भारत में अगस्त 2025 में तीन बड़ी हाइड्रो-वेदर आपदाएं (जल-मौसम संबंधी आपदाएं) देखने को मिलीं. 17 अगस्त को जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में बादल फटने के बाद भूस्खलन हुआ, जिसमें सात लोगों की जान चली गई. उत्तराखंड का उत्तरकाशी अभी भी 5 अगस्त को आई बाढ़ से उबर रहा है, जिसमें धराली गांव पूरी तरह तबाह हो गया.
लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, गृह मंत्रालय ने बताया कि 2025-26 में (30 जुलाई तक) हाइड्रो-मौसमी आपदाओं में 1600 से ज्यादा लोग मारे गए. आंध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा 343 लोगों की मौत हुई, इसके बाद मध्य प्रदेश में 243 और हिमाचल प्रदेश में 195 लोगों की जान गई.
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पिछले दो दशकों का लेखा-जोखा
गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, 2001-02 में प्राकृतिक आपदाओं में 834 लोगों की मौत हुई थी. यह संख्या 2004-05 में बढ़कर 1995 हो गई और अगले साल 2005-06 में 2500 से ज्यादा हो गई, जो 35% की वृद्धि दर्शाती है. 2007-08 तक यह आंकड़ा 3700 से अधिक हो गया.
इसके बाद के सालों में, प्रति वर्ष मरने वालों की संख्या 900 से 2000 के बीच रही. लेकिन 2013-14 में अचानक यह संख्या बढ़कर 5677 हो गई, जो पिछले साल की तुलना में पांच गुना ज्यादा थी. इसका मुख्य कारण जून 2013 में उत्तराखंड में बादल फटने से आई बाढ़ और भूस्खलन था, जिसने केदारनाथ क्षेत्र में भारी तबाही मचाई.
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आगे के वर्षों में, मौतों की संख्या 1400 से 2,500 के बीच रही. लेकिन 2023-24 में यह फिर से बढ़कर 2616 हो गई, जो 65% की वृद्धि थी. 2024-25 में यह संख्या 3080 तक पहुंच गई, जो 18% की बढ़ोतरी दर्शाती है.
पशु, मकान और फसलों का नुकसान
प्राकृतिक आपदाओं ने केवल मानव जीवन को ही नहीं, बल्कि पशुधन, मकानों और फसलों को भी भारी नुकसान पहुंचाया है.
पशुधन का नुकसान: 2005-06 में 1.1 लाख से ज्यादा पशु मारे गए. 2006-07 में यह संख्या तेजी से बढ़कर 4.5 लाख हो गई, जो पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा थी. 2023-24 में 1.19 लाख पशु मरे और 2024-25 में लगभग 62000 पशुओं की जान गई.
मकानों को नुकसान: 2007-08 में 35.2 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए, जो दो दशकों में सबसे ज्यादा है. जिन सालों में मानव मौतें कम थीं, तब भी संपत्ति का नुकसान ज्यादा रहा. 2010-11 में 13.3 लाख और 2017-18 में 9.1 लाख मकान क्षतिग्रस्त हुए. 2024-25 में 3.6 लाख से ज्यादा मकान प्रभावित हुए.
फसलों का नुकसान: खेती पर भी इन आपदाओं का बुरा असर पड़ा है. 2024-25 में 1.57 लाख हेक्टेयर से ज्यादा खेती की जमीन प्रभावित हुई. 2007-08 में लगभग 85 लाख हेक्टेयर जमीन को नुकसान हुआ. 2019-20 में यह आंकड़ा बढ़कर 114 लाख हेक्टेयर हो गया, जो दो दशकों में सबसे ज्यादा था. 2023-24 में 13.3 लाख हेक्टेयर और 2024-25 में 14.2 लाख हेक्टेयर जमीन प्रभावित हुई.
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राहत खर्च में बढ़ोतरी
आपदा राहत के लिए खर्च भी पिछले कुछ सालों में बढ़ा है. स्टेट डिजास्टर रिस्पॉन्स फंड के तहत 2020-21 में 23186 करोड़ रुपये खर्च किए गए, जो 2025-26 में (30 जुलाई तक) बढ़कर 28184 करोड़ रुपये हो गए. यह 5000 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी दर्शाता है.
वहीं, नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फंड से केंद्र सरकार की सहायता 2020-21 में 8257 करोड़ रुपये थी, जो 2023-24 में घटकर 869 करोड़ रुपये हो गई, लेकिन 2024-25 में फिर से बढ़कर 5161 करोड़ रुपये हो गई.
हाइड्रो-मौसमी आपदाओं का बढ़ता खतरा
भारत में बाढ़, चक्रवात, भूस्खलन और बादल फटने जैसी हाइड्रो-मौसमी आपदाएं सबसे आम हैं. ये आपदाएं जलवायु परिवर्तन, अनियोजित शहरीकरण, जंगलों की कटाई और खराब जल निकासी व्यवस्था के कारण और गंभीर हो रही हैं.
बाढ़: भारत में बाढ़ सबसे आम आपदा है. दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान ब्रह्मपुत्र और अन्य नदियां अपने किनारे तोड़ देती हैं, जिससे आसपास के इलाकों में बाढ़ आ जाती है. ये बाढ़ खेती के लिए जरूरी पानी और उर्वरक प्रदान करती हैं, लेकिन हजारों लोगों की जान ले सकती हैं और लाखों को बेघर कर सकती हैं.
चक्रवात: बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में हर साल औसतन आठ तूफान आते हैं, जिनमें से दो बड़े चक्रवात बनते हैं. 2020 का चक्रवात अम्फान, जिसने पश्चिम बंगाल, ओडिशा और बांग्लादेश को प्रभावित किया, 21वीं सदी का सबसे विनाशकारी चक्रवात था. इसने 128 लोगों की जान ली और 13.4-13.69 अरब अमेरिकी डॉलर का नुकसान किया.
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भूस्खलन और बादल फटना: हिमालय जैसे क्षेत्रों में भूस्खलन और बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं. 2013 में उत्तराखंड में बादल फटने से केदारनाथ में भारी तबाही हुई थी.
क्यों बढ़ रही हैं आपदाएं?
जलवायु परिवर्तन: ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण बारिश का पैटर्न बदल रहा है. मध्य भारत में भारी बारिश की घटनाएं बढ़ रही हैं, जबकि कुल वार्षिक बारिश कम हो रही है.
अनियोजित विकास: जंगलों की कटाई, अनियोजित शहरीकरण और खराब जल निकासी व्यवस्था ने बाढ़ और भूस्खलन को और बढ़ा दिया है.
हिमनदों का पिघलना: हिमालय के 67% हिमनद पिछले दशक में पिघल चुके हैं, जिससे गंगा और सिंधु जैसी नदियों में पानी की कमी हो सकती है.
अंकिता तिवारी