रामविलास पासवान को देश का सबसे बड़ा चुनावी मौसम ज्ञाता समझा जाता रहा है. पर पिछले कुछ सालों में इस विधा में जो कौशल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दिखाई है वह उन्हें इस क्षेत्र में सिरमौर बनाती है. 2024 लोकसभा चुनावों के पहले उन्होंने अपनी इसी प्रतिभा के बल पर इंडिया गुट को बाय-बाय करके एनडीए गठबंधन में वापसी कर ली थी. इसी प्रतिभा के बल लगभग 19 साल से अभी तक बिहार के मुख्यमंत्री पद पर काबिज हैं. वक्फ बोर्ड संशोधन बिल पर उनके समर्थन को बहुत से राजनीतिक विश्लेषक गैंबल मान रहे हैं, पर जो उन्हें और बिहार की राजनीति को नजदीक से जानते हैं उन्हें पता है कि नीतीश कुमार इस उम्र में शानदार पोलिटिकल गेम खेल रहे हैं. यही हाल लोजपा ( रामविलास ) के अध्यक्ष चिराग पासवान का है. अपने पिता के पदचिह्नो पर चलते हुए उन्हें भी यह खेल समझ में आने लगा है. इन दोनों राजनीतिज्ञों ने बिहार विधानसभा चुनावों के कुछ महीने पहले वक्फ बोर्ड संसोधन बिल पर अपना समर्थन देकर बहुत बड़ा जुआ खेला है. आइये देखते हैं कि जेडीयू और लोजपा ( आर) के लिए कितना महत्वपूर्ण था वक्फ बोर्ड बिल को समर्थन देने का फैसला ?
1-बीजेपी खेमे में आने के बाद से नहीं मिला नीतीश कुमार को मुसलमानों का साथ
सीएसडीएस की रिपोर्ट्स के अनुसार 2015 के विधानसभा चुनावों में जब नीतीश महागठबंधन का हिस्सा थे, तो गठबंधन ने 80% मुस्लिम वोट हासिल किए. पर 2015 के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन के साथ आने के बाद मुस्लिम राजनीति पर उनकी पक़ड़ ढीली पड़ती गई. 2020 के विधानसभा चुनावों में जेडीयू गठबंधन सिर्फ 5 फीसदी मुस्लिम वोट हासिल कर सका. 2019 के लोकसभा चुनावों में सिर्फ 6 फीसदी मुसलमानों ने जेडीयू गठबंधन को वोट दिया, जबकि 80 फीसदी ने आरजेडी को समर्थन दिया. हालांकि 2024 के लोकसभा चुनावों में 12% मुसलमानों ने जेडीयू गठबंधन को वोट मिला था.
बिहार के चार मुस्लिम बाहुल जिलों का विश्लेषण जो 24 विधानसभा क्षेत्रों में फैले हैं, दिखाता है कि जेडीयू ने 2015 के चुनावों में यहां 7 सीटें जीती थीं. हालांकि, 2020 में जब जेडीयू एनडीए के साथ था, तो उसने सिर्फ तीन सीटें जीतीं. इन जिलों में 30 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी है. यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि जेडीयू जैसे ही एनडीए के साथ जुड़ी, मुसलमानों का समर्थन खो बैठी.
2015 में जेडीयू ने 7 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे और उनमें से 5 जीते. जबकि 2020 में 11 मुस्लिम उम्मीदवार उतारने के बावजूद जेडीयू का कोई भी उम्मीदवार जीत नहीं सका. जाहिर है कि 2025 में यही हाल होता. अगर वक्फ बोर्ड बिल पर नीतीश मुसलमानों का समर्थन भी करते तो उन्हें बीजेपी के साथ रहते कोई फायदा नहीं होने वाला था.
2-राहुल-प्रियंका और सोनिया भी वक्फ बिल के विरोध से बचते दिखे
नीतीश कुमार और चिराग पासवान देख रहे हैं कि राहुल गांधी-प्रियंका गांधी और सोनिया गांधी तक ने वक्फ बोर्ड बिल पर खुद कुछ भी बोलने से बच रहे हैं. राहुल गांधी ने कुछ ट्वीट जरूर वक्फ बोर्ड संशोधन बिल के खिलाफ किए हैं पर जिस तरह वो जाति जनगणना के बारे में बोलते हैं उस तरह बोलने से वो बच रहे है. जिस तरह अखिलेश यादव , तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि सत्ता में आने के बाद वो इस बिल को खत्म कर देंगे , उस अंदाज में गांधी परिवार नहीं बोल रहा है.
मतलब साफ है कि गांधी परिवार को बिल का विरोध करके हिंदुओं के बीच अपनी लोकप्रियता नहीं घटानी हैं. कांग्रेस अपने परंपरागत सवर्ण हिंदुओं का वोट लेने के लिए इस रणनीति पर काम कर रही है. नीतीश कुमार और चिराग पासवान भी इसी रणनीति पर काम कर रहे हैं. इसके साथ हिंदुत्व का जोर सवर्णों से अधिक पिछड़ों और दलित जातियों में है. शहर हो या कस्बा मुस्लिम समुदाय से आमने सामने का झगड़ा पिछड़़ों -अति पिछड़ा और दलित समुदाय से ही रहता है. नीतीश कुमार और चिराग यह समझ रहे हैं कि अगर वक्फ बिल का विरोध किया तो उनके परंपरागत वोटर्स पर भी प्रभाव पड़ सकता है. अगर ये बीजेपी की ओर शिफ्ट हो गए तो उनके लिए और मुश्किल हो जाएगी.
3-बिहार में राहुल गांधी ने अपनी यात्रा में नहीं बोला वक्फ बिल पर एक भी शब्द
बिहार में कांग्रेस की कन्हैया कुमार के नेतृत्व में पलायन रोको-नौकरी दो यात्रा चल रही है. सोमवार को आज राहुल गांधी बेगुसराय में इस यात्रा में शामिल हुए. बाद में उन्होंने पटना में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित किया. इस संबोधन में राहुल गांधी का सारा जोर जाति जनगणना पर था. उन्होंने एक बार भी वक्फ बिल पर नहीं बोला. राहुल गांधी को पता है कि अगर वक्फ बिल संशोधन अधिनियम का विरोध करके हिंदू वोटर्स को नाराज नहीं कर सकते.
वक्फ बिल के खिलाफ तेजस्वी यादव गला फाड़कर चिल्ला रहे हैं पर बिहार की सभी पार्टियां इस मुद्दे पर विरोध करते हुए मौन धारण किए हुए हैं. नीतीश कुमार को पता है कि उन्हें 6 से 8 परसेंट वोट मुसलमानों के मिलते हैं जितना बीजेपी को मिलते हैं. जाहिर है कि ये वोट तो उन्हें मिलेंगे ही.
4-बिहार में पसमांदा मुसलमानों पर फोकस
नीतीश कुमार की महागठबंधन सरकार ने बिहार में जातिगत सर्वे कराया था.सर्वे के मुताबिक़ बिहार की कुल आबादी 13 करोड़ है. इसमें 81.99 फ़ीसदी हिंदू और 17.70 फ़ीसदी मुसलमान हैं. मुसलमानों की कुल आबादी में करीब 73 प्रतिशत आबादी पसमांदा मुसलमानों की है. पसमांदा मुसलमानों को पहले आम चुनावों से आज तक उनकी संख्या के मुताबित प्रतिनिधित्व नहीं मिला. हिंदुओं में पिछड़े तबकों ने अपना अलग वोटबैंक बनाकर इतनी तरक्की कर ली कि आज सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले कहीं अधिक संख्या में पिछड़े और दलित विधायक और सांसद ही नहीं मंत्री भी बनते हैं.
बिहार में जाति सर्वे से पहली बार पता चला है कि राज्य में इतनी बड़ी संख्या में होने के बावजूद उनका प्रतिनिधत्व नगण्य रहा है. पहले चुनाव (1952) से चौदहवें (2004) तक लोकसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व में विसंगति स्पष्ट है. जबकि मुस्लिम आबादी कुल आबादी का 10-14 प्रतिशत के बीच थी, उनका लोकसभा प्रतिनिधित्व 5.3 प्रतिशत था. हालांकि, राष्ट्रीय जनसंख्या का 2.1 प्रतिशत हिस्सा रखने वाले अशरफ़ों का पहली से चौदहवीं लोकसभा में 4.5 प्रतिशत प्रतिनिधित्व था. इसके विपरीत पसमांदा मुसलमानों, जो आबादी का 11.4 प्रतिशत हैं, का प्रतिनिधित्व मात्र 0.8 प्रतिशत था. जाहिर है कि पसमांदा समाज में असंतोष तो होगा ही . वक्फ बोर्ड संशोधन अधिनियम के बाद से वक्फ बोर्ड में पसमांदा समाज के सीट आरक्षित कर दी गई है. जाहिर है कि जेडीयू और लोजपा (आर) के लिए अपने मुस्लिम समर्थकों को बताने के लिए मजबूत पॉइंट मिल गया है.
राहुल गांधी ने पटना में कहा कि अगर आप सवर्ण नहीं है तो देश के दूसरे दर्जे के नागरिक हैं. यह बात मुसलमानों के साथ भी लागू होता है. क्योंकि 73 परसेंट मुसलमानों के साथ भी वैसा ही व्यवहार होता है.
संयम श्रीवास्तव