दक्षिण एशिया में इस समय बड़ा भू-राजनीतिक बदलाव हो रहा है, और इसके केंद्र में है पाकिस्तान. पाकिस्तान ने एक नया प्रस्ताव पेश किया है, जो क्षेत्रीय गठबंधनों को बदल सकता है, भारत की लंबे समय से बनी क्षेत्रीय बढ़त को चुनौती दे सकता है और दक्षिण एशियाई सहयोग का नक्शा दोबारा खींच सकता है.
लेकिन बड़ा सवाल यह है: क्या कोई देश ऐसा समूह जॉइन करने का जोखिम लेगा, जिसमें भारत शामिल न हो और जो अप्रत्यक्ष रूप से भारत का विरोध करता हो?
पाकिस्तान के उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री इशाक डार ने पिछले हफ्ते संकेत दिया कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन की बढ़ती त्रिपक्षीय पहल में दक्षिण एशिया के अन्य देशों को भी शामिल किया जा सकता है.
उन्होंने इसे 'वैरिएबल जियोमेट्री' प्रकार का सहयोग बताया, यानी तकनीक, कनेक्टिविटी और आर्थिक विकास पर लचीली साझेदारी. मूल रूप से नया समूह का आइडिया एक नए SAARC (South Asian Association for Regional Cooperation) जैसा है, लेकिन ऐसा SAARC जिसमें भारत नहीं होगा.
पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने कहा कि पाकिस्तान का मकसद सहयोग करना है, टकराव बढ़ाना नहीं. लेकिन इस कूटनीतिक भाषा के पीछे एक कड़वी राजनीतिक सच्चाई भी छिपी है: 8 देशों (भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल, भूटान और श्रीलंका का समूह) का क्षेत्रीय संगठन लगभग दस साल से ठप पड़ा है. भारत-पाकिस्तान तनाव ने लगातार इसके शिखर सम्मेलनों को रोका, समझौते अटकाए और समूह की प्रगति रोक दी.
भारत और पाकिस्तान के बीच इसी साल मई में चार दिनों का युद्ध हुआ जिसके बाद से दोनों देशों के रिश्ते ऐतिहासिक रूप से सबसे निचले स्तर पर हैं. अब SAARC सिर्फ नाम का संगठन बनकर रह गया है.
पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के हटने के बाद बांग्लादेश के भारत संग बिगड़ते रिश्तों ने स्थिति को और जटिल बना दिया है. जैसे-जैसे बांग्लादेश भारत से दूरी बना रहा है, चीन चुपचाप बांग्लादेश के राजनीतिक और आर्थिक ढांचे में अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. विश्लेषकों का कहना है कि पाकिस्तान-चीन-बांग्लादेश के बीच हाल ही में हुई गोपनीय त्रिपक्षीय बातचीत का समय बहुत सोच-समझकर चुना गया लगता है.
SAARC के कमजोर होने से एक खाली स्थान बना है, जिसे पाकिस्तान भरना चाहता है. दो अरब से अधिक आबादी वाले इस क्षेत्र में आपसी व्यापार बेहद कम, कुल व्यापार का सिर्फ 5% रह गया है. विशेषज्ञों का कहना है कि भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी से क्षेत्र अरबों डॉलर के आर्थिक अवसरों से वंचित रह गया है और इसकी वजह से बड़े कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स भी रुके हुए हैं.
श्रीलंका, नेपाल, भूटान, और मालदीव जैसे छोटे देश लंबे समय से जलवायु परिवर्तन और इंफ्रास्ट्रक्चर को लेकर क्षेत्रीय सहयोग की मांग करते रहे हैं, और वो इस दिशा में हो रही बातचीत में रुचि दिखा सकते हैं.
लेकिन सबसे बड़ी बाधा है भारत. कोई भी ऐसा गठबंधन जो चीन-समर्थित या पाकिस्तान-नेतृत्व वाला दिखे, उन देशों के लिए जोखिमभरा है जो व्यापार, सुरक्षा या रोजगार के लिए भारत पर निर्भर हैं. बहुत कम सरकारें भारत के साथ महत्वपूर्ण रिश्तों को खतरे में डालना चाहेंगी.
इसके बावजूद पाकिस्तान को लगता है कि मौजूदा भू-राजनीतिक माहौल उसके पक्ष में है. चीन के साथ मजबूत संबंध, अमेरिका के साथ नई कूटनीति, और खाड़ी देशों में नई साझेदारियों ने पाकिस्तान को सालों की उपेक्षा के बाद फिर से क्षेत्रीय प्रभावी भूमिका में लौटने की उम्मीद दी है.
यह प्रस्ताव दक्षिण एशिया के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित होगा या अविश्वास, तनाव की दशकों पुरानी राजनीति में खो जाने वाला बड़ा विचार, यह कहना अभी मुश्किल है. फिलहाल क्षेत्र की नजरें इस पर टिकी हैं, क्योंकि अगला कदम क्षेत्र के गठबंधनों को पूरी तरह बदल सकता है.