भारतीय समाज की जाति व्यवस्था में कायस्थ भी एक जाति आती है, जो सवर्णों में शामिल है, लेकिन इसे दोहरी जाति भी कहा जाता है.यानी कायस्थ भी भूमिहारों की तरह क्षत्रिय और ब्राह्मण जाति वाले होते हैं. हालांकि कर्म आधारित जाति व्यवस्था में कायस्थ न ब्राह्मण होते हैं न क्षत्रिय, उनका मुख्य पेशा लिपिक की तरह रहा है और वे मुंशी कहे जाते हैं. लेखा-जोखा रखना, आय-व्यय का विवरण रखना, प्रबंधन करना उनका पेशा रहा है और कायस्थ समाज सम्मान के साथ एक उपाधि के तौर पर मुंशी शब्द को अपने नाम के साथ जोड़ता आया है.
कैसे हुई कायस्थ शब्द की उत्पत्ति
कायस्थ शब्द की उत्पत्ति में पौराणिक कथा कुछ ऐसी है कि ब्रह्मा की काया की छाया से एक देवपुरुष उत्पन्न हुआ. इसे कायापुरुष कहा गया. इसी से कायस्थ समाज और समुदाय की उत्पत्ति हुई. यह कथा उसी पौराणिक मान्यता का सैद्धांतिक स्वरूप है, जिसमें बताया जाता है कि विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, हाथों से छत्रिय, पेट से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई. हालांकि ब्रह्मा की छाया से उत्पत्ति होना एक भ्रांति ही हो सकती है, क्योंकि पुराण ही कई जगहों पर खुद कहते हैं कि देवता की छाया नहीं होती है.
शिव-पार्वती का चौसर खेल और चित्रगुप्त की उत्पत्ति
इसी तरह एक किवदंती शिव और पार्वती को लेकर भी है. कैलास के अपने विलास क्षेत्र में महादेव शिव और पार्वती चौसर खेल रहे थे. देवी पार्वती बार-बार हार जाती थीं. उन्होंने कहा कि आप मेरे साथ खेल में छल तो नहीं कर रहे? तब महादेव ने सुझाया कि आप किसी को निरीक्षण करने के लिए रख लीजिए. तब देवी पार्वती ने अपने मन में एक छवि की कल्पना की, महादेव उस छवि को स्वर्ण पत्र पर उकेरते गए और एक चित्र बनकर सामने आ गया. पार्वती की कल्पना के प्रभाव से वह चित्र साकार हो गया और मनुष्यता के दिव्य रूप में प्रकट हो गया. चूंकि यह दिव्य पुरुष बड़े ही गुप्त रूप से चित्र से उत्पन्न हुआ था, इसलिए इसे चित्रगुप्त कहा गया.
चित्रगुप्त ने चौसर के खेल की निगरानी की, लेकिन यह तो एक बार की बात होती. बार-बार तो चौसर का खेल नहीं होने वाला था. उसी समय मृत्यु के देवता यम जो कि मृत आत्माओं के न्याय का निर्णय अकेले नहीं कर पा रहे थे. उन्हें धर्म स्वरूप में एक सहयोगी की जरूरत थी. महादेव ने चित्रगुप्त की निरीक्षण विद्या का सही इस्तेमाल समझ लिया और इस तरह चित्रगुप्त जी महाराज पृथ्वी पर सभी मानवों के कर्मों का हिसाब रखने वाले यमराज के सहायक देवता बन गए और पहले लेखाकार कहलाए.
देवराज इंद्र के हृदय को सुख पहुंचाने वाले
एक अन्य किंवदंती के अनुसार, ग्रहों और देवताओं के गुरु बृहस्पति और देवराज इंद्र के बीच कुछ अनबन हो गई. टकराव के कारण, बृहस्पति ने इंद्र का साथ छोड़ दिया. बाद में, इंद्र को अपनी गलतियों का एहसास हुआ और उन्होंने अपने गुरु से सुलह कर ली, लेकिन इंद्र पर गुरु से द्रोह का दोष लगा और वह अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए तीर्थयात्रा पर निकले. इस तीर्थयात्रा में इंद्र को एक दिव्य शिवलिंग की प्राप्ति हुई. उन्होंने वहां एक मंदिर का निर्माण किया और पास के मंदिर तालाब में सुनहरे कमल खिलने लगे. वह दिन चैत्र पूर्णिमा का था. इसके कारण इंद्र के चित्त (यानी हृदय) में एक दिव्य संतान का विचार आया.
इंद्र ने शिव से एक संतान प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की, लेकिन एक शाप के कारण इंद्र और इंद्राणी को संतान सुख नहीं मिल सकता था. तब शिव ने इंद्र को कामधेनु की सेवा का सुझाव दिया. कामधेनु सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली है. कई माह की सेवा से प्रसन्न कामधेनु ने एक दिव्य बालक को प्रकट किया और यही बालक जिसने इंद्र के चित्त को प्रसन्न किया वह चित्रगुप्त कहलाया.
तमिलनाडु में है भगवान चित्रगुप्त का प्राचीन मंदिर
तमिलनाडु के कांचीपुरम में नेल्लुकारा स्ट्रीट पर भगवान चित्रगुप्त का विशाल और प्राचीन मंदिर है. मौजूदा पत्थर की संरचना चोल वंश के द्वारा 9वीं शताब्दी ईस्वी में बनाई गई थी, जबकि बाद में कई अन्य लोगों ने मंदिर की छवि को बनाए रखने में सहयोग किया. मंदिर में चित्रगुप्त की बैठी हुई मुद्रा में छवि है. उनके दाहिने हाथ में एक एझुथानी (कलम) और बाएं हाथ में लिपियां हैं.
पुरातत्वविदों ने शिलालेखों के आधार पर पुष्टि की है कि मंदिर का निर्माण मध्यकालीन चोलों द्वारा 9वीं शताब्दी ईस्वी में किया गया था. 1911 में हुए मरम्मत के दौरान, चित्रगुप्त और उनकी पत्नी करणीकाम्बल की दो ऐतिहासिक धातु मूर्तियां मिलीं. ये छवियां केंद्रीय सभागार में रखी गई हैं. चित्रगुप्त को हिंदू ज्योतिष के नौवें ग्रह केतु के आदि देवता के रूप में माना जाता है, वे कायस्थ समुदाय के संरक्षक और केंद्रीय देवता हैं, जो श्रीचित्रगुप्त के वंशज के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन शैव और वैष्णव दोनों द्वारा पूजे जाते हैं.