
तालिबान फिर समूचे अफगानिस्तान पर राज करने जा रहा है. महज 103 दिनों में अपनी रणनीति, अफगान सेना की कमजोरी और हथियारों के दम पर वो ऐसा करने में कामयाब हुआ है. इस बार वो अपने क्रूर और कट्टरपंथी चेहरे को सामने नहीं कर रहा है, लेकिन उसने अपने अस्तित्व के 3 दशकों में जो बर्बरता की हदें पार की हैं उसे भूल पाना मुश्किल है. इतनी क्रूरता और दहशतगर्दी के बाद भी तालिबान अफगानिस्तान में क्यों मजबूती से पांव जमाए हुए है, इसे समझने के लिए इतिहास खंगाला जरूरी है.
रूसी फौज की खिलाफत करके उभरा तालिबान
पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है. 90 के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफगानिस्तान से अपनी सेना को वापस बुला रहा था, उसी दौर में तालिबान का उदय हुआ. अफगानिस्तान में रूसी फौज के खिलाफ 1990 के शुरुआती वर्षों में मदरसों में छात्र तालिबान के तौर पर संगठित हुए. इन्हें शुरुआत में अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA और पाकिस्तानी एजेंसियों का समर्थन मिला. तालिबान जब मदरसों में संगठित हो रहा था तब सऊदी अरब ने सुन्नी इस्लाम के प्रचार के मद्देनजर उसके लिए फंडिंग की.
बुरहानुद्दीन रब्बानी के शासन का किया खात्मा
1990 के दशक की शुरुआत में जहां अमेरिका, पाकिस्तान और सऊदी अरब के खुले या ढके-छिपे समर्थन से तालिबान की शक्ति बढ़ी तो वहीं भ्रष्टाचार से मुक्ति और शांति-सुरक्षा के भरोसे के साथ तालिबान लोकप्रिय होने लगा. 1995 में तालिबान ने ईरान से सटे अफगानिस्तान के हेरात प्रांत पर कब्जा कर लिया. 1996 में तालिबान का नियंत्रण काबुल पर हो गया और तालिबानी राष्ट्रपति रहे बुरहानुद्दीन रब्बानी के शासन का खात्मा करने में कामयाब रहे. 1998 तक तालिबान 90 फीसदी अफगानी इलाकों पर काबिज हो गया.
शरिया कानून लागू करने के बाद की क्रूरता
तालिबान ने अपने शासन की शुरुआत में अफगान को सुरक्षा तो दी लेकिन शरिया कानून लागू करने की आड़ में उसकी क्रूरता ने दुनिया को दहला दिया. तालिबानी शासन में अफगानी महिलाओं की आजादी पर सबसे गहरी चोट पहुंची, जबकि ये वो अफगानिस्तान था जहां 1970 के दशक तक महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की छूट थीं. तालिबानी शासन में हत्या और बलात्कार के दोषियों को सरेआम फांसी और चोरी जैसे अपराधों पर पत्थर से मारने जैसी सजाएं सुनाई गईं. टीवी, संगीत और सिनेमा हराम हो गया. 10 साल से बड़ी लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लग गई थी.
2001 में अमेरिकी और नाटो फौजों की एंट्री
2001 में अमेरिकी और नाटो फौजों के दम पर अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकारों के गठन का रास्ता साफ हुआ. लेकिन तालिबान, अफगानिस्तान के लिए खतरा बना हुआ था. अफगानिस्तान ही नहीं, अफगानिस्तान से सटे पाकिस्तानी क्षेत्रों में तालिबान का दबदबा कायम रहा. 2012 में पाकिस्तान के मिंगोरा में स्कूली लड़की मलाला यूसुफजई को तालिबान ने निशाना बनाया, क्योंकि मलाला तालिबान के खिलाफ लिख रही थीं.
फिर बदल गया चाल, चेहरा और चरित्र
इसके बाद के कुछ वर्षों में तालिबान कमजोर हुआ. खासकर तब जब अमेरिकी ड्रोन हमले में तालिबान चीफ मुल्ला उमर मारा गया. फिर उसके अगले चीफ मुल्ला मंसूर की भी जान अमेरिकी ड्रोन हमले में चली गई, लेकिन 2016 में मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा के हाथों में तालिबान की कमान आने के बाद चाल, चेहरा और चरित्र बदल गया. तालिबान अभी भी दुनिया के देशों के सामने खुद को वैध संगठन की तरह पेश करने की कोशिश कर रहा है. लेकिन तालिबान क्या है, ये किसी से छिपा नहीं.

अमेरिका की सिर्फ और सिर्फ हार झलकती है
अमेरिका ने 20 वर्षों तक अफगानिस्तान में जो कमाया वो तालिबान ने चंद दिनों में उससे छीन लिया. अमेरिका कहता है कि अफगानिस्तान में उसकी जीत हुई है, लेकिन जिस तरह से तालिबान ने एक बार फिर से अफगानिस्तान को जीत लिया है. इसमें अमेरिका की सिर्फ और सिर्फ हार ही झलकती है.
अफगानिस्तान में अमेरिका ने पिछले 20 सालों में 1 लाख करोड़ डॉलर यानी करीब 75 लाख करोड़ रुपये खर्च किए हैं. जिसमें से 66 लाख करोड़ रुपये अफगान सेना को ट्रेनिंग देने और हथियार मुहैया कराने में खर्च किए गए, लेकिन ये सब बर्बाद हो गया क्योंकि अफगान आर्मी तालिबान से लड़ने के बजाए सीधे-सीधे सरेंडर ही कर दिया.

ये हैं तालिबान को फिर से खड़ा करने वाले चेहरे
- तालिबान का चीफ इस समय मौलवी हिब्तुल्लाह अखुंजादा है. उसके पास 2016 से तालिबान की कमान है.
- मुल्ला अब्दुल गनी बरादर तालिबान के संस्थापकों में है. उसी ने 2013 में दोहा में तालिबान का दफ्तर खोला. वही तालिबान का राजनीतिक चेहरा होने का ढोंग कर रहा है.
- मुल्ला मुहम्मद याकूब तालिबान का डिप्टी चीफ है और तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का बेटा है. तालिबान में उसकी स्थिति मिलिट्री ऑपरेशनल कमांडर की है.
- हक्कानी नेटवर्क का चफी सिराजुद्दीन हक्कानी भी तालिबा के पावर स्ट्रक्चर में डिप्टी की भूमिका में है.
- मुल्ला अब्दुल हकीम तालिबान का चीफ जस्टिस है.
रहबरी शूरा तालिबान की निर्णय लेने की सर्वोच्च संस्था है. इसमें 26 सदस्य होते हैं. तालिबान व्यवस्था में अलग-अलग मामलों में कई विभाग कायम हैं. सैन्य, खुफिया, राजनीतिक, आर्थिक और अन्य 13 विभागों के जरिये तालिबान शासन चलाता है.

दुनिया भरे के मुल्कों में तनाव
पड़ोसी देश ईरान अफगानिस्तान के मौजूदा हालात को लेकर चिंतित है. अफगानिस्तान से भागे अफगान सैनिक ईरानी इलाकों में शरण ले रहे हैं. शिया बहुल ईरान सुन्नी तालिबान को लेकर हमेशा से चिंचित रहा है. वहीं, अफगानिस्तान में गहराते संकट के मद्देनजर ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान ने आपसी सहयोग बढ़ाया है.
इधर, दोहरे चरित्र वाले पाकिस्तान ने भी काबुल के हालात पर चिंता जाहिर की है. इसके अलावा कनाडा ने राजनायिक दोस्ती अफगानिस्तान से तोड़ ली है, जबकि ब्रिटेन ने कहा है कि तालिबान ोको अफगान सरकार की मान्यता नहीं देनी चाहिए.