रामपुर के कद्दावर नेता आजम खान को एमपी-एमएलए कोर्ट ने सात साल की सजा सुनाई है. आजम खान के साथ ही उनकी पत्नी तंजीन फातिमा और उनके पुत्र अब्दुल्ला आजम को सात-सात साल की सजा सुनाई गई है. रामपुर की कोर्ट ने अब्दुल्ला आजम के फर्जी जन्म प्रमाण पत्र के केस में तीनों को दोषी ठहराते हुए ये सजा सुनाई है.
एमपी-एमएलए कोर्ट के फैसले के बाद आजम खान फिर से जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गए हैं. आजम खान ने सजा सुनाए जाने के बाद कहा कि फैसले और न्याय में अंतर होता है. ये फैसला हुआ है, न्याय नहीं. उधर, समाजवादी पार्टी (सपा) भी आजम खान के समर्थन में खुलकर आ गई है. पहले सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने आजम की सजा पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि उन्हें (आजम खान को) मुसलमान होने की सजा मिल रही है.
अखिलेश ने एक्स (पहले ट्विटर) पर भी पोस्ट कर कहा- आजम खान और उनके परिवार को निशाना बनाकर समाज के एक हिस्से को डराने का जो खेल खेला जा रहा है, उसे जनता देख और समझ रही है. अखिलेश ने इसे राजनीतिक साजिश बताते हुए कहा कि इंसाफ के दरवाजे खुले हुए हैं. सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) पर निशाना साधते हुए अखिलेश ने कहा कि जुल्म करने वाले याद रखें, नाइंसाफी के खिलाफ एक अदालत अवाम की भी होती है.
शिवपाल यादव ने भी एक्स पर आजम खान हैशटैग के साथ एक शायरी पोस्ट की- "आफताब छुप गया तो क्या गम, सुबह-ए-नव जरूर आएगी. शर्त बस यही कि वक्त का थोड़ा इंतजार कीजिए." अखिलेश यादव, शिवपाल यादव के साथ ही समाजवादी पार्टी के तमाम नेता खुलकर आजम खान के समर्थन में आ गए हैं. अब सवाल ये भी उठ रहे हैं कि आजम खान, उनकी पत्नी और बेटे को सजा सुनाए जाने के बाद यूपी की सियासत में इतना बवाल क्यों मच गया है, सपा के लिए उनका समर्थन जरूरी है या मजबूरी है?
आजम केस में अखिलेश इतने संजीदा क्यों?
दरअसल, आजम खान सपा की स्थापना के समय से ही पार्टी से जुड़े रहे हैं. नौ बार के पूर्व विधायक आजम यूपी में सपा की सरकारों में नगर विकास जैसे महत्वपूर्ण विभाग के मंत्री रहे हैं. उनकी गिनती सपा सरकार के सबसे ताकतवर मंत्रियों में होती थी. सत्ता परिवर्तन के बाद आजम के सितारे गर्दिश में आ गए और एक के बाद एक, उनके खिलाफ 100 से अधिक केस दर्ज हो गए. आजम खान को 27 महीने जेल में गुजारने के बाद सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी. आजम के खिलाफ एक्शन के विरोध में सपा कोई आंदोलन खड़ा करने में विफल रही थी. अखिलेश यादव की उदासीनता को लेकर भी सवाल उठे.
ये भी पढ़ें- 'मुसलमान होने की मिल रही सजा', आजम खान को 7 साल जेल होने पर बोले अखिलेश यादव
चर्चा तो ये तक शुरू हो गई थी कि आजम के मामले में अखिलेश की उदासीनता को लेकर मुस्लिम मतदाता नाराज हैं. मुस्लिमों की नाराजगी की खबरें आईं तब यूपी चुनाव से एक साल पहले अखिलेश सड़क पर उतरे और आजम के समर्थन में रामपुर से साइकिल यात्रा शुरू की थी. अखिलेश इसबार आजम के मामले में अधिक संजीदा नजर आ रहे हैं. इसे लोकसभा चुनाव से जोड़कर भी देखा जा रहा है. लोकसभा चुनाव में अब महज कुछ महीनों का ही समय बचा है, ऐसे में अखिलेश मुस्लिम वोट बैंक को नाराज करने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते. यादव के साथ मुस्लिम सपा का बेस वोटर रहा है.
आजम के कद का दूसरा नेता नहीं
आजम खान सपा के सबसे बड़े मुस्लिम चेहरे हैं और मुस्लिम मतदाताओं पर उनकी गहरी पकड़ भी मानी जाती है. कभी पूर्वी यूपी में पार्टी का मुस्लिम चेहरा रहे मुख्तार अंसारी और अतीक अहमद जैसे चेहरे पार्टी के पास रहे नहीं. मुख्तार अंसारी और उनके भाई अफजाल अंसारी ने सपा छोड़ने के बाद कौमी एकता दल नाम से अलग पार्टी बना ली थी. मुख्तार जेल में हैं तो अफजाल को भी एक मामले में सजा सुनाए जाने के बाद संसद की सदस्यता (गाजीपुर सीट से लोकसभा सदस्य) गंवानी पड़ी थी. अतीक अहमद की हत्या हो चुकी है.
चर्चा तो ये भी थी कि सपा यूपी के संभल से सांसद डॉक्टर शफीकुर्रहमान बर्क और मुरादाबाद के सांसद डॉक्टर एसटी हसन को आजम के विकल्प के रूप में उपयोग कर सकती है. लेकिन ऐसा होता नहीं नजर आ रहा. कहा तो ये भी जा रहा है कि आजम के कद का दूसरा मुस्लिम नेता फिलहाल तो क्या निकट भविष्य में भी सपा तैयार कर पाएगी, ऐसा नहीं लग रहा. अब आजम का समर्थन मुस्लिम वोट की मजबूरी है या सपा के लिए 2017, 2019 की हार के बाद 2022 के चुनाव में जुझारूपन दिखाने वाले पार्टी कैडर का मनोबल बनाए रखने के लिए जरूरी है? सवाल यही हो रहे हैं.
आजम का समर्थन सपा की मजबूरी क्यों?
आजम का समर्थन सपा के लिए इस लिहाज से भी मजबूरी बताया जा रहा है क्योंकि मायावती के नेतृत्व वाली बसपा के साथ ही बीजेपी की नजर भी मुस्लिम मतदाताओं पर है. बसपा ने निकाय चुनाव में भी ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार उतार दलित-मुस्लिम समीकरण सेट करने की मंशा साफ कर दी थी और ये रणनीति मायावती के बयानों में भी झलकती रही है. दूसरी तरफ, बीजेपी भी लोकसभा चुनाव से पहले पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने की कोशिश में है. पार्टी ने हाल ही में लखनऊ में सूफी सम्मेलन आयोजित किया था. पार्टी अब हर लोकसभा क्षेत्र में मुसलमानों के बीच संगठन के विस्तार के लिए मोदी मित्र बनाने का अभियान शुरू करने की तैयारी में है.
रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में बीजेपी की जीत ने भी सपा के कान खड़े कर दिए हैं. रामपुर और आजमगढ़ में मुस्लिम मतदाता अच्छी तादाद में हैं. इन सीटों पर बीजेपी की जीत के बाद चर्चा ये भी रही कि मुस्लिमों ने पार्टी के पक्ष में मतदान किया और इसी का नतीजा है कि सत्ताधारी दल जीतने में सफल रहा. हालांकि, उपचुनाव को लेकर धारणा ये भी है कि जिसकी सत्ता रहती है, उसकी जीत के चांस अधिक रहते हैं.
यूपी में मुस्लिम वोट की ताकत कितनी?
उत्तर प्रदेश की आबादी में मुस्लिम समाज की भागीदारी करीब 20 फीसदी है. रिपोर्ट्स के मुताबिक सूबे में लोकसभा की 80 में से 30 सीटें ऐसी हैं, जहां अल्पसंख्यक आबादी खासकर मुस्लिमों की तादाद अच्छी है. रामपुर, सहारनपुर, मेरठ, कैराना, बिजनौर, अमरोहा, मुजफ्फरनगर, संभल, नगीना, बराइच, बरेली और श्रावस्ती समेत करीब दर्जनभर सीटें ऐसी हैं जहां 30 फीसदी से अधिक मुस्लिम आबादी है. पूर्वी उत्तर प्रदेश की मऊ और आजमगढ़ समेत करीब 30 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिनका परिणाम निर्धारित करने में मुस्लिम मतदाता अहम भूमिका निभाते हैं.
ये भी पढ़ें- फेक बर्थ सर्टिफिकेट केस: आजम खान, अब्दुल्ला आजम और तंजीम फातिमा को 7-7 साल की कैद
यूपी के मुस्लिम वोट बैंक पर कभी सपा का कब्जा माना जाता था लेकिन अब तस्वीर बदल गई है. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन यानी एआईएमआईएम भी सूबे की सियासत में दस्तक दे चुकी है तो वहीं बीजेपी, बसपा, कांग्रेस जैसी पार्टियां भी मुस्लिम वोट बैंक पर नजर गड़ाए बैठी हैं. विधानसभा चुनाव में सर्वे रिपोर्ट्स के मुताबिक मुस्लिम मतदाताओं ने सपा के पक्ष में मतदान किया था. ऐसे में पार्टी के सामने इस वोट बैंक को सहेजकर साथ रखने की चुनौती भी है.
बिकेश तिवारी