बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. 202 सीटों के साथ एनडीए ने प्रचंड जीत दर्ज की है. वहीं महागठबंधन 35 सीटों पर सिमट गया है. बिहार में महागठबंधन को इस बार जोरदार झटका लगा और RJD-कांग्रेस गठबंधन ने 2010 के बाद अपना सबसे खराब प्रदर्शन दर्ज किया. आखिर इसके पीछे पांच बड़ी वजहें क्या रहीं? आइए समझते हैं.
आपसी झगड़ा पड़ गया भारी
महागठबंधन शुरू से ही भरोसे की कमी और पार्टनरों के बीच खींचतान से घिरा रहा. तेजस्वी यादव नेतृत्व करना चाहते थे, लेकिन कांग्रेस बैकफुट पर रहने को तैयार नहीं थी. वोटर अधिकार यात्रा के बाद राहुल गांधी बिहार की राजनीति से गायब दिखे और अंदरूनी झगड़ों पर बात करने से भी बचते रहे. उधर छोटे साथी जैसे मुकेश सहनी और सीपीएमएल भी खुलकर अपनी हिस्सेदारी मांगने लगे.
तेजस्वी जब दिल्ली में लैंड-फॉर-जॉब्स केस की सुनवाई के लिए गए, तो सबको लगा कि राहुल-तेजस्वी मुलाकात होगी. लेकिन कुछ नहीं हुआ और खबरें आईं कि तेजस्वी नाराज होकर लौट आए. सीट बंटवारे से शुरू हुआ विवाद इतना बढ़ा कि हर पार्टी अपनी-अपनी कैंपेन चलाने लगी. इसका असर कार्यकर्ताओं पर पड़ा और वोटों का ट्रांसफर पूरी तरह फेल हो गया.
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तेजस्वी को सीएम फेस बनाना एक बड़ी गलती?
तेजस्वी यादव को महागठबंधन का सीएम चेहरा घोषित करना उल्टा पड़ गया. एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता के मुताबिक, 'यह हमारी सबसे बड़ी गलती थी. हम ऐसा नहीं चाहते थे. कांग्रेस भी इस फैसले को लेकर आधी-अधूरी दिखी.' कांग्रेस में कई नेताओं को लगा कि तेजस्वी पर भ्रष्टाचार और ‘जंगलराज’ की पुरानी छवि का बोझ था. ऊपर से प्रशांत किशोर लगातार योग्यता और विश्वसनीयता की बात उठा रहे थे, जिससे यह फैसला और विवादित हो गया.
कांग्रेस ने अशोक गहलोत को भी भेजा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. मंच पर तेजस्वी ही पोस्टरों पर हावी थे, जिससे साफ संदेश गया कि RJD ने कांग्रेस पर अपना फैसला थोप दिया है. फिर मुकेश सहनी को डिप्टी CM घोषित करने की गलती हुई. इससे मुसलमान समुदाय नाराज हुआ और महादलित समुदाय भी दूर चला गया, जिसे NDA पहले से जोर-शोर से साध रहा था.
बिहार में फेल हो गया गांधी मैजिक
विपक्ष का कैंपेन कमजोर रहा और सहयोगियों में केमिस्ट्री भी नहीं दिखी. राहुल गांधी जब लैटिन अमेरिका की यात्रा के बाद लौटे, कांग्रेस तब तक मौका खो चुकी थी. वोटर अधिकार यात्रा के दौरान भी राहुल-तेजस्वी की ट्यूनिंग नहीं दिखी. राहुल गांधी पूरी तरह इन्वॉल्व नहीं दिखे और संयुक्त रैलियां भी बहुत कम हुईं. राहुल के कुछ बयान चुनावी माहौल से मेल नहीं खाए.
एक उम्मीदवार ने कहा, 'राहुल गांधी को खगड़िया में मछुआरों के साथ पानी में कूदने की क्या जरूरत थी? वह LOP हैं. ऐसे स्टंट उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं.' उनके भाषण पुराने मुद्दों पर घूमते रहे- जैसे पलायन, भेदभाव- जबकि प्रशांत किशोर विकास की नई लाइन सेट कर चुके थे. युवा भी राहुल को बिहार का 'बाहरी' नेता मान रहे थे. प्रियंका गांधी वाड्रा भी असर नहीं छोड़ सकीं. यूपी और कर्नाटक में उनका प्रभाव दिखा था, लेकिन बिहार में वह कोई बड़ा माहौल नहीं बना पाईं.
टाइम वेस्ट साबित हुआ SIR का मुद्दा
राहुल गांधी ने वोट चोरी के मुद्दे पर बड़ी प्रेस कॉन्फ्रेंस की और फिर वोटर अधिकार यात्रा निकाली. लेकिन शुरुआती शोर के बाद SIR मुद्दा जनता में पकड़ नहीं बना पाया. राहुल गांधी वोट चोरी पर अड़े रहे, जो संभवतः एक राष्ट्रीय मुद्दा था, कांग्रेस यह समझने में विफल रही कि इसका असर बिहार की राजनीतिक दरारों तक नहीं पहुंचा.
RJD के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, 'चुनाव नजदीक थे, लेकिन राहुल ने यात्रा निकाल दी. इससे बड़ी संख्या में हमारे कार्यकर्ता गलत दिशा में व्यस्त हो गए. दरअसल, राहुल गांधी ने जोर देकर कहा था कि यात्रा का समापन गांधी मैदान में एक विशाल रैली के साथ होना चाहिए. हम सहमत नहीं थे, क्योंकि हमारे कार्यकर्ता पहले से ही यात्रा के दौरान हमारे साथ चलने में व्यस्त थे. कई लोगों ने तो कांग्रेस के झंडे भी उठा लिए थे, लेकिन हमें कांग्रेस से वैसा सहयोग नहीं मिला.' जब तक कांग्रेस SIR मुद्दे में उलझी रही, NDA ने सरकारी योजनाओं के सहारे महिलाओं और लाभार्थियों को सीधे टारगेट किया- जैसे लखपति दीदी योजना और कैश ट्रांसफर.
दिल्ली से पटना तक सीटों पर जंग
सीट शेयरिंग को लेकर विवाद इतना बढ़ा कि दिल्ली तक तलवारें खिंच गईं. पहले लालू-सोनिया संबंध ऐसे तनाव को शांत कर देते थे, लेकिन इस बार वरिष्ठ नेताओं ने दूरी बना ली. अनुभवी मध्यस्थों की कमी से हालात बिगड़ते गए. बिहार कांग्रेस अध्यक्ष राजेश राम ने दिल्ली में 10 जनपथ से बाहर आते हुए कहा, 'हमारे नेता राहुल गांधी बिहार यूनिट के प्रस्ताव से बहुत खुश हैं. उन्होंने हमें यह जिम्मेदारी दी है कि हम अपने सहयोगियों से बात करें कि कांग्रेस को कितनी सीटें मिलेंगी, और साथ ही उन्होंने हमें कड़ा मोलभाव करने के लिए भी कहा है.'
राहुल गांधी के करीबी और उनके भरोसेमंद सहयोगी कृष्णा अल्लावरू बैठकों में बिना किसी झिझक अपनी सख्त स्थिति पर कायम रहे और कुछ ‘जीतने योग्य’ सीटों पर जरा भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुए. हालात इतने बिगड़ गए कि RJD और कांग्रेस के बीच बातचीत ही ठप हो गई.
नतीजा यह हुआ कि लगभग दर्जनभर सीटों पर दोनों साथी एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में उतर आए. इससे न सिर्फ महागठबंधन का पूरा चुनाव अभियान कमजोर पड़ गया, बल्कि पार्टियों के बीच रिश्ते भी इतने खराब हो गए कि कार्यकर्ताओं के स्तर पर भी एकता पूरी तरह टूट गई.
मौसमी सिंह