बिहार चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है और सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) हो या विपक्षी महागठबंधन, दोनों गठबंधनों में अभी यह भी तय नहीं हो सका है कि किस सीट पर कौन सी पार्टी चुनाव लड़ेगी. छोटे दलों की बड़ी डिमांड है और नतीजा यह कि बैठक दर बैठक के बावजूद किसी फॉर्मूले पर सहमति नहीं बन सकी है.
दोनों ही गठबंधनों में पटना से दिल्ली तक विचार-विमर्श, बैठकों और मंथन का दौर लगातार चल रहा है, लेकिन अब तक सीट शेयरिंग फॉर्मूले के रूप में 'अमृत' इन मंथनों से अब तक नहीं निकल सका है. चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बावजूद सीट शेयरिंग पर तस्वीर स्पष्ट नहीं हो पा रही है, तो इसके पीछे भी इन्हीं छोटे दलों का रोल चर्चा में है.
चिराग पासवान की अगुवाई वाली लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और जीतनराम मांझी की अगुवाई वाली हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) की डिमांड ने एनडीए की टेंशन बढ़ा दी है. वहीं, मुकेश सहनी और लेफ्ट की डिमांड्स ने विपक्षी महागठबंधन में सीट शेयरिंग पर पेच फंसा रखा है. अब बात इसे लेकर भी होने लगी है कि क्या छोटे दल बिहार चुनाव में सत्ताधारी और विपक्षी गठबंधनों के लिए मुसीबत साबित होंगे?
एनडीए के छोटे दलों की डिमांड क्या
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एनडीए से लेकर विपक्षी महागठबंधन तक, सभी जीतने की क्षमता के आधार पर सीट शेयरिंग की बात कह रहे हैं. ऐसे में चर्चा राजनीतिक दलों की ताकत की भी हो रही है. एनडीए की बात करें तो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) बिहार विधानसभा में एनडीए का सबसे बड़ा घटक है. वहीं, नीतीश कुमार की अगुवाई वाली जनता दल (यूनाइटेड) सूबे में सरकार का नेतृत्व कर रही है. इन दो बड़ी पार्टियों के साथ गठबंधन में चिराग पासवान की एलजेपीआर और जीतनराम मांझी की हम पार्टी, उपेंद्र कुशवाहा की अगुवाई वाला राष्ट्रीय लोक मोर्चा भी है.
उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी 10 से 12 सीटों की डिमांड कर रही है. वहीं, चिराग की पार्टी 43 से अधिक सीटें चाहती है. एलजेपीआर के सांसद राजेश वर्मा ने तो यहां तक कह दिया था कि 2020 का चुनाव अकेले लड़े थे. इस बार भी अकेले लड़ने में हमें कोई दिक्कत नहीं है. हमें सम्मानजनक संख्या में सीटें मिलनी चाहिए. वहीं, जीतनराम मांझी की पार्टी भी 15 सीटों की डिमांड कर रही है.
केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी ने एक दिन पहले ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर कविता पोस्ट करते हुए एनडीए को संदेश दिया था- दे दो HAM को 15 ग्राम. एनडीए का जो संभावित सीट शेयरिंग फॉर्मूला सामने आया है, उसके मुताबिक बीजेपी और जेडीयू 205 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं. वहीं, चिराग की पार्टी को 25, जीतनराम मांझी को सात और उपेंद्र कुशवाहा को छह सीटें देने का ऑफर एनडीए की ओर से दिया गया है.
महागठबंधन में किसकी क्या डिमांड
विपक्षी महागठबंधन में शामिल दलों के डिमांड की बात करें तो मुकेश सहनी की अगुवाई वाली विकासशील इंसान पार्टी कम से कम 40 सीटों की डिमांड कर रही है. वीआईपी कुछ कम सीटों पर भी मान जाने को तैयार है, लेकिन शर्त यह है कि मुकेश सहनी को डिप्टी सीएम फेस घोषित किया जाए. एक पेच यह भी है कि वीआईपी के दावे वाली करीब दर्जनभर सीटें ऐसी हैं, जहां आरजेडी-कांग्रेस और लेफ्ट के विधायक हैं.
लेफ्ट की डिमांड ने भी सीट शेयरिंग पर पेच फंसाया हुआ है. लेफ्ट कम से कम 30 सीटों की डिमांड पर अड़ा हुआ है और बिहार में महागठबंधन की अगुवाई कर रहे राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) को अपनी फाइनल लिस्ट भी सौंप चुका है.
चिराग की पार्टी का बेस पासवान वोट
आधार की बात करें तो चिराग पासवान की पार्टी का बेस पासवान वोट बैंक है. बिहार में पासवान आबादी 69 लाख 43 हजार के करीब है. बिहार की कुल आबादी में पासवान जाति की भागीदारी करीब 5.31 फीसदी है. यह आंकड़े अकेले जीत दिलाने की स्थिति में भले ही नहीं हों, लेकिन जिसके साथ जाएं, उसके जीतने की संभावनाएं बढ़ा देते हैं. 2020 के चुनाव में चिराग के अलग राह ले लेने से एनडीए को नुकसान उठाना पड़ा था और नीतीश कुमार की पार्टी तीसरे नंबर पर खिसक गई थी.
महादलित वोट बैंक पर मांझी की पार्टी का दावा
जीतनराम मांझी की पार्टी महादलित वोट बैंक पर दावा करती है. इस वर्ग की बिहार की कुल आबादी में भागीदारी करीब 14 फीसदी है. मांझी की अपनी जाति मुसहर की आबादी सूबे में 3.09 फीसदी है. गया और आसपास के जिलों में मांझी का मजबूत प्रभाव माना जाता है. मांझी की पार्टी को 2020 के बिहार चुनाव में चार सीटों पर जीत मिली थी और इनमें से तीन सीटें गया जिले की थीं.
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मुकेश सहनी का दावा निषाद वोट बैंक पर
मुकेश सहनी जिस सहनी यानी मल्लाह जाति से आते हैं, बिहार की कुल आबादी में उसकी भागीदारी 2.61 फीसदी है. उनकी पार्टी निषाद वोट बैंक पर दावेदारी जताती है, जिसकी कुल आबादी सभी उपजातियों को जोड़कर करीब 9.65 फीसदी पहुंचती है. मुकेश सहनी की पार्टी का प्रभाव दरभंगा और आसपास के साथ ही बिहार के तटवर्ती इलाकों में माना जाता है.
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लेफ्ट पार्टियों का पांच फीसदी से भी जनाधार
बिहार में 1960 के दशक तक लेफ्ट ने अपनी जमीन मजबूत कर ली थी. सूबे के मिथिलांचल, शाहाबा, मगध और पूर्णिया जैसे क्षेत्रों के साथ ही पटना जैसे शहरी क्षेत्रों में भी लेफ्ट मजबूत मौजूदगी दर्ज करा रहा था. लेकिन मंडल-कमंडल की राजनीति के दौर में लेफ्ट की श्रमिक पॉलिटिक्स का आधार खिसकता चला गया और इन दलों का वोट शेयर 2015 के बिहार चुनाव में चार फीसदी से भी नीचे रहा. 2020 चुनाव से पहले महागठबंधन में एंट्री के बाद लेफ्ट को 4.6 फीसदी वोट शेयर के साथ 16 विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी.
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क्या मुसीबत साबित होंगे छोटे दल?
अब सवाल यह भी है कि छोटे दल क्या इन गठबंधनों के लिए मुसीबत साबित होंगे? दरअसल, थोड़ा जनाधार वाले इन दलों के वोट बैंक की खासियत यह है कि ये गठबंधन सहयोगी को ट्रांसफर भी होते हैं. ये छोटे-छोटे चंक अकेले जीत दिलाने की स्थिति में तो नहीं, लेकिन क्लोज फाइट वाली सीटों पर 'चेरी ऑन केक' का रोल जरूर निभा सकती हैं, जीत की संभावनाएं बढ़ा सकती हैं. वहीं, नाराजगी या उपेक्षा का संदेश गया तो बैकफायर का खतरा भी है.
बिकेश तिवारी