उत्तर प्रदेश में डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाता प्रमुख दलों की रणनीति के केंद्र में हो सकते हैं. इसकी बड़ी वजह है राज्य की लगभग 200 से 225 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका का अहम होना.
अयोध्या के फैसले के बाद से ही प्रमुख दलों ने इस वोट बैंक पर नजरें गड़ा दी हैं. यह तब है जबकि बिहार का ताजा अनुभव कुछ और ही कहता है. दरअसल उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 18-20 प्रतिशत है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगभग 70 से 72 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं की संख्या डेढ़ लाख से दो लाख तक है.
कांग्रेस में पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह ने कथित हिंदू आतंकवाद के बहाने मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने की शुरुआत तो कर दी है लेकिन इस मुद्दे को उनके जरिए आगे बढ़ाए जाने से पार्टी के बड़े मुस्लिम नेता खुश नहीं हैं, हालांकि वे इसका खुलकर इजहार नहीं करते.
कांग्रेस के सूत्र बताते हैं कि हाल के कांग्रेस महाधिवेशन में मुस्लिम नेताओं की उपेक्षा के बाद कई नेताओं ने शिकायत करनी शुरू कर दी थी कि पार्टी इतने मुस्लिम नेताओं के बाद भी दिग्विजय सिंह को मुसलमानों का पैरोकार बनाकर क्यों पेश कर रही है. कई नेताओं ने अपनी नाखुशी आलाकमान तक भी पहुंचाई पर उनके हाथ निराशा ही लगी. उधर दिग्विजय सिंह राहुल गांधी के वरदहस्त के चलते इस मुद्दे पर खासे मुखर हैं.{mospagebreak}
उत्तर प्रदेश से सांसद और अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद दार्शनिक भाव से कहते हैं, ''कुछ लोगों का प्रभाव ज्यादा होता है, कुछ का कम. टीम में कुछ खिलाड़ी मजबूत होते हैं, कुछ कमजोर. किस काम के लिए किसे चुनना है यह निर्णय कप्तान का होता है.'' दूसरी तरफ कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य राशिद अल्वी यह कहते हुए कि ''कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष पार्टी है और हमें आतंकवाद को जातियों में नहीं बांटना चाहिए'' दबे शब्दों में दिग्विजय सिंह की लाइन की मुखालफत करते दिखते हैं. वे कहते हैं कि सभी को मौका मिलना चाहिए.
दिग्विजय सिंह की रणनीति उनकी डेढ़ साल पहले हुई आजमगढ़ की यात्रा के बाद बनी थी. आजमगढ़ के शिबली कॉलेज के एक कार्यक्रम के दौरान दिग्विजय सिंह से कर्नल पुरोहित, मालेगांव और बटला हाउस जैसे सवाल पूछे गए थे जिनका जवाब देना उस वक्त तो दिग्विजय पर भारी पड़ा था, मगर आज उन सभी लोगों को जवाब मिल चुका है. हाल में मुंबई में एक शादी में शरीक होने गए दिग्विजय से मुस्लिमों ने हिंदू आतंकवाद से जुड़े मुद्दे पर ही सवाल पूछे.{mospagebreak}
दिग्गी राजा की इस कसरत का फल तो डेढ़ साल बाद मिलेगा लेकिन दूसरी पार्टियां भी पीछे नहीं हैं. बसपा इस बार मुस्लिम और पिछड़ों को साथ में लेकर चलने की कोशिश कर रही है. विधान परिषद चुनाव में हुआ टिकट वितरण इसकी मिसाल है.
मायावती ने नाराज मुस्लिम नेताओं को मनाने की कवायद शुरू कर दी है. इसी क्रम में उन्होंने मलिक मसूद और यूसुफ मलिक को पार्टी में फिर से शामिल किया है. साथ ही अनवर जलालपुरी को मदरसा बोर्ड का चेयरमैन बना दिया गया है जिसका दर्जा राज्यमंत्री के बराबर है. इसके अलावा बहनजी ने अगले चुनाव के लिए लगभग 127 प्रत्याशियों की घोषणा भी कर दी है जिसमें मुस्लिम, पिछड़ा और अगणी जातियों के लोग हैं.
सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के लिए तो हाथ से खिसकता मुस्लिम वोट बैंक सियासी सिरदर्द का सबब बन गया है. पिछले लोकसभा चुनावों में उनकी पार्टी के 11 मुस्लिम उम्मीदवारों में एक भी नहीं जीत सका था. अब वे आजम खान को मान मनौवल करके पार्टी में ले तो आए लेकिन वे दूसरी ही रट लगाए हैं.
वे सपा की बात न करके खुद को मुसलमानों का रहनुमा करार दे रहे हैं. वे कहते हैं कि सभी राजनैतिक दलों ने मुस्लिमों को कभी वोट बैंक से ज्यादा कुछ न समझा. कांग्रेस के हिंदू आतंकवाद का मुद्दा उठाकर बाजी मार लेने पर आजम खान कहते हैं, ''हम लोग मजहब की राजनीति नहीं करते.''{mospagebreak}
उधर भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन का मानना है कि मुसलमान काफी समझदार हो गया है और उसने दूसरों के इशारे पर चलना बंद कर दिया है. बिहार चुनाव के बाद साफ हो गया है कि अब जाति, अयोध्या जैसे मसले पीछे जा रहे हैं और विकास, शासन और कानून व्यवस्था जैसे मुद्दे मतदाता की प्राथमिकता बन रहे हैं.
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक अब्दुल रहीम बीजापुरी भी मानते हैं, ''यूपी का मुसलमान परिपक्व भी है और भावुक भी. अब वह शाहबानो, बाबरी मस्जिद और समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों से मीलों आगे निकल आया है.
अब वह भी स्वच्छ छवि वाले नौजवान और शिक्षित उम्मीदवार को तवज्जो देता है, चाहे वे किसी दूसरे धर्म और समुदाय का ही क्यों न हो.'' केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश, बिहार से होकर गुजरता है और मुस्लिम मतदाता उसमें एक बड़ा पड़ाव हैं. फिलहाल तो इस बात में कोई शुबहा नहीं है.