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संकठा, सुहागिलें और गौरी माता... नवरात्रि की आठवीं शक्ति महागौरी की लोक मान्यता कितनी मजबूत है

गौरी माता की पूजा भारत के विभिन्न राज्यों जैसे महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बंगाल में विभिन्न रूपों में मनाई जाती है. यह पूजा खासतौर पर विवाहित स्त्रियों और नवविवाहिताओं द्वारा समूह में की जाती है, जिसमें लाल चुनरी, शृंगार और मीठा भोग अर्पित किया जाता है.

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देवी महागौरी को लोक मान्यताओं में गौरा माता, गौरा देवी के रूप में पूजा जाता है
देवी महागौरी को लोक मान्यताओं में गौरा माता, गौरा देवी के रूप में पूजा जाता है

सामान्य तौर पर और लोक संस्कृति में गौरी माता कहते ही जो पहला ख्याल आता है, वह शिवजी की पत्नी देवी पार्वती के एक नाम के तौर पर उभरता है. हालांकि यही देवी गौरी, देवी दुर्गा के तौर पर भी सामने आती हैं और यह सही भी है क्योंकि देवी दुर्गा के ही कई नामों में गौरी, पार्वती, शैलपुत्री, शिवप्रिया, भवप्रीता, उमा और साध्वी जैसे नाम शामिल हैं. 

लोक संस्कृति में गौरा माता की मौजूदगी
फिर भी गौरी माता की मौजूदगी लोक संस्कृति में पौराणिक न होते हुए बहुत सहज और सरल है. देवी गौरी की पूजा विवाहित स्त्रियों के द्वारा समूह में की जाती है और जो नवयुवतियां जिनका विवाह होने वाला हो, वह भी देवी का व्रत रखती हैं और पूजा करती हैं. इस दौरान लाल चुनरी, शृंगार के सामान और मीठा भोग प्रसाद देवी को अर्पित किया जाता है. सभी महिलाएं एक साथ पूजा करते हुए गौरी मां की कथा सुनती हैं, फिर आपस में भोग प्रसाद लेकर भोजन करती हैं. यही देवी गौरी की पूजा में शामिल एक प्रक्रिया है. 

महाराष्ट्र का मंगला गौरी व्रत, राजस्थान की गणगौर पूजा, उत्तर प्रदेश की सुहागिन गौरी व्रत, बिहार-बंगाल का गौर पूजन भले ही सालभर में अलग-अलग तिथि को होते हैं, लेकिन सबकी परंपरा लगभग एक जैसी ही है.  

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Devi Gaura
गौरा माता का निर्माण सुहागिन स्त्रियां बहुत सहजता से करती हैं. देवी की हर रोज पूजा करने का विधान है. इटावा में किसी के पूजा घर में स्थापित गौरा माता

प्राचीन है गौरा माता की मान्यता
इन परंपराओं को देखते हुए इटालवी साहित्यकार एंजेलो डे गूबर्नाटिस ने जो लिखा, वह बॉम्बे गजट (1886) में दर्ज है. वह लिखते हैं कि भारत में देखता हूं कि त्योहार जहां एक तरफ विविधता को बढ़ावा देते हैं तो वहीं पड़ोसियों के साथ संवाद बढ़ाते हैं. उनकी हर गतिविधि में एक रचनात्मकता है. उनके देवी-देवता सरल हैं. मैंने कुछ स्त्रियों को देखा जो कुएं की पास की छोटी-छोटी ढेलियां उठा लाई थीं. उन्होंने इसे एक लाल कपड़े पर सजाया और फिर वो सारी खूबसूरत चीजें उन्हें दीं, जो वो खुद पहनती हैं. ये उनकी देवी हैं. मैंने ऐसी देवी गणपति विसर्जन में भी देखी हैं. कहते हैं कि वह गणपति को ले जाने आती हैं, इसलिए एक सजे हुए घड़े को लाल साड़ी से ढककर गणपति जुलूस में आगे लेकर चलते हैं. इसी घड़े पर वो मिट्टी के ढेले रखे हैं और नारियल भी. ये गणपति की माता हैं. 

एंजेलो डे उस मिट्टी के ढेले और लाल कपड़े से ढंके जिस घड़े का जिक्र कर रहे हैं वह गौरा माता ही हैं. गौरा माता, जो गणेशजी की माता हैं, उनकी मान्यताएं लोक में इसलिए अधिक हैं क्योंकि उनकी पहचान पतिव्रता स्त्री के तौर पर है. वह पहली महिला हैं जो उसी पारंपरिक तौर तरीके से ब्याही गई हैं, जिस तरीके का विवाह का मौका हर स्त्री और पुरुष (सनातन) के जीवन में आता है. लिहाजा स्त्रियों से उसी पवित्रता और उसी समर्पण की मांग की जाती है, साथ ही गौरा माता ही उनके सुहाग और घर-परिवार की रक्षा करती हैं. इसलिए गौरा पूजन की मान्यता लोक परंपरा में अधिक है.

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नवविवाहित महिलाओं के लिए गौरा की मान्यता
गौरा पूजन का महत्व ऐसे भी समझ सकते हैं कि देवी का जुड़ाव सामान्य घर-गृहस्थी वाली महिलाओं के साथ बिल्कुल सहज है. इस पूजा के लिए महिलाओं को न किसी पंडित-आचार्य या पुरोहित की जरूरत होती है और न ही किसी तरह के बड़े यज्ञ-हवन की. यह महिलाओं के समूह की बिल्कुल निजी पूजा है. 

Gaura Mata
मंदिरों में गौरा माता की प्रतिमा देवी दुर्गा जैसी ही होती है, लेकिन उनकी महिष मर्दिनी छवि से अलग, सौम्य और एक पत्नी के रूप में. जहां वह सभी सुहागिन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं.

संकठा भवानी की मान्यता
बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा से पंजाब तक का पूरा क्षेत्र गौरा मां के विभिन्न रूपों की पूजा, अपने-अपने तरीके से करता है. पूर्वी उत्तर प्रदेश में संकठा माता की पूजा होती है. ये लोकदेवी संकट हरने वाली हैं और कृष्ण की बहन कहलाती हैं. मान्यता है कि देवी का जन्म यशोदा माता के गर्भ से योगमाया के रूप में हुआ था. कंस ने जब उन्हें फेंका तो वह विन्ध्याचल में जाकर गिरीं और वहीं पीठ के रूप में स्थापित हो गईं. 

ऐसे बनाई जाती हैं संकठा माता
संकठा की पूजा के लिए महिलाएं मिट्टी से संकठा की प्रतिमा का निर्माण करती हैं. जिसमें देवी की आंखें, होंठ कान, नाक और हाथ मुख्य होते हैं. फिर इस प्रतिमा के चूनरी में लपेटकर उन्हें पूजा स्थान में रख लेती हैं. देवी की पूजा करने के लिए महिलाएं एक दिन पहले ही अन्य सुहागिनों को निमंत्रण दे देती हैं. फिर सभी दोपहर तक संकठा पूजे जाने वाले घर में जुटती हैं. देवी मां की पूजा-आरती करके फिर प्रसाद ग्रहण करती हैं. संकठा माता को पान-बताशे, पेड़े, खील, मिश्री और इलायची का भोग लगता है. पान भी प्रसाद का हिस्सा होता है.

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फिर सभी महिलाएं एक-दूसरे को प्रसाद देती हैं, इस पूरे प्रसाद को वहीं पूजा स्थल पर बैठकर खाना होता है. प्रसाद लेकर संकठा माता को आंचल से प्रणाम करके उनके चरणों से सिंदूर का प्रसाद लेकर संकठा गौरी से अपनी मनोकामना कही जाती है.

Gaura Mata
संकठा भवानी भी देवी गौरा का ही लोकमान्यताओं में प्रचलित नाम है, इनकी प्रतिमाओं का निर्माण धातुओं में भी होने लगा है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में होती है गौरेया पूजा
ठीक इसी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश में गौरेयां खिलाई जाती हैं. गौरेयां नवसुहागिन स्त्रियों को कहते हैं, जब किसी के यहां नई बहू आती है तब उसकी सास, या बुआ सास कोई भी मनौती के तौर पर गौरेयां खिलाई जाने की मनौती ले लेती हैं. बहू के गृहप्रवेश के बाद 7, 11 या 21 नव विवाहिताएं निमंत्रित की जाती हैं और नई बहू के साथ गौरी पूजा करके गौरेयां खिलाई जाती हैं. इस दौरान भी देवी गौरी की हाथों से ही निर्मित प्रतिमा बनाई जाती हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सुहागिलों की पूजा 
कानपुर के पार करते ही यही गौरेया परंपरा सुहागिलों में बदल जाती है. तरीका वही है, बस नाम अलग है. देवी गौरी की पूजा के लिए सुहागिन स्त्रियों को निमंत्रित किया जाता है.जैसे ही सुहागिलों के लिए निमंत्रित कर दिया जाता है, उसके बाद से सभी का व्रत आरंभ हो जाता है. फिर सुहागिलें खाने तक वह व्रत बना रहता है. इसलिए सुहागिलों का निमंत्रण एक दिन पहले और अक्सर रात में दिया जाता है, ताकि भोजन आदि हो जाए. 

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Gaura Mata
राजस्थान की गणगौर पूजा भी गौरा माता की पूजा का ही एक स्वरूप है

देवी की पूजा में सिर्फ मीठा प्रसाद
फिर सभी सुहागिलें (सुहागिनें) निमंत्रित घर में जुटती हैं, देवी गौरी की पूजा करती हैं, कीर्तन-भजन करती हैं और फिर पूजन-आरती कर मिठाइयों का भोग लगाकार वही प्रसाद ग्रहण करती हैं. सुाहिगलें खाने में एक नियम और है कि इसका प्रसाद वहीं बैठकर खाना होता है और अपना प्रसाद खुद ही खाना होता है, इसे बांटा नहीं जा सकता. ये प्रसाद देवी का सौभाग्य है और इसे किसी को नहीं दिया जा सकता है. 

प्राचीन संस्कृति का जीवंत परिचय
संकठा, गौरेयां, सुहागिलें, सुहागिनी, गौरी व्रत, मंगला गौरी पूजा, गणगौर इन सभी के नाम भले ही अलग-अलग हैं लेकिन ये सभी भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं. विदेशी आक्रांताओं ने मंदिर भले ही तोड़े, पूजा पद्धतियां जरूर बदलने की कोशिश की और तीर्थयात्राओं पर भले ही रोक लगाने का प्रयास किया, लेकिन गौरी-गणेश के रूप में भारतीय संस्कृति की जो आत्मा लोक जीवन में रची-बसी है उसे न कभी कोई मिटा पाया है और न कभी मिटा पाएगा. यह परंपराएं हमेशा जीवित रहेंगी.

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