हरियाणा ने बदल दी 'जंगल' की परिभाषा... अब क्या होगा अरावली के जंगलों का?

हरियाणा की नई वन परिभाषा सुप्रीम कोर्ट के 1996 के गोदावर्मन फैसले और 2024-2025 के आदेशों के खिलाफ मानी जा रही है. पर्यावरण कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों का कहना है कि यह कदम अरावली के जंगलों को खनन और रियल एस्टेट के लिए खोल सकता है, जो पारिस्थितिकी और जलवायु संरक्षण के लिए बड़ा खतरा है.

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हरियाणा सरकार ने जो फैसला लिया है उससे अरावली के जंगलों को खतरा हो सकता है. (File Photo: AFP) हरियाणा सरकार ने जो फैसला लिया है उससे अरावली के जंगलों को खतरा हो सकता है. (File Photo: AFP)

आजतक साइंस डेस्क

  • नई दिल्ली,
  • 20 अगस्त 2025,
  • अपडेटेड 12:45 PM IST

हरियाणा सरकार ने एक गजट अधिसूचना जारी की है, जिसमें जंगल को 'डिक्शनरी की परिभाषा' के आधार पर परिभाषित किया गया. अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के अनुसार इस नई परिभाषा में कई कड़े नियम शामिल किए गए हैं. जो बेहद तकनीकी है. पर्यावरण कार्यकर्ताओं के अनुसार इस अधिसूचना से अरावली के अधिकांश बचे हुए जंगल कानूनी संरक्षण से बाहर हो सकते हैं.

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इस कदम ने सुप्रीम कोर्ट के 1996 के टीएन गोदावर्मन मामले के फैसले के खिलाफ सवाल खड़े किए हैं, जिसमें जंगलों की व्यापक परिभाषा को अपनाने का आदेश दिया गया था. आइए, इस मुद्दे को समझते हैं.

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हरियाणा की नई 'जंगल' परिभाषा

  • हरियाणा सरकार ने अपनी अधिसूचना में कहा कि कोई भी भूमि तब तक 'जंगल' नहीं मानी जाएगी, जब तक उसमें कम से कम 40% पेड़ों की छतरी (कैनोपी डेंसिटी) न हो.
  • इसके अलावा, अगर यह भूमि अलग-थलग है, तो इसका क्षेत्रफल कम से कम पांच हेक्टेयर होना चाहिए. अगर यह सरकारी अधिसूचित जंगलों से जुड़ा है, तो कम से कम दो हेक्टेयर.
  • इस परिभाषा में स्पष्ट रूप से सभी रैखिक, कॉम्पैक्ट, कृषि-वानिकी बागान और बगीचों को सरकारी अधिसूचित जंगलों के बाहर होने पर जंगल की श्रेणी से बाहर रखा गया है. 

पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह परिभाषा अरावली के जंगलों के लिए खतरा है, क्योंकि इस क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से पेड़ों की छतरी कम घनी होती है. कई हिस्सों में छोटे-छोटे जंगल हैं जो इस मानदंड को पूरा नहीं करते.

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सुप्रीम कोर्ट का 1996 का गोदावर्मन फैसला

  • 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने टीएन गोदावर्मन मामले में फैसला सुनाया था. कोर्ट ने कहा था कि 'जंगल' शब्द को शब्दकोश के अर्थ के आधार पर समझा जाना चाहिए, यानी ऐसी भूमि जो पेड़ों से घनी रूप से ढकी हो.
  • ऑक्सफोर्ड लर्नर्स डिक्शनरी के अनुसार, वन का अर्थ है पेड़ों से घनी तरह से ढका हुआ बड़ा क्षेत्र.
  • कोर्ट ने यह भी कहा कि जंगल चाहे सरकारी हों, निजी हों या गैर-अधिसूचित हों, सभी को वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत संरक्षित किया जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था व्यापक परिभाषा का पालन हो

19 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर सभी राज्यों को इस व्यापक परिभाषा का पालन करने का निर्देश दिया. कोर्ट ने कहा कि जब तक राज्यों द्वारा जंगलों की पहचान पूरी नहीं हो जाती, तब तक कोई भी गैर-वानिकी गतिविधि शुरू करने से पहले इस परिभाषा का पालन करना होगा.

इसके अलावा, 4 मार्च 2025 के आदेश में कोर्ट ने कहा कि जंगलों की पहचान 2011 के लफार्ज आदेश के अनुसार भू-संदर्भित (जियो-रेफरेंस्ड) होनी चाहिए, जिसमें जंगल की सीमाओं, वन्यजीव गलियारों और पहले से हटाए गए जंगल क्षेत्रों का विवरण होना चाहिए.

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पर्यावरण कार्यकर्ताओं की चिंता

पर्यावरण कार्यकर्ताओं का मानना है कि 40% कैनोपी डेंसिटी का मानदंड अरावली के लिए अव्यवहारिक है. अरावली में कम बारिश (300-600 मिमी सालाना) और पथरीली जमीन के कारण पेड़ छोटे और कांटेदार होते हैं. जंगल खुले और स्क्रब (0-10% कैनोपी) या खुले जंगल (10-40% कैनोपी) के रूप में विकसित होते हैं. यहां तक कि दिल्ली के अरावली में असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य भी इस 40% के मानदंड को पूरा नहीं करता.

अरावली में कम से कम 10% कैनोपी डेंसिटी को जंगल माना जाना चाहिए. क्षेत्रफल की सीमा को 1 और 2 हेक्टेयर करना चाहिए. इतना सख्त मानदंड अरावली के संभावित 'डीम्ड फॉरेस्ट' (ऐसे जंगल जो सरकारी रिकॉर्ड में नहीं हैं, लेकिन शब्दकोश के अर्थ में जंगल हैं) को वन संरक्षण अधिनियम के दायरे से बाहर कर देगा. इससे टाउन एंड कंट्री प्लानिंग और खनन विभागों को इन क्षेत्रों में गतिविधियां शुरू करने की छूट मिल सकती है.

हरियाणा सरकार का रुख

हरियाणा राज्य अब एक विशेषज्ञ समिति बनाएगा, जो नई परिभाषा के आधार पर जंगलों की पहचान करेगी. इस समिति की रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी जाएगी, जो इसे सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश करेगी. हालांकि, कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह कदम सुप्रीम कोर्ट के 1996 के आदेश के खिलाफ है.

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एक सेवानिवृत्त वन अधिकारी ने इसे और सख्त शब्दों में रखा. उन्होने कहा कि हरियाणा का यह कदम अवैध, शरारतपूर्ण और दुर्भावनापूर्ण है. यह केवल जंगलों को संरक्षण से बाहर करने और ठेकेदारों, खननकर्ताओं और अन्य विनाशकारी ताकतों की मदद करने के लिए किया गया है. उन्होंने कहा कि जंगलों की पहचान उनकी पारिस्थितिकीय उपयोगिता के आधार पर होनी चाहिए, न कि केवल पेड़ों की संख्या के आधार पर.

अरावली का महत्व और जलवायु परिवर्तन

अरावली भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है, जो गुजरात से हरियाणा तक 670 किलोमीटर तक फैली है. यह क्षेत्र जैव विविधता से समृद्ध है और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ एक प्राकृतिक ढाल है. 

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हरियाणा में अरावली के लगभग दो-तिहाई हिस्से को पंजाब लैंड प्रिजर्वेशन एक्ट (PLPA), 1900 के तहत संरक्षित किया गया है. लेकिन गैर-अधिसूचित जंगलों को 'डीम्ड फॉरेस्ट' के रूप में मान्यता नहीं दी गई है, जिससे वे खनन और रियल एस्टेट जैसी गतिविधियों के लिए असुरक्षित हैं.

हरियाणा में बाढ़ और भारी बारिश जैसी चरम जलवायु घटनाओं ने तबाही मचाई है. विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली जैसे पारिस्थितिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों का संरक्षण इन आपदाओं से बचाव का एकमात्र तरीका है.

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2023 का वन संरक्षण संशोधन अधिनियम

2023 में वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन ने विवाद को और बढ़ा दिया. इस संशोधन ने गैर-अधिसूचित और डीम्ड फॉरेस्ट को कानूनी संरक्षण से बाहर कर दिया, जिससे 1980 और 1996 के बीच जंगल की भूमि के गैर-वानिकी उपयोग को वैध करने का रास्ता खुल गया. 

सुप्रीम कोर्ट ने इस संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए 2024 में अंतरिम आदेश जारी किया, जिसमें कहा गया कि 1996 की परिभाषा का पालन करना होगा.

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