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लखनऊ: नवाबों के शहर की नई पहचान

दलित महापुरुषों के नए स्मारकों और शहर के सौंदर्यीकरण से शाम-ए-अवध और नवाबों के शहर को मिल रही है नई पहचान.

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शहर-ए-लखनऊ पर कैसी तरुणाई है/ स्वाभिमान की भव्य मूर्ति मुस्काई है / बाग-बगीचे, फव्वारों, चौराहों से, शाम-ए-अवध की रौन.क वापस आई है / दिल्ली और मुंबई फीके लगते हैं / जगमग करती शाम अवध पर छाई है.

अगर कवि अपनी रचना में समाज की तस्वीर खींचते हैं तो वाहिद अली 'वाहिद' की यह पंक्तियां लखनऊ की सटीक तस्वीर पेश करती हैं. शहर में दलित स्मारकों पर करोड़ रु. खर्च होने के मुद्दे पर लाख उंगलियां उठ रही हों पर उनके वजूद ने नवाबों के शहर को एक नई पहचान दी है और वे सामाजिक समरसता केंद्र के रूप में उभर रहे हैं. यही नहीं, इन स्मारकों ने गुम होती लखनऊ की शाम को एक नई पहचान भी दी है.
2 नवंबर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे का अंक 

गोमती नदी के किनारे का नजारा अब बदल चुका है. शाम होते ही पूरा इलाका रोशन हो जाता है और बच्चे, बूढ़े और जवान सभी यहां पहुंचने लगते हैं. यहां 1,370 करोड़ रु. की लागत से बना डॉ. भीमराव आंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल प्रदेश की राजनैतिक-सामाजिक व्यवस्था में बदलाव का प्रतीक है. 107 एकड़ में फैला यह स्थल 1 अक्तूबर से आम जनता के लिए खोल दिया गया है.
21 सितंबर 2011: तस्‍वीरों में देखें इंडिया टुडे का अंक 

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इसमें कई स्मारक हैं. कमल सरीखी आकृति पेश करता हुआ डॉ. भीमराव आंबेडकर स्मारक  जिसका निर्माण 6.5 एकड़ क्षेत्र में एक ऊंचे प्लिंथ पर किया गया है जिसमें चार भव्य चैत्य द्वार हैं. इसकी दीवारें गुलाबी रंग की मकराना संगमरमर से बनी हैं. भवन के मुख्य गुंबद के नीचे स्मारक का भव्य हॉल है जिसमें आंबेडकर के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हुए कांस्य के आकर्षक भित्तिचित्र बनाए गए हैं. यहां से सटे मुख्य कक्ष में आंबेडकर की बैठी हुई मुद्रा में भव्य कांस्य प्रतिमा स्थापित है जो ठीक वैसी ही है जैसा कि वाशिंगटन के लिंकन मेमोरियल में लगी अब्राहम लिंकन की मूर्ति.

इस स्मारक के सामने 2.5 एकड़ में फैले संग्रहालय में गुंबदाकार दो विशाल भवन हैं. इनमें से एक के भीतर ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, डॉ. भीमराव आंबेडकर, कांशीराम और दूसरे भवन में गौतमबुद्घ, कबीरदास, रविदास, घासीदास, बिरसा मुंडा की 18 फुट ऊंची मूर्तियां स्थापित की गई हैं. यहां पर हाथी दीर्घा भी है जहां सूंड़ उठाए हुए हाथियों की 62 प्रतिमाएं लगी हैं.

इन्हें देखकर अनायास ही बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी की याद आ जाती है. लेकिन यहां घूमने आने वाले लोगों में सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र दोनों भवनों के भीतर, बीच में कांसे के गुंबद के नीचे बनी मुख्यमंत्री मायावती की चहुंमुखी मूर्ति है. लखनऊ आर्ट्स कॉलेज की छात्रा हिना कहती हैं, ''मैंने पहली बार किसी जीवित व्यक्ति की इतनी भव्य मूर्ति देखी है. मूर्ति बनाने वाले कारीगर के 'नर की दाद देनी पड़ेगी.''

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वहां 80 फुट ऊंचे पिरामिड की चोटी से झ्रना बहता रहता है. स्मारक के अंदर ही गौतम बुद्घ की चहुंमुखी प्रतिमा युक्त गौतम बुद्ध स्थल और इसके पास में 71 फुट ऊंचा स्मृति स्तंभ सामाजिक परिवर्तन स्तंभ है जो ऐतिहासिक अशोक स्तंभ से भी करीब डेढ़ गुना ज्यादा ऊंचा है. इस सामाजिक परिवर्तन स्थल में शहर और देश-प्रदेश के दूसरे इलाकों से रोज औसतन 1,500  से 2,000 लोग आते हैं.

सड़कों-चौराहों पर जगमगाती लाइट किसी उत्सव का माहौल बनाती हैं और पर्यटकों का नए बदलते लखनऊ से परिचय कराती हैं. सबसे ज्यादा बदलाव राजधानी के दक्षिणी इलाके यानी कानपुर रोड पर दिखाई देता है. यहां पर आगंतुकों का ध्यान खींचने के लिए भीमराव आंबेडकर चौराहा है. यहीं से वीआइपी रोड शुरू होती है और भव्य स्वागत द्वार से प्रवेश करते ही दाईं ओर बौद्घ विहार शांति उपवन है.

एक अक्तूबर को जनता के लिए खोले गए इस उपवन का मुख्य आकर्षण गौतम बुद्घ की 18 फुट ऊंची सफेद संगमरमर की चहुंमुखी प्रतिमा है. इसके अलावा कांशीराम और मायावती की भी 16 फुट ऊंची सफेद संगमरमर से बनी प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं. शांति उपवन के लाइब्रेरी व स्वाध्याय भवन में संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र से जुड़ी पुस्तकों का विशाल भंडार है.

लाइब्रेरी में 150 लोग एक साथ बैठकर पुस्तकें पढ़ सकते हैं. वहीं बगल में बने स्वाध्याय भवन में यह क्षमता 200 की है. यहां के सहायक लाइब्रेरियन आलोक दीक्षित कहते हैं, ''शोध छात्रों के लिए पूरे लखनऊ में इससे अच्छी लाइब्रेरी नहीं है. पाली भाषा में बौद्घ और जैन धर्म से जुड़ा करीब हर साहित्य यहां मौजूद है.'' यहां टिकट की बिक्री से पता चलता है कि औसतन 200 से 300 लोग रोज इस उपवन को देखने पहुंच रहे हैं. छुट्टी के दिनों में यह संख्या और बढ़ जाती है. 

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इस पूरे इलाके में सबसे भव्य स्मारक 'कांशीरामजी स्मारक स्थल' है. 86 एकड़ में फैला यह स्मारक स्थल 507 करोड़ रु. में बनकर तैयार हुआ है. स्मारक का मुख्य भवन के  शिखर की ऊंचाई 177 फुट और व्यास 125 फुट है. अधिकारियों का दावा है कि इस भवन के गुंबद विश्व के विशाल गुंबदों में से एक हैं. इसकी परिकल्पना दूसरी सदी के बौद्घ वास्तु पर आधारित है. भवन की संगमरमर युक्त दीवारों के मुख्य कक्ष के अंदर कांशीराम और मायावती की 18 फुट ऊंची कांस्य की मूर्तियां हैं.

दीवारों पर कांशीराम के जीवन के मुख्य क्षणों को दर्शाती हुई छह विशालकाय कांस्य झंकियां हैं. इसी स्मारक के बगल में 112 एकड़ में कांशीराम जी ग्रीन (इको) गार्डन है. 1,075 करोड़ रु. की लागत से बने इको पार्क को भी 1 अक्तूबर से आम लोगों के लिए खोल दिया गया.

इको गार्डन का मुख्य आकर्षण इसका मनोरम व हरित विस्तृत क्षेत्र है. इसमें 52 फुट ऊंचे कांसे के दो फव्वारे लगाए गए हैं जिनके बारे में सरकार का दावा है कि ये विश्व के सबसे ऊंचे फव्वारे हैं. दलित स्मारक घूमने आने वालों की सबसे ज्यादा भीड़ इसी पार्क में देखी जा सकती है. रोज औसतन 300 के करीब लोग यहां पहुंचते हैं. यहां पर विशाल जलाशय है और पशु पक्षियों की 500 से अधिक प्रजातियों की कांस्य प्रतिमाएं लगाई गईं हैं. पार्क के पास स्थित रजनीखंड निवासी प्रेमचंद्र बताते हैं, ''पार्क में काफी हरियाली है. बीच शहर में ऐसा पार्क  बनने से पर्यावरण काफी संतुलित हुआ है.''

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दलित महापुरुषों के स्मारकों में कुछ कमियां भी हैं. मसलन, विशाल इको पार्क में पेड़ अभी छोटे हैं और छांव के लिए कोई शेड नहीं है. दोपहर की धूप में पत्थर गरम हो जाते हैं. ऐसे में इन पार्कों में सिर्फ शाम को ही जाया जा सकता है. साथ ही बड़े परिसर में बैठने के लिए कुर्सी नहीं है. इसके बारे में अधिकारियों के अपने तर्क हैं. चूंकि ये परियोजनाएं मुख्यमंत्री से जुड़ी हैं ऐसे में कोई आधिकारिक रूप से टिप्पणी करना नहीं चाहता.

राजकीय निर्माण निगम के  एक अधिकारी नाम जाहिर न करने के आग्रह के साथ बताते हैं, ''यह कोई पिकनिक स्थल नहीं है. यहां आइए, घूमिए और चले जाइए. इसीलिए किसी भी स्मारक में खाने-पीने की वस्तु ले जाना वर्जित है.'' यही नहीं, आंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल, कांशीरामजी स्मारक और बौद्व विहार शांति उपवन का फर्श चमकीले पत्थर का है जिस पर फिसलने का डर रहता है. यही नहीं, बड़े हिस्से में पत्थर लगे होने के कारण भू-गर्भ जल संरक्षण मुश्किल हो गया है.

लेकिन दलित सत्ता के प्रतीक के रूप में विकसित इन स्मारकों को चमकाते रहने के लिए सरकार ने 5,540 कर्मचारियों को तैनात किया है. स्मारकों के भीतर पान मसाला ले जाने पर प्रतिबंध है. यही नहीं स्मारकों की सुरक्षा के लिए उत्तर प्रदेश विशेष परिक्षेत्र सुरक्षा वाहिनी का गठन किया गया है. नीली वर्दी में अलग-अलग श्रेणी के करीब 6,000 सुरक्षाकर्मी इन स्मारकों की हिफाजत करते हैं.

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सरकार ने इन स्मारकों को देश-दुनिया में प्रचारित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. पर्यटन विभाग की वेबसाइट पर इनका ब्यौरा मौजूद है और इसका असर हो रहा है. पर्यटन विभाग में पंजीकृत गाइड नवेद बताते हैं, ''देश या विदेश से आने वाले टूरिस्ट इमामबाड़ा, रूमी दरवाजे के साथ-साथ दलित स्मारक भी घूमने की इच्छा जताते हैं.'' थाईलैंड की राजकुमारी माहाचाक्री सिरिंगधोम ने पिछले हफ्ते इन स्मारक स्थलों का दौरा किया.

लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और समाजशास्त्री प्रो. रूपरेखा वर्मा कहती हैं कि मायावती सर्वहित का मुद्दा उठाकर सत्ता में आई थीं लेकिन वे अपने दलित मुद्दे से जरा भी नहीं भटकीं. दलित महापुरुषों की मूर्तियां स्थापित करवाकर मायावती ने उपेक्षित पड़े एक बड़े वर्ग को नई पहचान दी.

सबसे बढ़कर, इन्होंने नवाबों के शहर लखनऊ शहर को एक नई पहचान दी है. रूपरेखा कहती हैं, ''इनका एक दूसरा पहलू भी है. दलित स्वाभिमान के नाम पर किए गए कार्य एक सीमा तक दलितों के भीतर उम्मीद जगाते हैं. इस सीमा के बाद यदि उनकी आम जीवन की समस्याएं दूर नहीं होती हैं तो इसका उलटा असर भी हो सकता है.''

असल में इन स्मारकों के निर्माण के दौरान मूर्तियां लगवाने पर सरकार ने जिस तरह पैसा बहाया उस पर विपक्षी पार्टियों ने हंगामा खड़ा कर दिया. हर नए पार्क के लोकार्पण के बाद उन पर होने वाले खर्चे को लेकर विपक्षी पार्टियों ने सरकार पर निशाना साधा. लेकिन दलित चिंतक और दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉ. विवेक कुमार इससे इत्तफाक नहीं रखते.

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वे कहते हैं कि जब हर चार वर्ष में होने वाले कुंभ मेले के आयोजन पर 2,000 रु. के करीब खर्च हो जाते हैं तो दलित स्वाभिमान के प्रतीक इन स्मारकों के निर्माण में एक बारगी कुछ राशि खर्च होने पर हायतौबा क्यों मचाई जा रही है. वे कहते हैं, ''औपनिवेशिक काल के स्मारकों को हम संरक्षित करके रख रहे हैं लेकिन अपने ही समाज के दलित महापुरुषों के स्मारकों के निर्माण पर आलोचना की जा रही है. समाज को इस दोहरी मानसिकता से ऊपर उठना होगा.''

मायावती ने स्मारक बनवाकर बेशक दलित महापुरुषों को समाज में एक पहचान दिलाई है. लेकिन महापुरुषों के साथ उन्होंने अपनी भी मूर्तियां लगवाकर ऐसा सियासी दांव चला है जो उलटा भी पड़ सकता है. इतिहास शख्सियतों का मूल्यांकन अपने मापदंडों पर करता है जिसमें मूर्तियां नहीं गिनी जातीं.


ये भी हैं आकर्षण के केंद्र
भीमराव आंबेडकर गोमती बुद्घ विहार
विशेषताः गोमती नदी के किनारे 7.5 एकड़ का रिवर फ्रंट. इस विहार में गौतम बुद्घ की 18 फुट ऊंची चहुंमुखी संगमरमर की प्रतिमा लगाई गई है. डॉ. भीमराव आंबेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल के सामने 12 छतरी निर्मित कर ज्योतिबा फुले, छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, डॉ. आंबेडकर, रमाबाई आंबेडकर, कांशीराम, मायावती, गौतम बुद्घ, घासीदास, कबीरदास, संत रविदास और बिरसा मुंडा की 7 फुट ऊंची प्रतिमाएं हैं.
समतामूलक चौक
विशेषताः गोमती नदी पर नवनिर्मित 8 लेन पुल, गोमती बैराज और सेतु पर यातायात नियंत्रण के लिए समतामूलक चौक का निर्माण किया गया है. यहां पर शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले एवं नारायण गुरु की प्रतिमाएं स्थापित हैं. विशाल फौवारों से युक्त चौक का क्षेत्रफल 27,900 वर्ग मीटर है.

सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल
विशेषताः गोमती बांध को 'कर्टेन वॉल' बनाकर 'सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल' विकसित किया गया है. इसके एक ओर कांशीराम और मायावती की 14 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमाएं है तो दूसरी ओर भीमराव आंबेडकर और उनकी पत्नी रमाबाई आंबेडकर की मूर्तियां लगाई गई हैं. इन सभी प्रतिमाओं को सैंड स्टोन से तीन ओर से घेरकर ऊपर नक्काशीदार छतरी लगाई गई है. अब इन पत्थरों पर तांबे की परत चढ़ाई जा रही है.

आंबेडकर गोमती विहार और पार्क
विशेषताः गोमती नदी के आसपास के इलाके के सौंदर्यीकरण के लिए बांध के  एक ओर करीब 90 एकड़ को चार भागों में बांटकर आंबेडकर गोमती विहार बनाया गया है. यहां लगी लाइट शाम के वक्त गोमती नदी का खूबसूरत नजारा पेश करती हैं. साथ ही 22 एकड़ में आंबेडकर गोमती पार्क बनाया गया है जहां म्युजिकल फाउंटेन लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचता है. 

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