संसद का शीतकालीन सत्र जारी है. लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों में 'वंदे मातरम्' की गूंज है. सोमवार को पीएम मोदी ने संसद में वंदे मातरम् को लेकर बड़ी और अहम चर्चा की शुरुआत की. उन्होंने भारत की राष्ट्रीय भावना को जाग्रत करने वाले इस गीत का महत्व बताया, साथ ही कहा कि तुष्टिकरण की नीति के तहत अगर किसी सबसे बड़ी साहित्यिक रचना के साथ अन्याय हुआ है तो वह 'वंदे मातरम्' यानी भारत का राष्ट्रीय गीत है.
बंकिम चंद्र की रचना और उसका भाव
असल में लेखक और विचारक बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 'वंदे मातरम्' गीत लिखा था, जिसमें वह भारत भूमि की तुलना माता के रूप में वह कर रहा है. यह माता कोई भी हो सकती है, लेकिन गीत के शुरुआती दो स्टेंजा में जिस तरह से माता का अर्थ लिया जाता है वह किसी भी व्यक्ति की उसकी अपनी माता है. धर्म और भाषा के भेद से परे ऐसी माता जिसने जन्म दिया है और जो लालन-पालन कर रही है.
शाक्त परंपरा का प्रभाव
इसके बाद बंकिंम चंद्र ने जो अन्य 4 स्टेंजा बाद में जोड़े और जिन्हें उपन्यास 'आनंद मठ' में जगह मिली, वह बंगाल की पौराणिक-शास्त्रीय शाक्त परंपरा से प्रेरित हैं. उन पंक्तियों में भारत माता को देवी दुर्गा के ही जैसा बताया गया है. उनमें उनकी दस महाविद्या के स्वरूप की कल्पना की गई है. उन्हें अन्न-भोजन देने वाली अन्नपूर्णा, जल से भरी-पूरी रहने वाली सदानीरा शताक्षी देवी और संकट के समय शत्रु दल का विनाश करने वाली महिष मर्दिनी के तौर पर देखा गया है. यानी पहले दो स्टेंजा में भारत माता का स्वरूप एक आम भारतीय माता है, और फिर कवि उसी माता के भीतर बसी हुई शक्तियों का आह्वान करते हुए उसका पराशक्ति देवी दुर्गा के रूप में दैवीय करण कर देता है. इस तरह वह भारत माता को ही विद्या की देवी सरस्वती, धर्म की देवी गायत्री, शरीर में बसने वाली चेतना, दस महाविद्या वाली दुर्गा, कमल पर बैठने वाली कमला लक्ष्मी, शक्ति से भरपूर सबल काया सभी कुछ बताते हैं.
भक्ति-भाव और सीमाओं की बहस
और फिर कहते हैं ऐसी भारत माता की मैं वंदना करता हूं. ऐसी कल्पना में ये देखना चाहिए कि कवि अपने हृदय के कितने शुद्ध भाव से अपनी मातृभूमि की वंदना कर रहा है, लेकिन यही शुद्ध भाव गीत को सिर्फ एक समुदाय और एक परंपरा तक सीमित भी कर देता है. असल में बंकिम बाबू बंगाली थे और बंगाल की शाक्त परंपरा जो देवी दुर्गा और काली की उपासना करती है, उनके तंत्र में रमती है, तो उनके लिए अपने मन के भावों को अपनी उसी समझ में जाहिर कर पाना आसान था. उसे वह उसी नजरिये से देखे.
मातृभूमि की वैदिक परंपरा
फिर जन्मभूमि को माता की नजर से देखने का जो संबल है वह हमारी वैदिक पंरपरा से मिलता है. अथर्ववेद में सू्क्ति है कि 'माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः'. इसी तरह महाभारत में यक्ष जब युधिष्ठिर से प्रश्न करता है कि धरती से भी महान कौन है तो युधिष्ठिर कहते हैं माता. वाल्मीकि रामायण में श्री राम भी लक्ष्मण से कहते हैं, 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'
भारत देश में माता की अवधारणा
तो भारत की प्राचीन परंपरा और सनातनी विचार इसी तरह के रहे हैं, जहां माता और मातृभूमि को हमेशा एक नजर से देखा गया है. आदिवासी परंपराओं में भी जल-जंगल और जमीन को माई के नजरिए से देखा जाता है, इसलिए जो अधिकतर कबीलाई टोटम चिह्न मिलते हैं वह अक्सर किसी अनगढ़ देवी के रूप में मिलते हैं. देवता से पहले किसी देवी की कल्पना कर लेने में भारतीय समाज हमेशा से सहज रहा है और यही वजह है कि जब राष्ट्र को समझने-समझाने की जरूरत आन पड़ती है तो उसे माता के रूप में देखा जाता है. यही भारत माता और भारत भूमि का दैवीयकरण है जो वंदे मातरम् गीत बड़ी ही सरलता से कर देता है.
पहले दो स्टेंजा : मातृभूमि का प्राकृतिक सौंदर्य
वंदे मातरम् के पहले दो स्टेंजा का अर्थ देखिए और माता के ममतामयी व्यवहार से इसकी तुलना कीजिए.
वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्।
सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्।
शस्य श्यामलाम् मातरम्।
वन्दे मातरम्।।
शुभ्रज्योत्स्नाम् पुलकित यामिनीम्।
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्॥
सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्।
सुखदाम् वरदाम् मातरम्।
वन्दे मातरम्।
हे मातृभूमि मैं, तुम्हारी वंदना करता हूं. पानी से सींची, फलों से भरी, दक्षिण की वायु (वह हवा जो मलय पर्वत के उस पार से आती है) के साथ शान्त, फसलों से लहलहाती हमारी मातृभूमि, आपकी वंदना करता हूं.
जिस भूमि पर आने वाली रातें चांदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं, जिसकी जमीन खिलते फूलों वाले पौधों और मौसमी फलों वाले वृक्षों से ढकी हुई बड़ी ही सुंदर और मनभावन लगती है. जिसके निवासियों के मुखड़ों पर हंसी की मिठास और वह मधुर वाणी के साथ बोलते है. अपने पुत्रों को ऐसा सुंदर वरदान देने वाली ओ माता, प्यारी मातृभूमि मैं तुम्हारी वंदना करता हूं.
माता! वरदान देने वाली, आनन्द देने वाली. हमारी यह मातृभूमि हम सभी को सुख समृद्धि (आनन्द) का वरदान देने वाली है. मैं इस मातृभूमि की वन्दना करता हूं.
अब इन दो स्टेंजा में बहुत ही सुंदर तरीके से सिर्फ प्राकृतिक वर्णन किया गया है. यह ठीक वैसा ही है, जैसा 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा. यहां भी गीत में देश को एक बगीचे के रूप में देखा गया है.
शक्ति और देवी-स्वरूप
अब वंदे मातरम् के आगे के पैराग्राफ देखते हैं.
सप्तकोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
द्विसप्तकोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम् ॥2॥
हे मातृभूमि! तेरे सात करोड़ पुत्रों की कल-कल ध्वनियों से तू प्रचंड और गूंजती हुई लगती है और इससे दोगुने वीर भुजाओं में धारण किए हुए तेज़ अस्त्र-शस्त्र तुझे और भी भयानक, शक्तिशाली और विजयी रूप प्रदान करते हैं. ऐसी स्थिति में, हे मां! कौन यह कहने का साहस कर सकता है कि तू अबला या कमजोर है?
तू तो असंख्य शक्तियों की धारिणी है, उद्धार करने वाली तुम्हें नमस्कार, क्योंकि तुम तो शत्रुओं की असंख्य सैनिकों वाली सेना का पल में विनाश कर डालने वाली हो. हे मां! मैं तुझे नमन करता हूं.
यहां कवि ने भारत माता की तुलना देवी दुर्गा के उस रूप से की है, जहां कहा जाता है, 'दानव दल पर टूट पड़ो मां करके सिंह सवारी.'
तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे ॥3॥
हे मातृभूमि! तुम ही हमारी विद्या हो, तुम ही हमारा धर्म हो.
तुम ही हमारे हृदय में निवास करती हो, और तुम ही हमारे जीवन का मूल तत्व और चेतना हो जिससे शरीर का प्राण उसकी आत्मा कहते हैं.
हे मां! तुम ही हमारे शरीर की जीवन-शक्ति हो. जो साहस और सामर्थ्य हमारी बाहों में है वह भी तुम्हीं से प्राप्त है. हमारे हृदय में जितनी भक्ति और आस्था है वह भी तुम्हारे ही प्रति है.
इसलिए हम तुम्हारी ही प्रतिमाएं हर मंदिर में स्थापित करते हैं, क्योंकि तुम केवल भूमि नहीं, तुम हमारी आराध्य देवी हो, हमारा ज्ञान, हमारा धर्म, हमारी शक्ति और हमारी भक्ति का स्वरूप हो.
यहीं से वंदे मातरम् में यह समझ लिया जाता है कि यह गीत सिर्फ मूर्ति पूजा की बात करता है, इसमें बुत परस्ती है.
त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम् ॥4॥
हे मां! तुम ही दुर्गा हो और दस महाविद्याओं की तरह दस-दस हाथों में अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाली,
सुरक्षा और शक्ति का अद्वितीय रूप हो.
तुम ही कमला (लक्ष्मी) हो, कमल के कोमल दलों पर विहार करने वाली, समृद्धि और सौभाग्य देने वाली हो.
तुम ही वाणी हो, ज्ञान और बुद्धि की अधिष्ठात्री, विद्या प्रदान करने वाली देवी यानी सरस्वती.
हे मां!
मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं, तुम्हें, जो कमला के समान उज्ज्वल हो,
मलिनता से रहित, पवित्र, अद्वितीय हो, सुजल (जल-सम्पन्न), गंगा-यमुना से सदानीरा और
सुफल (फल-सम्पन्न) यानी अन्नुपूर्णा (शाकुंभरी-शताक्षी जो दुर्गा के ही रूप हैं)
समृद्ध और कल्याणकारी मातृभूमि हो. मैं तुम्हारी वंदना करता हूं.
वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम् ॥5॥
वन्दे मातरम्, हे मातृभूमि, मैं तुम्हें नमन करता हूं.
तुम श्यामल हो, हरियाली से ढकी, सौम्य, जीवन से भरी हुई.
तुम सरल हो, अपनी प्रकृति और स्वभाव में उदार, निर्मल और सुलभ.
तुम सुस्मित हो. अपनी सुंदरता में मुस्कान बिखेरती हुई, फूलों, खेतों और प्रकृति की सौम्य दीप्ति से शोभित.
तुम भूषित हो, धान्य, पुष्प, वृक्ष और वन-संपदा से सजी हुई.
तुम धरणी हो, जीवन को धारण करने वाली, सबकी पोषक धरती.
और तुम भरणी हो, अपने बच्चों का पालन-पोषण करने वाली,
उनकी आवश्यकता पूरी करने वाली.
हे मां! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं.
विकास पोरवाल