान्य मनुष्य (खेती करते किसान), अगले पायदान पर साधु आदि और उससे ऊपर देवताओं जैसे गोलू, जिन्हें उनके विशेष आभूषण और मुकुट से पहचाना जा सकता था. कुछ गोलू बहुत स्पष्ट थे जैसे राधा-कृष्ण, धनुष उठाए राम और हनुमान लेकिन अधिकांश के अर्थ को समझना मुश्किल था.

मुझे कोई ऐसा नहीं मिला जो इस पूरी झांकी को समझा सके या यह बता सके की बोम्मईगोलू का नवरात्रि से कितना और कैसा कनेक्शन है. भाषा भी इस मामले में एक बड़ी रुकावट थी, क्योंकि परंपरा और संस्कृति के बारे में जानकारी लेने के लिए इंग्लिश सटीक भाषा नहीं था और मलयाली समझ नहीं आ रही थी.

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मैंने गोलू की तस्वीरें लीं और फिर अपनी खोज के लिए आगे बढ़ चला. इसी क्रम में एक और मंदिर मेरी राह में पड़ा. मैंने वहां पांच सीढ़ियों वाली गोलू झांकी देखी. अब मुझे एक बात समझ में आ रही थी कि गोलू सजाने की परंपरा अधिकतर मंदिरों से जुड़ी है, लोग मंदिरों में आते हैं और गोलू की झांकी देखते हैं.

अधिकतर मंदिरों में ही सजते हैं गोलू
क्या गोलू सजाने की परंपरा घरों में भी है? मेरे जेहन में यही अगला सवाल उभरा. मैंने गलियों में घूमते हुए कुछ घरों में देखने की कोशिश की, लेकिन ऐसा लगा नहीं. कुछ लोगों से पूछा, क्या आपके घर गोलू है? उन्होंने कहा- इलै (नहीं) लेकिन शायद या तो वह समझ नहीं पाए या फिर वाकई वह गोलू नहीं सजाते होंगे. वे दिखने में निम्न आय वर्ग से भी लगे, तो शायद वह घर में गोलू नहीं सजाते रहे होंगे.

सवालों के इसी सफर के साथ मेरी यात्रा भी जारी रही. बोम्मईगोलू की परंपरा को समझने के लिए मैं वापस उसी मंदिर में गया, जहां मैंने 11 सीढ़ियों वाली बोम्मईगोलू देखी थी. क्योंकि यह अधिक भव्य और स्पष्ट थी और दूसरी बड़ी बात थी कि इसकी सबसे ऊपरी सीढ़ी पर मुझे महिषमर्दिनी की वैसी ही प्रतिमा नजर आ रही थी, जैसी कि हम उत्तर भारत के शहरों में पांडालों में देखते हैं. हालांकि वह सिर्फ डेढ़ या दो फीट की रही होगी, लेकिन उसे देखकर सुकून सा लगा और अब मैं बोम्मईगोलू के नवरात्रि के साथ असल में रिलेट कर पा रहा था.

फिर भी इन सबका क्या मतलब हो सकता है? इस सवाल का जवाब बाकी था. तभी मुझे उम्मीद की एक और किरण नजर आई. मैंने देखा कि वहां कोई है जो बोम्मईगोलू के आगे जल रहे दीप स्तंभ की बाती ठीक कर रही हैं. मैंने उन्हें हेलो कहा, औपचारिक परिचय दिया और अपनी बातचीत इंग्लिश में जारी रखी. मैंने पूछा कि यह क्या सजा हुआ है? इसका क्या मतलब है? उन्होंने मुझे देखा और जवाब के बजाय ये पूछा कि आप शायद बाहर से आए हैं, कहां से?

मैंने कहा- दिल्ली से.

उन्होंने कहा- मैं कोलकाता रही हूं. मेरा नाम दीपा है और यहां अमृता विद्यापीठम में फैकेल्टी हूं. दीपा असल में मलयाली जड़ों से ही जुड़ी रही हैं, उनका कुछ समय कोलकाता में रहना हुआ था, जहां उन्होंने शाक्त परंपरा की दुर्गा पूजा को देखा-समझा था. इसके साथ ही अपने केरल के कल्चर को वो जानती ही थीं. यानी मेरे सवालों के जवाबों के लिए दीपा बिल्कुल सही व्यक्तित्व थीं.

मैंने उनसे पूछा- केरल में नवरात्रि कैसे मनाते हैं? बोम्मईगोलू और ये झांकी इसका क्या मतलब है और आपकी पूजा-पाठ कैसे होती है इन दिनों.

दीपा ने बताना शुरू किया.  इधर साउथ में, स्पेशियली केरल में नवरात्रि वैसा नहीं होता जैसा कोलकाता में नौ दिन और नौ देवी होती हैं. यहां भी नौ दिन होते हैं, लेकिन पहले तीन दिन पार्वतीअम्मन के होते हैं, फिर अगले तीन दिन मायालक्ष्मी की पूजा करते हैं और आखिरी तीन दिन महासरस्वती की पूजा होती है. .

पहली नवरात्र से ही यहां बोम्मईगोलू सजाते हैं, लेकिन लोग मिल-जुलकर इन्हें मंदिरों में ही सजा लेते हैं. कुछ बडे-बड़े लोग घर में भी गोलू सजाते हैं. इसमें जो आपको पांच-सात या नौ सीढ़ी दिख रही है. ये हमारी प्रोग्रेस को दिखाता है. प्रोग्रेस यानी, हमारे जीवन की उन्नति, आध्यात्मिक उन्नति, जीव जगत की उन्नति. हर एक सीढ़ी से ऊपर वाली सीढ़ी उन्नति के बढ़ते क्रम में है.

Navratri in Kerala
अमृता विद्यापीठम (अमृतापुर केरल) के परिसर में गोलू , इसमें सात सीढ़ियां हैं, सबसे ऊपर देवी महाशक्ति हैं, जिन्हें महिषासुर मर्दिनी के तौर पर दिखाया गया है. यह झांकी बंगाली दुर्गा पूजा की झांकी से मिलती-जुलती है 

मैंने पूछा क्या ये सारे देवता हैं?

दीपा ने कहा- नहीं सारे देवता नहीं हैं. पहली सीढ़ी पर हम धरती वाले लोग हैं. हमारी चीजें हैं. हमारी जरूरत का सामान है. उससे ऊपर हमारे से बड़े या महान लोग हैं. जैसे सूरज-चंदा, ग्रह-तारे ये सब. फिर देवता हैं, जैसे श्रीकृष्ण, श्रीराम, शिवजी और गणेशजी, कार्तिकेय वगैरह. इससे ऊपर देवियां हैं. लक्ष्मी, सरस्वती, काली और फिर विष्णु के अलग-अलग दशावतार हैं, इससे ऊपर महाविष्णु हैं और सबसे ऊपर बड़ी गोलू हैं.

बड़ी गोलू? मैंने सवाल किया. उन्होंने कहा- बड़ी गोलू से मतलब है बड़ी देवी. आप उन्हें आदिशक्ति समझ सकते हैं. मुझे शाक्त परंपरा का त्रिपुर सुंदरी वाला कॉन्सेप्ट याद आया, जिसमें कहा जाता है कि देवी दुर्गा सिर्फ एक शक्ति का स्वरूप हैं और उनकी भी महाशक्ति का नाम त्रिपुर सुंदरी है. वही आदिशक्ति हैं.

फिर मैंने पूछा- क्या यहां कन्या पूजन भी होता है, जैसे बंगाल या उत्तर भारत में दिखाई देता है? उन्होंने कहा- नहीं, यहां ऐसा नहीं है, लेकिन यहां विजयदशमी मनाते हैं. उस दिन हम लोग (केरल में) बड़ी सरस्वती पूजा करते हैं. उनको नैवेद्य चढ़ता है. सफेद फूल और चावल से पूजा करते हैं. विजयदशमी केरल में दुर्गा पूजा का नहीं, सरस्वती पूजा का त्योहार है. इस दिन आयुध पूजा भी करते हैं.

मैंने कहा- आयुध यानी शस्त्र पूजा? शुभी ने बताया- सिर्फ शस्त्र पूजा नहीं, आयुध हर वो वस्तु है जो आपके काम आती है. जैसे माली खुरपा पूजा करते हैं. हम-लोग टीचर्स और स्टुडेंट्स पेन-पेंसिल को रखकर पूजा करते हैं. ऐसे ही घर में किचन के सामान की पूजा होती है. गाड़ी वगैरह की पूजा भी करते हैं इधर. और शस्त्र पूजा, यानी हथियार वाली पूजा तो होती ही है.

सरस्वती पूजा है महत्वपूर्ण
लेकिन, सरस्वती पूजा का दिन वाकई सबसे बड़ा ही है. इस दिन जो बच्चे पढ़ने लायक हो गए होते हैं, उनके हाथ पर चावल के आटे से मां सरस्वती का मंत्र या ऊं या स्वास्तिक बनाते हैं. जो स्त्रियां सुहागिन होती हैं दशमी के दिन उनको साड़ी-कपड़े आदि उपहार भी मिलता है. बच्चियों को कुछ गुड़िया आदि उपहार में दी जाती है.

क्या हर दक्षिण भारतीय हर घर में नवरात्रि पर गुड़ियों का ये दरबार सजाया जाता है?  वह कहती हैं नहीं. एक पारंपरिक त्योहार होने के नाते, इसका आधार जाति व्यवस्था पर है. पहले ब्राह्मण लोग ही अपने घर पर गोलू रखते थे. फिर वह सबको बुलाते थे और गोलू दिखाते थे. लोग उनके घर प्रसाद लेकर गोलू देखने जाते थे. हालांकि योद्धा यानी क्षत्रिय और बनिया-व्यापार से जुड़ी जातियां गोलू नहीं रखती थीं.

केरल की परंपरा में गोलू या बोम्मईगोलू का महत्वपूर्ण स्थान है. यह प्राचीन समय से चली आ रही है उनकी खास परंपरा है. गोलू में अब सिर्फ धार्मिक प्रतीक ही नहीं बल्कि सामाजिक व्यक्तित्व भी जुड़े मिलते हैं. निचले पायदान पर ऐतिहासिक लोगों की प्रतिमाएं दिखती हैं. इनमें महात्मा गांधी, अक्कामा चेरियन, के केलप्पन जैसे नायक भी हैं. इस तरह केरल नवरात्रि के नौ दिनों को अपने अलग अंदाज में मनाता है.

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