उपराष्ट्रपति के औपचारिक चुनाव ऐलान के साथ सियासी ताना-बाना बुना जाने लगा है. बीजेपी के जीत का पलड़ा भारी है, लेकिन कांग्रेस की स्ट्रेटेजी विपक्ष की तरफ से संयुक्त उम्मीदवार उतारकर चुनावी मुकाबले को रोचक बनाने की है. बीजेपी ने 2022 में जगदीप धनखड़ को जिस मार्जिन के साथ जीत दिलाई थी, लेकिन इस बार के उपराष्ट्रपति के चुनाव में सियासी हालात काफी अलग हैं. सियासी समीकरण से लेकर साथी तक बदल चुके हैं.
बीजेपी ने 2022 के उपराष्ट्रपति के चुनाव में जगदीप धनखड़ को एनडीए प्रत्याशी के तौर पर उतारा था, जिनके सामने कांग्रेस ने मार्गरेट अल्वा को विपक्ष का उम्मीदवार बनाकर उतारा था. धनखड़ ने मार्गरेट अल्वा को भारी मतों से हराया था. जगदीप धनखड़ को 528 वोट मिले थे, जबकि मार्गरेट अल्वा को 182 सांसदों का ही समर्थन मिल सका था.
जगदीप धनखड़ के बीच कार्यकाल में इस्तीफा देने के बाद अब चुनाव हो रहा है. 9 सितंबर को उपराष्ट्रपति के लिए मतदान है. 2022 से 2025 की स्थिति पूरी तरह से अलग है. तीन साल में बीजेपी सांसदों की संख्या कम हुई है तो कांग्रेस की सीटें बढ़ी हैं. यही नहीं, दोस्त भी बदल गए हैं. इसके चलते इस बार का उपराष्ट्रपति चुनाव काफी अलग है और बीजेपी के लिए पहले जैसी जीत दर्ज करना भी आसान नहीं है.
बीजेपी को घेरने का विपक्ष का संयुक्त प्लान
उपराष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी का पलड़ा भले ही भारी हो, लेकिन कांग्रेस साझा उम्मीदवार को मैदान में उतारकर विपक्षी एकता का संदेश देने के साथ एनडीए के सहयोगी दलों को असमंजस में डालने की रणनीति बना रही है. विपक्ष के साझा उम्मीदवार पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी सात अगस्त को डिनर पर विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक के नेताओं के साथ मंथन करेंगे.
कांग्रेस की रणनीति बीजेपी को घेरने की है, जिसके लिए बिहार या फिर आंध्र प्रदेश के किसी नेता को उम्मीदवार बनाने का प्लान बना रही है। इस तरह विपक्ष की स्ट्रेटेजी है कि बीजेपी के दो सबसे बड़े सहयोगियों टीडीपी और जेडीयू को असमंजस में डाला जा सके. इस चुनाव के बहाने कांग्रेस की नजर विपक्षी एकता कायम कर शक्ति प्रदर्शन करने और एनडीए को घेरने की है. इसीलिए बीजेपी के सहयोगी दलों वाले राज्य से उम्मीदवार उतारकर क्षेत्रीय अस्मिता का दांव खेलना चाहती है.
बीजेपी को जीत नहीं बल्कि मार्जिन की चिंता
बीजेपी उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में अपने उम्मीदवार को आसानी से जीत दिला सकती है, लेकिन उसकी चिंता जीत से ज्यादा मार्जिन की है. 2022 उपराष्ट्रपति के चुनाव में जगदीप धनखड़ को मिली भारी मतों से जीत में एनडीए दलों के समर्थन के साथ-साथ कई गैर-एनडीए दलों का भी अहम योगदान था. इसमें नवीन पटनायक की बीजेडी, जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और मायावती की बसपा ने एनडीए के प्रत्याशी जगदीप धनखड़ को समर्थन दिया था.
9 सितंबर 2025 को होने वाले उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में बीजेपी 2022 की तरह समर्थन की उम्मीद लगा रही, लेकिन तीन साल में गंगा से बहुत पानी बह चुका है. वाईएसआर कांग्रेस, बीआरएस और बीजेडी के पहले की तरह दोस्ती नहीं रही. बीजेपी के सांसदों की संख्या भी कम हो चुकी है. ऐसे में बीजेपी की कोशिश पहले एनडीए के दो सबसे बड़े सहयोगियों जेडीयू-टीडीपी के समर्थन को बनाए रखने की है. इसके चलते ही बीजेपी के लिए धनखड़ जैसी मार्जिन के साथ इस बार उपराष्ट्रपति चुनाव जीतना आसान नहीं है.
तीन साल में कैसे बदल गया है सियासी गेम?
उपराष्ट्रपति पद के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सदस्य वोटिंग करते हैं। इस तरह से लोकसभा और राज्यसभा के कुल 782 सांसद हैं, जिसमें से बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के पास फिलहाल 418 सांसदों का समर्थन हासिल है. उपराष्ट्रपति पद पर एनडीए को जीत के लिए जरूरी 392 सदस्यों से 26 वोट ज्यादा हैं. इसके अलावा बीजेपी को राज्यसभा में सात मनोनीत और तीन निर्दलीय में से करीब दो का समर्थन मिल सकता है.
2022 के चुनाव में एनडीए के प्रत्याशी रहे जगदीप धनखड़ को 528 वोट मिले थे और मार्गरेट अल्वा को 182 वोट ही मिले थे. यह समर्थन जुटाना बीजेपी के लिए काफी मुश्किल है. आंध्र प्रदेश के ही वाईएसआरसीपी जिनके राज्यसभा में सात सदस्य हैं, उनका समर्थन हासिल करना एनडीए के लिए आसान नहीं होगा. ऐसे ही 2024 के बाद बीजेडी के साथ बीजेपी के रिश्ते बिगड़ चुके हैं. बसपा के पास सिर्फ एक वोट ही बचा है जबकि पहले उसके पास 12 सांसदों का समर्थन था. इसके अलावा अकाली दल से लेकर एआईएडीएमके तक से रिश्ता बीजेपी का टूट चुका है.
बीजेपी की पहले जैसी ताकत लोकसभा में नहीं रही. बीजेपी 303 सीटों से घटकर 240 सीट पर आ गई है. इसके अलावा कांग्रेस सांसदों की संख्या लोकसभा में दोगुना हो गई है तो सपा और आरजेडी का भी ग्राफ बढ़ा है. ममता बनर्जी की टीएमसी के सांसद पहले से ज्यादा बढ़ गए हैं. इस तरह विपक्ष पहले से ज्यादा ताकतवर नजर आ रहा है. यही वजह है कि बीजेपी को चिंता उपराष्ट्रपति का चुनाव जीतने की नहीं बल्कि पहले जैसा प्रदर्शन करने की है.
बीजेपी कैसे जुटाएगी पहले जैसा समर्थन
बीजेपी के लिए जगदीप धनखड़ जैसा समर्थन जुटाना इस बार के चुनाव में आसान नहीं है, क्योंकि सियासी समीकरण बदलने के साथ-साथ पुराने दोस्त भी बदल गए हैं. वहीं, कांग्रेस संयुक्त उम्मीदवार उतारकर इंडिया गठबंधन ही नहीं बल्कि पूरे विपक्ष को एकजुट करने की रणनीति है. इसके अलावा कांग्रेस जिस तरह से आंध्र प्रदेश या बिहार से उम्मीदवार तलाश रहा है, उसके चलते बीजेपी को एनडीए के दलों को एकजुट रखने की भी चुनौती होगी.
विपक्ष का उम्मीदवार बिहार से हुआ तो जेडीयू, एलजेपी, आरएलएम के लिए भाजपा के लिए असमंजस की स्थिति पैदा हो सकती है. इसी प्रकार आंध्र प्रदेश के उम्मीदवार के मामले में टीडीपी और जनसेना के सामने कशमकश की स्थिति होगी. इस तरह से दोनों सदनों को मिलाकर जेडीयू के पास 16, एलजेपी के पास 5 और आरएलएम के पास 1 सांसद हैं. टीडीपी के पास 18 और जनसेना पार्टी के पास 2 सांसद हैं.
कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना है कि अगर विपक्ष का उम्मीदवार आंध्र प्रदेश या बिहार से हुआ तो क्षेत्रीय भावनाओं के साथ संतुलन बैठाने के लिए नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू उलझन में होंगे. आंध्र प्रदेश के ही वाईएसआरसीपी जिनके राज्यसभा में सात सदस्य हैं, विपक्ष के साथ आ सकती है. ऐसे में विपक्ष संदेश देगा कि एनडीए में फूट है और विपक्ष पूरी तरह से एकजुट है. उपराष्ट्रपति पद के लिए एनडीए से लेकर विपक्ष तक सियासी ताना-बाना बुन रहे हैं. अब देखना है कि किसकी रणनीति कारगर रहती है?
कुबूल अहमद