मुख्तार अंसारी के सामने हर दांव विफल, क्या अब मऊ में बीजेपी खिला पाएगी कमल?

उत्तर प्रदेश की मऊ सीट उन चुनिंदा विधानसभा सीटों में से एक है, जहां पर बीजेपी आजतक कमल नहीं खिला सकी. मुख्तार अंसारी के मऊ में बीजेपी कई सियासी दांव आजमा चुकी है, लेकिन जीत नहीं मिली. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उपचुनाव में मुख्तार के गढ़ को बीजेपी भेद पाएगी?

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मुख्तार अंसारी के गढ़ मऊ को सीएम योगी भेद पाएंगे(Photo-ITG) मुख्तार अंसारी के गढ़ मऊ को सीएम योगी भेद पाएंगे(Photo-ITG)

कुबूल अहमद

  • नई दिल्ली,
  • 06 अगस्त 2025,
  • अपडेटेड 2:14 PM IST

उत्तर प्रदेश की हाई प्रोफाइल और मुख्तार अंसारी परिवार की परंपरागत मऊ सदर विधानसभा सीट खाली हो गई है. तीन दशक से इस सीट पर अंसारी परिवार का एकछत्र कब्जा रहा है, जिसे बीजेपी कभी भी जीत नहीं सकी. मऊ सीट पर कमल खिलाने के लिए बीजेपी कई सियासी प्रयोग आजमा चुकी है. मुस्लिम उम्मीदवार उतारने से लेकर राजभर और ठाकुर दांव तक खेला, लेकिन फिर भी जीत नहीं मिल सकी. 

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बाहुबली रहे मुख्तार अंसारी के बेटे अब्बास अंसारी को भड़काऊ भाषण मामले में दो साल की सजा दिए जाने के बाद उनकी विधानसभा सदस्यता रद्द हो गई है. इसके चलते मऊ विधानसभा सीट खाली हो गई है, जिसके बाद उपचुनाव की सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. सपा और बीजेपी दोनों ही अपनी-अपनी एक्सरसाइज शुरू कर दी हैं.

मुख्तार अंसारी अब मर चुके हैं और उनके बड़े बेटे अब्बास अंसारी सजायाफ्ता होने के चलते चुनाव लड़ नहीं सकते हैं. मुख्तार का छोटा बेटा फर्जी हस्ताक्षर के मामले में गिरफ्तार है और पुलिस रिमांड पर हैं.  ऐसे में अंसारी परिवार वाली मऊ सीट पर गेम ही बदल गया है. 

अंसारी परिवार के मजबूत दुर्ग माने जाने वाले मऊ क्षेत्र को फतह करने के लिए बीजेपी कई राजनीतिक दांव और प्रयोग करके देख चुकी है, लेकिन न राम मंदिर आंदोलन के माहौल में जीत मिली और न ही योगी-मोदी की लहर में कमल खिल सका. अब सत्ता पर काबिज रहते हुए बीजेपी क्या मऊ सीट पर जीत का स्वाद चख सकेगी?

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मऊ सीट पर मुख्तार परिवार का कब्जा
मुख्तार अंसारी ने नब्बे के दशक में सियासत में कदम रखा तो उन्होंने गाजीपुर के बजाय मऊ सीट को अपनी कर्मभूमि बनाया. गाजीपुर से उनके बड़े भाई अफजाल अंसारी राजनीति किया करते थे, जिसके लिए ही मऊ को मुख्तार ने चुना. मुख्तार अंसारी 1996 में मऊ से पहली बार किस्मत आजमाए और बसपा के टिकट पर जीतकर विधानसभा पहुंचे. इसके बाद से जब तक चुनाव लड़े, वो विधायक बनते रहे.

मुख्तार अंसारी 1996 से लेकर 2017 तक लगातार पांच बार मऊ विधानसभा सीट से विधायक रहे हैं. दो बार बसपा से टिकट पर जीते, दो बार निर्दलीय और एक बार अपनी कौमी एकता दल से जीते. इस दौरान बीजेपी से लेकर सपा और अन्य दलों ने उनके खिलाफ कई दांव आजमाए, लेकिन मुख्तार अंसारी को चुनौती नहीं दे सके. जेल में रहते हुए मुख्तार अंसारी विधायक बनते रहे.

2022 में मुख्तार अंसारी की सियासी विरासत के रूप में उनके बेटे अब्बास अंसारी ने संभाली थी. मुख्तार ने अपनी जगह पर अपने बेटे अब्बास अंसारी को मऊ सीट से चुनाव लड़ाया. सपा से गठबंधन में रहते हुए अब्बास अंसारी सुभासपा से विधायक चुने गए थे, लेकिन 2022 के चुनाव प्रचार के दौरान अधिकारियों के हिसाब-किताब करने का बयान दिया था. इस मामले में अब्बास अंसारी को दो साल की सजा सुनाई गई है, जिसके चलते उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई.

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मऊ सीट पर बीजेपी का प्रयोग रहा फेल
मऊ विधानसभा सीट शुरू से ही बीजेपी के लिए काफी मुश्किल भरी रही है। बीजेपी ने इस सीट पर जीत के लिए कई दांव आजमा चुकी है, जिसमें मुस्लिम कैंडिडेट उतारने से लेकर राजभर और ठाकुर उम्मीदवार उतारा। इसके बाद भी जीत नहीं मिल सकी। इसकी असल वजह मऊ विधानसभा सीट का सियासी और जातीय समीकरण है, जो बीजेपी की जीत में सबसे बड़ी बाधा बन जाता है।

मऊ सीट पर पहला चुनाव 1957 में हुआ था, जिसमें कांग्रेस के विधायक चुने गए थे। इसके बाद 1962 में भी कांग्रेस जीत दर्ज करने में सफल रही। 1968 में जनसंघ को जीत मिली, लेकिन एक साल बाद ही 1969 में भारतीय क्रांति दल ने जीती। 1974 में सीपीआई ने परचम लहराया। सीपीआई एम जीत रही है, पर 1989 में बसपा ने कब्जा जमाया। इस समय तक बीजेपी का गठन हो चुका था और 1989 में मऊ सीट पर तीसरे नंबर पर रही.

मुस्लिम से राजभर तक का चला सियासी दांव
मऊ मुस्लिम बहुल सीट होने के चलते 1991 में बीजेपी ने मुख्तार अब्बास नकवी को उतारा, लेकिन वो कमल नहीं खिला सके। यह दौर राम मंदिर आंदोलन का रहा है। मुख्तार अब्बास नकवी ने सीपीआई के इम्तियाज अहमद को कांटे की टक्कर दी, लेकिन जीत नसीब नहीं हुई। मुख्तार अब्बास नकवी को महज 133 वोटों से हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद मऊ को मुख्तार अंसारी ने अपनी कर्मभूमि बनाया तो फिर बीजेपी के लिए यह सियासी जमीन बंजर बनकर रह गई।

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1996 में बीजेपी ने मुख्तार अंसारी के खिलाफ विजय प्रताप सिंह को उतारा। विजय प्रताप को मुख्तार ने 25973 वोटों से हराया। इसके बाद 2002 में मुख्तार अंसारी के खिलाफ बीजेपी ने खुद चुनाव लड़ने के बजाय समता पार्टी को दे दिया। समता पार्टी से सीता ने मुख्तार के खिलाफ चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें भी 33 हजार वोटों से हार का सामना करना पड़ा। इस चुनाव में मुख्तार अंसारी निर्दलीय मैदान में उतरे थे.

2007 में बीजेपी मऊ सीट पर मुख्तार अंसारी के खिलाफ चुनाव ही नहीं लड़ी. बीजेपी ने इस सीट को सुभासपा को दे दिया था. मुख्तार का मुकाबला बसपा के प्रत्याशी विजय प्रताप सिंह से हुआ और उन्हें भी सात हजार वोटों से हार का सामना करना पड़ा. कहा जाता है कि इस चुनाव में बीजेपी के लोगों ने बसपा को समर्थन किया था. 2012 में मुख्तार के खिलाफ बीजेपी ने अरजीत सिंह को उतारा, जो चौथे नंबर पर रहे। उन्हें 10 हजार वोट भी नहीं मिले।

2017 में बीजेपी ने मऊ सीट पर मुख्तार अंसारी के खिलाफ खुद चुनाव नहीं लड़ा था. बीजेपी ने अपने गठबंधन के सहयोगी सुभासपा को दे दी थी, जिससे महेंद्र राजभर ने चुनाव लड़ा. मुख्तार अंसारी ने महेंद्र राजभर को करीब साढ़े आठ हजार वोटों से हराया। 2022 चुनाव में मुख्तार अंसारी ने अपनी जगह पर अब्बास अंसारी को उतारा, जिनके खिलाफ बीजेपी ने अशोक सिंह पर दांव खेला। अब्बास अंसारी से 38,116 वोटों से बीजेपी को मात दी.

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मऊ सीट पर कमल खिलाने का ख्वाब बना रहा
बीजेपी ने मऊ सीट कभी सहयोगियों के लिए छोड़कर तो कभी लड़कर देख चुकी है. इसके बाद भी जीत दर्ज नहीं कर सकी. मुख्तार अंसारी और उनके बेटे अब्बास अंसारी के सामने बीजेपी का कोई दांव काम नहीं आया. बीजेपी ने कई प्रयोग आजमाए, लेकिन कोई भी सफल नहीं हो सका. राम मंदिर का माहौल रहा हो या फिर मोदी राज, बीजेपी का जादू मऊ विधानसभा सीट पर नहीं चला.

अब्बास अंसारी की विधानसभा सदस्यता जाने के बाद बीजेपी मऊ सीट पर कमल खिलाने का ख्वाब देखने लगी है. 31 मई को अब्बास अंसारी की सजा हुई और सीट को रिक्त करने के लिए सोमवार तक का भी इंतजार नहीं किया गया. विधानसभा अध्यक्ष सतीश महाना ने दूसरे दिन ही विधानसभा सचिवालय खुलवाकर मऊ सीट को रिक्त घोषित करने का फरमान जारी कर दिया. ऐसे में साफ है कि बीजेपी की नजर मऊ विधानसभा सीट पर किस तरह से है.

बीजेपी के लिए क्यों मऊ सीट मुश्किल बनी हुई है
मऊ विधानसभा सीट पर मुख्तार अंसारी और उनके परिवार का सियासी वर्चस्व होने के चलते बीजेपी के लिए जीतना काफी मुश्किल भरा रहा है. मऊ सदर विधानसभा में जीत का सबसे बड़ा आधार मुस्लिम मतदाता हैं. वर्ष 2022 के आंकड़ों के अनुसार सदर विधानसभा के जातिगत समीकरण में मुस्लिम मतों की संख्या करीब डेढ़ लाख से भी ज्यादा है.

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अनुसूचित जाति 91 हजार, यादव 45 हजार, राजभर 50 हजार तो चौहान मतों की संख्या 45 हजार के करीब है. ठाकुर वोटरों की संख्या करीब 20 हजार तो ब्राह्मण मत सात हजार के करीब हैं.

मुख्तार अंसारी परिवार को मुस्लिम वोटों के साथ दलित, राजभर और दूसरे ओबीसी समुदाय का वोट मिलता रहा है. ऐसे में बीजेपी ठाकुर कैंडिडेट के जरिए ही दांव आजमाती रही है, जिसके चलते उसकी राह काफी मुश्किल हो जाती है. इसीलिए बीजेपी ने कई बार यह सीट सहयोगी दलों के लिए भी छोड़ दी है, लेकिन अब फिर से उसे अपनी जीत का मौका दिख रहा है.

मऊ उपचुनाव से बनेंगे सियासी समीकरण
मऊ सीट के बहाने यूपी में राजनीति के नए समीकरण गढ़े जाएंगे. सत्ताधारी एनडीए के बीच मऊ सीट को लेकर सियासी दावेदारी शुरू हो गई. सुभासपा मुखिया ओम प्रकाश राजभर अब्बास अंसारी को अपना विधायक बताकर मऊ सीट पर दावा ठोक रहे हैं तो बीजेपी की नजर भी मऊ सीट पर है. अब ओम प्रकाश राजभर बीजेपी के साथ हाथ मिला रखा है और योगी सरकार में मंत्री हैं. इसके चलते राजभर मऊ सीट पर अपना दावा ठोक रहे हैं तो दूसरी तरफ सपा अब अपना प्रत्याशी उतारेगी.

कांग्रेस और बसपा उपचुनाव से दूरी बनाए हुए हैं और मऊ सीट पर चुनाव नहीं लड़ते हैं तो फिर सपा और एनडीए के घटक दल के बीच सीधा मुकाबला होगा. हालांकि, बीजेपी और सुभासपा में से कौन लड़ेगा, ये तय नहीं है, लेकिन एक बात जरूर है कि यह सीट बीजेपी से ज्यादा सपा और सुभासपा के लिए अनुकूल रही है.

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ओम प्रकाश राजभर अपने कोटे की सीट को बचाने के लिए पूरा दमखम लगा रहे हैं और बृजेश सिंह को उतारने की तैयारी में हैं। ऐसे में देखना है कि इस बार मऊ सीट पर क्या बीजेपी फतह की कहानी लिख पाएगी?

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